हरामी उजाले में मटकते भटकते हुए
'अँधेरे में' का पाठ संभव नहीं होता
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आज ये सवाल ‘अग्निवर्षी लेखकों’ से ही नहीं ‘तुषराद्रि-संकाश-गौर-गंभीर लेखकों’ से भी है और खुद से भी है, कि क्या हमारा लेखन साहित्य की किसी भी तरह की सामाजिक सार्थकता को बचा पाने में सक्षम हुआ है? जवाब...! जवाब तो उजाले के चराऊर पर निकला है!
तब याद आते हैं मुक्तिबोध आशंकाओं के अंधेरे में विचरते मुक्तिबोध
‘….... ….......
…..............
इसीलिए मैं हर गली में
और हर सड़क पर
झाँक-झाँक देखता हूँ हर एक चेहरा,
प्रत्येक गतिविधि
प्रत्येक चरित्र,
व हर एक आत्मा का इतिहास,
हर एक देश व राजनैतिक परिस्थिति
प्रत्येक मानवीय स्वानुभूत आदर्श
विवेक-प्रक्रिया, क्रियागत परिणति !!
खोजता हूँ पठार...पहाड़...समुन्दर
जहाँ मिल सके मुझे
मेरी वह खोयी हुई
परम अभिव्यक्ति अनिवार
आत्म-सम्भवा।' –----- मुक्तिबोध
निश्च्त रूप से मुक्तिबोध की कविता 'अँधेरे में' बहु अर्थ संभवा ऐसी कविता है जिसमें सभ्यता की काव्य चेतना के सारे संदर्भ मुखर हैं। यह रहस्य और अस्मिता की कविता न होकर सभ्यता के मुख्य अंश में सक्रिय शंकाओं और समय की छलनाओं से टकराते हुए अनावरण और संभावनाओं को भाषा में हासिल करने की बहुआयामी द्वंद्वात्मकताओँ की कविता है। यह वह कविता है जिसे बाहर से पढ़ा ही नहीं जा सकता है। एक स्थिति के संदर्भ से शायद बात साफ हो। रौशनी में खड़ा व्यक्ति अँधेरे में खड़े व्यक्ति की स्थिति को नहीं देख सकता है लेकिन अँधेरे में खड़ा व्यक्ति रौशनी में खड़े व्यक्ति की स्थिति को देख सकता है। मुक्तिबोध की कविता 'अँधेरे में' का पाठ तभी संभव हो पाता है जब हमारी पाठचेतना के अंदर उस अँधेरे के वृत्त में प्रवेश करने का व्यक्तिगत साहस, सामाजिक क्षमता और सांस्कृतिक दक्षता परस्पर संवादी और सहयोजी मुद्रा में हों। व्यक्तिगत साहस, सामाजिक क्षमता और सांस्कृतिक दक्षता परस्पर संवादी और सहयोजी मुद्रा की कमतरी 'अँधेरे में' की पाठ-प्रक्रिया को क्षतिग्रस्त कर देती है। मुश्किल यह कि व्यक्तिगत साहस, सामाजिक क्षमता और सांस्कृतिक दक्षता को परस्पर संवादी और सहयोजी बनाये रखने के लिए जिस सांस्कृतिक धैर्य की जरूरत होती है हम उस पर टिकने के बजाये किसी तात्कालिक निष्कर्ष की हड़बड़ी के शिकार हो जाते हैं। अभी तो इतना ही..
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