कछुआ और खरगोश

कछुआ और खरगोश

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पिछला दो दिन कुछ न करते हुए बीता। अपने दो दिन न दिखने के सवाल में मेरी कैफियत थी। मेरी कैफियत सुनकर लोगों ने कुछ कहा नहीं -- लोगों का मतलब भोर चलन के साथी संगत जो पसीना बहा चुकने के बाद थोड़ी देर बड़े सबेरे के उपवन के पाषाण मंच पर पसीना सुखाने और फिर थोड़ी देर बीतने के बाद पास की चाय स्थली पर चाय सुरकने के बाद रात की खबर पर विकिरण बिखेरने के बाद साढ़े-आठ बजे तक अपने-अपने ठौर पर लौट जानेवाले लोग। पहले मैं इसे प्रातः भ्रमण कहता था। मैं भ्रमण को भ्रम से जोरके ही देखता रहा हूँ। जब दिशा का कोई खास महत्त्व न हो न गंतव्य का कोई पता, भ्रम की स्थिति बनी रहे -- इधर जाऊँ; उधर जाऊँ; दायें जाऊँ, बायें जाऊँ -- किधर भी आदमी जाये कोई फर्क नहीं पड़ता है। सुबह-सुबह दिग्भ्रमित होने को मैं अच्छा नहीं मानता था! हुआ यों कि दो-चार प्रवचन सुनने के बाद भ्रम दूर हो गया। भ्रम दूर होते ही पता चला सब कुछ भ्रम है। इससे मेरा मन हल्का हो गया। प्रात को लेकर भी एक भ्रम था। मेरा मानना था। प्रात प्रेत का विशेषण है। वह समय जब सुबह उलटे पाँव आती है। सुबह होने के ठीक पहले के गहराये अंधकार और उसके फटते ही सुबह की शुरुआती लक्षण! उसके मतलब प्रेत के पाँव, पौ फटने से है। एक बार जब सबकुछ भ्रम साबित हो गया तो मेरा मन पवित्र हो गया। संगत के लाभ अपरंपार! फिर भी मन में थोड़ा पाप बचा रह गया होगा कहीं तो मैं प्रभात भ्रमण को भोर चलन कहता हूँ। खैर, पिछले दिन कुछ न करने मेरी कैफियत को किसी ने सवाक चुनौती नहीं दी, लेकिन उनकी टेढ़ी भौंहें, आँखें तो वैसे भी मरी हुई हालत को प्राप्त हैं, ने लगा कुछ कहना चाहा। क्या? पता नहीं। शायद यह कि पिछले दो दिन कुछ न करते हुए बीतने पर जरा-सी ग्लानि मुझ में क्यों नहीं है? जवाब आसान है। पूरी जिंदगी लोक-लाभ के वास्ते कुछ न करते हुए बीतने के विलक्षण अनुभव से समृद्ध मुझे पिछले दो दिन के न कुछ करते बीत जाने का क्या अफसोस होगा। ज्यादा मुँह खुलवाते तो कह देता जिनकी चार दिन की चाँदनी होती है उनकी जिंदगी के दो दिन आरजू में कट जाते हैं, बाकी दो दिन इंतजार में। आरजू और इंतजार करने को करना कहा जा सकता है क्या? यह तो ठग-दलील हो गई!

मेरा मन अशांत था -- ये जीवन यों ही बीत गया, जो कबाड़ने आया था उसे तो अपने पीछे और लहलहाता हुआ छोड़के  जाने की नौबत बज रही है कान में। मुझे पराभव बोध ने धर दबोचा। मेरे चेहरे का कुम्हलायापन पारस बाबू की पारखी नजर से छिपा नहीं रह सका। निस्संदेह नजर उनकी भी कमजोर है। निवृत्त हो गये हैं तो क्या? प्रशासन-शाही नजर की बंद आँख से ही देखने की क्षमता के कारण वे सीढ़ियाँ फलाँगते रहे जीन भर! उन्होंने ढाढ़स बँधाने के लिए कहा -- स्लो एंड स्टिडी विन्स द रेस! कछुआ और खरगोश की कहानी याद है न! मैंने कहानी सुनी तो थी, लेकिन तब मैं रहऊँ अचेत। एक बार हो गया सो हो गया, ये कोई न्यूटन की गति का नियम थोड़े न है कि बार-बार होगा। मेरी बात सुनकर पारस बाबू एक झटके  कह गये, न्यूटन की बात करते हो! क्या जानते हो न्यूटन के बारे में। प्रशासन-शाही जबान! कह गये -- न्यूटन का नियम भी एक बार लागू हो गया सो हो गया। मैं तो सन्न रह गया! निवृत्ति पश्चात जैसी जबान वैसी ही निवृत्ति पूर्व होती तो क्या बात थी! लेकिन यह तो सत्योपरांत काल है -- पोस्ट ट्रूथ इरा! यह सत्योपरांत क्या होता है? अच्छा सवाल! मेरे पिता जी ने मुझे उपन्यास पढ़ते हुए पकड़ लिया। यह सब लटपट पढ़ने की घोर मनाही थी। पहले मैं सहमा। फिर समझा। सहमके समझने के बाद मेरा सत्योपरांत काल शुरू हो गया और मैं अधिक ढिठाई से उन दिनों प्रसिद्ध उपन्यासों की श्रृँखला जुटाने लगा। तब प्रेमचंद को नहीं, प्रेम को ही उपन्यास मानता था। ओ मेरा सत्योपरांत का अनुभव है। लेकिन एक बात अनुभव से बताता हूँ। आपके पास गाँठ न हो तो मैं गाँठ बाँध लेने की बात क्या कहूँ -- सत्य अगर सत्य हो तो, अपने उपरांत में अधिक दिन तक किसी के भी मुक्त विचरण को बर्दाश्त नहीं करता है। वैसे एक बात और -- आज तो सच से बड़ा कोई झूठ नहीं, झूठ से बड़ा न शस्त्र, न शास्त्रोपि! क्या मैंने सच कहा!

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