भारतीय संस्कृति की मुख्य धारा और शिव

ऊँ नमः शिवाय  : महाशिवरात्रि की शुभकामनाएँ
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आज महाशिवरात्रि है। पूजा, अर्चना, आराधना, प्रार्थना, भजन और भक्ति का माहौल है। हालाँकि, पूजा, अर्चना, आराधना, प्रार्थना, भजन और भक्ति में अंतर भी है, लेकिन ये परस्पर घुलमिल गये हैं। राम और कृष्ण के साथ भक्ति का संबंध तो विकसित हुआ, लेकिन भक्ति और शिव का क्या संबंध रहा है? राम और कृष्ण विष्णु के अवतार हैं। शिव या रुद्र का अवतार? 
रुद्र का हथियार त्रिशूल है। रुद्र इसका इस्तेमाल शिव को सुनिश्चित करने के लिए करते हैं। यह बात तब और महत्त्वपूर्ण लगने लगती है जब हमारा ध्यान इस तरफ जाता है कि शिव आर्येतर परंपरा से आते हैं। यहाँ के शिव के आर्य या अनार्य परंपरा के होने के उल्लेख की बस इतनी ही प्रासंगिकता है कि रुद्र अपने समाज की मुख्य-धारा की परंपरा से नहीं, बल्कि मुख्य-धारा के समांतर किंतु भिन्न परंपरा से संबद्ध रहे हैं। भारतीय संस्कृति की मुख्य-धारा की इस खासियत को समझने में आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी सहायक और साक्षी हो सकते हैं। आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी के अनुसार, ‘बौद्ध-धर्म के उच्छेद और ब्राह्मण-धर्म की पुन:स्थापना से भारत की धार्मिक तथा राजनीतिक परिस्थितियों में जो अभूतपूर्व क्रांति’ उत्पन्न हुई! अब यह जानना दिलचस्प हो सकता है कि ‘बौद्ध-धर्म के उच्छेद’ के बाद बुद्ध को विष्णु का अवतार माना गया या ‘बौद्ध-धर्म के उच्छेद’ के लिए बुद्ध को विष्णु का अवतार माना गया?
‘बौद्ध-धर्म के उच्छेद’ के बाद बुद्ध को विष्णु का अवतार माने जाने की ‘उदारता’ का कोई कारण नहीं दिखता है। ‘बौद्ध-धर्म के उच्छेद’ के लिए बुद्ध को विष्णु का अवतार माने जाने का संकेत मिलता है, वह यह कि बुद्ध को विष्णु का अवतार मान लिया गया, लेकिन, ‘बौद्ध-धर्म के उच्छेद और ब्राह्मण-धर्म की पुन:स्थापना’ के बाद बौद्धों को वैष्णव नहीं माना गया। उच्छेद में निहित उत्पीड़न को समझा जाये तो संस्कृति की मुख्य-धारा की खासियत पर थोड़ी रौशनी पड़ सकती है; कैसे ‘बौद्ध-धर्म’ अपने उच्छेद के बावजूद अपने अस्तित्व को भारत में बचा सका। निश्चित रूप से इस बचने में इस्लाम के आगमन के महत्त्व को भी समझना जरूरी होगा। यह सच है कि इस्लाम के साथ भी बौद्ध का द्वंद्वात्मक संबंध ही था, लेकिन ब्राह्मण-विरोधी के रूप में इस्लाम की उपस्थिति ने पहले से सक्रिय ब्राह्मण-विरोधी संप्रदायों में एक नये प्रकार की पारस्परिकता को विकसित किया, इससे भी इनकार नहीं किया जा सकता है।
आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी के शब्दों में, ‘मुसलमानों के आने के पहले इस देश में कई ब्राह्मण-विरोधी संप्रदाय थे। बौद्ध और जैन तो प्रसिद्ध ही हैं। कापालिकों, लाकुलपाशुपतों, वामाचारियों आदि का बड़ा जोर था। नाथों और निरंजनियों की अत्यधिक प्रबलता थी। बाद के साहित्य में इन मतों का बहुत थोड़ा उल्लेख मिलता है। दक्षिण से भक्ति की जो प्रचंड आँधी आई, उसमें ये सब मत बह गए। पर क्या एकदम मिट गए? लोकचित्त पर से क्या वे एकदम झड़ गए? हिंदी, बँगला, मराठी, उड़िया आदि साहित्यों के आरंभिक काल के अध्ययन से इनके बारे में बहुत-कुछ जाना जा सकता है।’ आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी के शब्दों में, ‘बौद्ध धर्म का इस देश से जो निर्वासन हुआ उसके प्रधान कारण शंकर, कुमारिल और उदयन आदि वैदांतिक और मीमांसक आचार्य माने जाते हैं। .....पर उन्होंने निचले स्तर के आदमियों में जो प्रभाव छोड़ा था, उसमें नाम-रूप का परिवर्त्तन हुआ, ठीक उसी प्रकार जिस प्रकार शंकराचार्य के तत्त्ववाद की पृष्ठ-भूमि में बौद्ध तत्त्ववाद अपना रूप बदलकर रह गया।
बड़े-बड़े बौद्ध मठों ने शैव मठों का रूप लिया और करोड़ों की संख्या में जनता आज भी उन मठों के महंतों की पूजा करती आ रही है।’ शैवों-कापालिकों-लाकुलपाशुपतों के बारे में मुख्य-धारा की क्या धारणा रही है, यहाँ बस इतना ही स्पष्ट करना था। साथ ही यह ध्यान दिलाना भी अप्रासंगिक नहीं होगा कि विद्यापति की भक्ति का प्रसंग राम से नहीं, शिव-पार्वती और राधा-कृष्ण से जुड़ता है, लेकिन मुख्य-धारा को शिव-पार्वती प्रसंग उतना नहीं सुहाया जितना कि राधा-कृष्ण प्रसंग। अकारण नहीं है कि विद्यापति का प्रसार ‘मुख्य-धारा’ की ‘मुख्य-भूमि’ की ओर न हुआ, बल्कि बंगाल, उड़ीसा, असम, नेपाल आदि की ओर हुआ। भूलना न होगा कि विद्यापति का प्रसार उन्हीं सरणियों में हुआ जिन सरणियों में उनके पहले बुद्ध और उनके बाद कबीर का प्रसार हुआ था।

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