पहचान का संकट

पहचान का संकट

चौकन्ना क्या दसकन्ना क्या!
दुनिया में लोगों को न जाने कितने ही तरह के संकटों का सामना करना पड़ता है। इन में से प्रमुख है — पहचान का संकट। जब तक यह संकट सामने नहीं खड़ा हुआ है, गनीमत जानिए। इस संकट से लोग निपटते भी तरह-तरह से रहे हैं। हालाँकि, इस निपटान का सारा दारोमदार पहचान से संतुष्ट होनेवाले पर होता है। पहचान से संतुष्ट होनेवालों के जितने प्रकार हो सकते हैं, इस संकट के भी उतने ही प्रकार हैं! अब इस दार के मायने क्या होते हैं? मदार के मायने क्या होते हैं? समझदार हैं तो दार को समझे बिना समझदारी को भी समझते होंगे और मदार को समझे बिना मदारी को भी पहचानते होंगे! है कि नहीं! कहिये न है ये है। साधारण मदारी बंदर भालू नचाता है, अ-साधारण मदारी प्रभु कृपा से जब करतब दिखलाता है तो नाचत नर मर्कट की नाईं! यह दार, दारी भी आलू की तरह किसी भी जगह फिट हो जाता है। 
पता नहीं आपकी ओर चलता है या नहीं। पटना में किसी सवाल के सकारात्मक जवाब यानी सकारने का सबसे प्रबल तरीका है, बात को सुनकर कहना — है ये है। आलू खरीदते समय पूछिये अलुवा ठीक है न तो जवाब मिलेगा — है ये है। सोना खरीदते समय पूछिये कि हलमर्कवा सही है न तो जवाब आयेगा — है ये है। यह वा लगाने का बड़ा महात्म्य है भाई! हम बिहारी लोग किसी भी शब्द में वा लगाके प्रेम और लगाव का सार संप्रेषण करते हैं। आलू में प्रेम के सार संप्रेषण से आलू अलुवा  हो जाता है। रमेश रमेशवा और कंप्यूटर कंप्यूटरवा या मोबाइल को मोबैलवा आदि। दो मत हैं। यहाँ तो अद्वैत में भी मत द्वैत है। एक मत कहता है बाबू का संक्षिप्त है बा। दूसरा मत कहता है सब कुछ संस्कृत से निकला है, सो कालांतर में वर्तते, बाटे सूक्ष्म होकर बा हो गया  — अब इसका सिक्वेंसवा आप लगाते रहिए! अलुवा नहीं समझे, आलू। हमारी भाषा में आलू को अल्लू कहते हैं। यह क्यों कह रहा हूँ! इसके पीछे कहानी है, जैसा कि होता है हमारी हर बात के पीछे कहानी तो होती ही है कविता भी होती है, अक्सर महाकाव्य भी। कहानी से का हानि? कुछ नहीं! बाजार की बात है फिर भी मैं लाभ हानि पर उलझूंगा नहीं। नहीं उलझने के पीछे महाकाव्य है — लाभ हानि जीवन मरण यश अपयश विधि हाथ। तो कहानी यह है कि बाजार में एक जगह मामला फँसा हुआ था। अधिकतर व्यवसायी ही थे — अब रूपरंग ढोंगढक्कड़ पर न झलफलाएँ  तो सब व्यवसायी ही हैं। बतंगड़ हो जाये तो उस में से बात निकालना बहुत ही मुश्किल होता है। थाना पुलिस कंज्यूमर कोर्ट तक की बात उठ गई। बड़ी मशक्कत के बाद बात समझ में आई कि विवाद आलू की पहचान को लेकर शुरू हुई थी। ऐसा उस सज्जन की बात से पता चला। वे चीख रहे थे :
यह बताना ही होगा कि यह आलू है तो कैसे है? बेवकूफ समझ लिया है क्या! कंज्यूमर को आइटम के बारे में जानने का हक है। कंज्यूमर के हक का क्या?
अरे भाई क्या गजब मचा रखी है बाजार में! पहली बार सब्जी लेने निकलो हो क्या?
गजब मैं ने मचा रखी है! हएँ, मैं ने मचा रखी है! मैं ने? तुम लोग सब मिल के लूटते हो। हमलोग ग्राहक हैं। हक से ग्रहण करते हैं। याचक नहीं हैं, समझ लो। गया जमाना जब तुम लोग साह बनते थे। अब ग्राहक ही शाह है, समझ लो। ठीक से। मैं बाजार आया हूँ कोई चाँद पर नहीं! हिसाब पूछते हैं। पहली बार ही आया तो क्या कर लोगे? क्या?
यह आखिरी बार आना न हो जाये।
इस धकमपेल में यह रौबदार आवाज कुछ अलग थी। इसकी इंट्री बाद में हुई थी। पुलिस आदमी के पटल पर उभरने के बाद।  बात रफ्तार पकड़ रही थी। इस रौबदार आवाज को सुनकर झंझट में नई किस्म की हलचल होने लगी। यह भिन्न किस्म की हलचल थी। माहौल कुछ थमथमा गया था। पुलिस आदमी के मुँह पर तेज बढ़ने से लोगों मुखारविंद पर बत्तीसों संचारी भाव दैदिप्यमान हुआ। वे पुलिस की तरफ याचना की नजर से देख रहे थे, कुछ बोल नहीं रहे थे। पुलिस ने स्वगत भाषण किया। उसके हिसाब से चीख पुकार घरेलू अपराध व हिंसा में तो शामिल है, इससे बाजारू हिंसा का आपराधिक एंगिल बनता है या नहीं इस पर पुलिस आदमी  के मन में संदेह है, ऐसा लगा था। नागरिक मामलों में संदेह के आधार पर पुलिस को बीच में स्वांतःकुदाय कर खुद को नहीं फँसाना चाहिए। ऐसा उसने ट्रेनिंग में सीखा था। स्वांतःकुदाय सिर्फ उन को शोभता है जो फैसला करते हैं या जो फैसला किये जाने की स्थिति बनाते हैं। फैसले की स्थिति पैदा करे कोई, फैसला करे कोई पुलिस आदमी को तो सिर्फ सबूत जुटाना है। इस दृश्य निक्षेपण को वे नहीं पाये। इस दृश्य निक्षेपण से व्यवसायियों की आवाज मंद पड़ गई थी जबकि वे चीखते ही रहे :
आखिरी बार आना न हो जाये का क्या मतलब? क्या तुम लोग मिलकर मुझे मार डालोगे? 
तड़ाक की आवाज के साथ उनकी वाणी को विराम लग गया। यह आवाज बाजार के बादशाह के कर प्रहार से निकली थी। अब इसमें साफ-साफ आपराधिक एंगिल शामिल हो चुका था। जाहिर है अब मोर्चा पुलिस आदमी के हवाले था। मोर्चा सम्हाल लिया गया:
हटो, हटो क्या बात है?
बात इतनी बढ़ जायेगी, सोचा भी नहीं था। वे कुछ बोलें इसके पहले उस दुकानदार ने कहा कि ये बवाल काट रहे हैं। आलू के आलू होने का सबूत माँग रहे हैं। कह रहे हैं कि ये आलू है तो आलू ही क्यों है कैसे है। डिटेल माँग रहे हैं। पुलिस शांत प्रसन्न मन से सब कुछ ध्यान से सुन रहा था। तभी वे बीच में बोल पड़े, कंज्यूमर को जानने का हक है, कनपट्टी सहलाते हुए कहा। कहा इस तरह जैसे दंतमंजनन की ट्यूब से मंजन की आखिरी किस्त निकाल रहा हो। अब पुलिस का आदमी उन से मुखातिब हुआ :
हाँ जी, आप कौन हैं? पुलिस के काम में टाँग अड़ा रहे हैं। धारा लगाऊँ क्या? पूरा डिटेल बताइए, आलू के बारे में नहीं अपने बारे में। शांति से।  
अब ऐसी बातें शांति से कैसे की जा सकती है? मुसीबत दूसरी थी। कल ही कोई बता रहा था, आदमी का मूल खोजना बहुत कठिन है। सब से कठिन काम है खुद को पहचानना — आत्माभिज्ञान, खुद की पहचान, खुद को जानना बहुत मुश्किल है। किसी महात्मा ने एक बार संगत में बताया था। यह जानना बहुत मुश्किल है कि तुम कौन हो। अपने से लगातार पूछते रहो — मैं कौन हूँ? क्या जो मैं दिखता हूँ मैं वही हूँ, जो मैं अपने बारे में जानता हूँ और जितना मैं जानता हूँ, क्या मैं वही और उतना ही हूँ। अपने मैं को पहचानना ही बड़ी बात है। इसलिए ज्ञानी लोग अपने बारे में तृतीय पुरुष में बात करते हैं। मैं ने किया ऐसा नहीं बताते अपना नाम लेकर बताते हैं कि उसने ऐसा किया, वह वैसा करेगा। ज्ञानियों ने इस पद्धति को इलेइज्म (illeism) कहा है, ऐसा उन्होंने मनोविज्ञान में पहले कभी पढ़ा था। पढ़ा हुआ गुप्त ज्ञान लुप्त नहीं भी तो सुप्त जरूर हो जाता है। ऐसा उन्हें प्रवचन के दौरान पता चला। पड़ा हुआ सब इल्ले पो हो गया। इसलिए सत्संग जरूरी है। सत्संग में ज्ञान हुआ उन्हें। अपने बारे में तृतीय पुरुष में बात करनी चाहिए। प्रथम पुरुष तो कोई और है। वह सृष्टि कर्ता है। उस की इच्छा के बिना पत्ता भी नहीं हिल सकता है। अब वे कैसे बतायें कि वे कौन हैं। उधेड़-बुन में पड़ गये। पहचान के मामले में खुद के आलू बराबर हो जाने का एहसास होते ही वे लुंजपुंज होने लगे। लुंजपुंज मनःस्थिति में भी उधेड़-बुन तो जारी ही था। तभी पुलिस का आदमी डपटकर बोला खामोश क्यों है! अपनी पहचान बताओ। डपटना पुलिस आदमी का अधिकार है और सहमना नागरिक का पवित्र कर्तव्य। इसे वे अच्छी तरह जानते थे। सिर्फ यह समझ में नहीं आ रहा था कि अपनी पहचान कैसे बतायें, जबकि इस स्थिति में उन्हें खुद नहीं मालूम है। खामोशी के विरुद्ध आवाज हमेशा तेजी पकड़ती है, ज्यों-ज्यों आवाज में तेजी आती है त्यों-त्यों खामोशी गाढ़ी और गंभीर होती जाती है। इस बार पुलिस आदमी की आवाज कड़की!
जल्दी बोलो। पूरी पहचान। कौन हो। क्या हो। जो हो जैसे हो। यह भी कि वही और वैसे क्यों और कैसे हो। सबूत के साथ — ओभीडी (ऑफिसियली भैलिड डाक्युमेंट) के साथ। पहले साबित करो कि आदमी हो या रोबोट हो।
लुंजपुंज तो थे ही ओभीडी सुनकर तो एकदम से मुरझाने लगे। वे ओभीडी की जटिलताओं से वाकिफ थे। जहाँ तक उन्हें याद है किसी ओभीडी में उनके रोबोट होने या नहीं होने के बारे में कुछ भी दर्ज नहीं है — ग्रे एरिया है। उनकी चुप्पी से पुलिस आदमी का मनोबल बढ़ा जो पहले से ही रेस इंजन रहता है। वे ले जाये गये। कहाँ? क्या पता? कुछ लोग रौबदार आवाजवाले आदमी की आवभगती में कुछ लोग लपक रहे थे। बाकी लोग धीरे-धीरे आँख बचाकर खिसकते भये। आगे क्या हुआ? नहीं पता। रात भर स्वप्नलीन रहा। सुबह स्थानीय खबर में पढ़ा बाजार में रोबोट का हुड़दंग, प्रशासन चौकन्ना। जब कान बंद हो तो चौकन्ना क्या और दसकन्ना क्या!
अब मैं उधेड़-बुन में पड़ा हुआ हूँ। बुन रहा हूँ तो बुनकर ही हुआ न। याद आया, बापू के सामने पहचान का सवाल आया तो उन्होंने खुद को नेता नहीं, किसान और बुनकर बताया था। कोई माने या नमाने, यह सही है।
 

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