मुरदों का गाँव

साधो ये मुरदों का गाँव!

कबीरा ये मुरदों का गाँव!

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बुझी हुई आँख से निकली धुआँसू बेकरारी

ये दुबकी हुई शाम का नजारा,

ये पैर बढ़ाता हुआ बहुरंगी अँधेरा

कोई भूला भटका, थका परेशान बेहाल

बटोही नहीं, लुटेरा है, लुटेरा है।

 

ओ बेदखल डाक जिनका रहता था इंतजार

गये जमाने के डाकिया की साइकिल की

टूटी घंटी की खामोशी में सिमटी पग-ध्वनि

नहीं कोई, कोई नहीं, कोई भी तो नहीं

नहीं, किसी का भरोसा नहीं, लुटेरा है, लुटेरा है।

 

मच्छरों की तरह लगातार उतर रही इमोजियाँ

मरी हुई बधाइयाँ, भावना शून्य श्रद्धांजलियाँ

हतोत्कर्ष बैसाखियों की तरह लचकती डालियाँ

मरणासन्न हाकरोस करता न्याय-निर्णयन-पदचाप

कुछ भी तो नहीं, विषाक्त भ्रम है, लुटेरा है, लुटेरा है।

 

साधो, ये मुरदों का गाँव!

कबीरा, ये मुरदों का गाँव!!

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