मैं भी मिलना चाहता हूँ जैसे क्षिति-जल-पावक-गगन-समीर

प्रफुल्ल कोलख्यान Prafulla Kolkhyan

झूठ न कहूँगा मैं भी मिलना चाहता हूँ
बल्कि यूँ कहा जाना अधिक ठीक है कि मिल जाना चाहता हूँ
मिल जाना चाहता हूँ, जैसे दूध में मिस्री, जैसे काजल में आँसू
जैसे अँधेरे से रौशनी, जैसे धरती से आसमान,
बल्कि जैसे क्षिति-जल-पावक-गगन-समीर
जैसे मिले निराला से मुक्तिबोध
या जैसे मिल सकते थे तुलसी को कबीर
जैसे मिला करते थे सुकरात से प्लेटो, प्लेटो से अरस्तू
जैसे मिल गये थे बुद्ध से आनंद या फिर फूले से बाबा साहेब
राहुल से नागार्जुन, या जैसे मिल लेते थे गाँधी और रवीन्द्र

झूठ न कहूँगा मैं भी मिलना चाहता हूँ
मगर वैसे नहीं जैसे दूध से मक्खी या मलाई से कंकड़
वैसे नहीं जैसे आँख से किरकिरी या क्रेडिट से डेबिट
उस तरह से तो बिल्कुल ही नहीं जैसे वकील से मिलता है एफीडेविट

झूठ न कहूँगा मैं भी मिलना चाहता हूँ
मगर जैसे अनेक से एक और एक से अनेक
मैं मिलना चाहता हूँ तुम से, हे मेरे देश
जैसे मिलता है चुनाव से जनादेश
जैसे राष्ट्र से मिलता है नागरिक या संविधान से अधिकार
जैसे होली में मेरे महबूब के रुखसार से मिल लेता है अबीर
जैसे, जैसे, जैसे कि जैसे क्षिति-जल-पावक-गगन-समीर

झूठ न कहूँगा मैं भी मिलना चाहता हूँ
यह जानते हुए कि मिलना मिटना नहीं है
झूठ न कहूँगा, मैं मिल जाना चाहता हूँ

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