रूमी कौन हैं!

अविश्वास प्रस्ताव पर बहस से 
संस्कृति के कार्यभार की याद, एक उपलब्धि
— ये रूमी कौन हैं!
कल संसद में विपक्ष के अविश्वास प्रस्ताव पर बहस हो रही थी। इस में देश की ताजा स्थिति पर बहस हो रही थी। एक नागरिक की जितनी अनिवार्य दिलचस्पी इस में होनी चाहिए, मेरी भी है। यह एक राजनीतिक कार्रवाई है। ऐसी राजनीतिक कार्रवाइयों से एक नागरिक को जितना प्रभावित होना चाहिए मैं भी हूँ। मणिपुर का सवाल तो बहुत ही भयानक, मानवद्रोही एवं दूरगामी प्रभावों का संकेत करता है। इस पर अपने विधाताओं के मंतव्य को उदास मन से सुन रहा था। मन में राहुल गाँधी के भाषण का इंतजार अन्य लोगों की तरह मुझे भी था। मैं बहुत जोर से चौंका जब राहुल गाँधी ने अपनी बात शुरू करते हुए, रूमी को याद किया। दिल से जो बात निकलती है, वह दिल तक पहुँचती है, इस लिए वे दिल से बोलेंगे, दिमाग से नहीं आदि। रूमी की कविता कहती है — दिल से जो पुकार उठती है, वही असली आवाज़ है, बाक़ी जो कुछ सुनाई देता है, वह उसी की अनुगूँज है। इसी क्रम में आगे, यह भी कहते हैं — तुम्हारा हृदय एक क़ब्र के समान है, कैसे पहुँचेगी उसमें प्रकाश की स्वर्णिम किरण, वहाँ तो घुप अँधेरा है, सुनसान है, इस क़ब्र से उठना ही होगा। रूमी तो अपने बारे में यह भी कहते हैं — न मैं ईसाई हूँ, न यहूदी न पर्शियन, न मुस्लिम न पूर्व से, न पश्चिम से, न मैं जल से हूँ न थल से। राजनीति संस्कृति-साहित्य का इतना भी याद कर ले तो बहुत कुछ खुद को सँवार ले और जीवन को भी, मानव-पक्षी हो जाये। सावधानी यह कि संस्कृति हमारे आगे बढ़ने की तैयार जमीन देती है, तो पीछे खींच लेने का दलदल भी बना देती है। आखिर, सब कुछ के पहले और बाद हम मनुष्य हैं।
ये रूमी कौन हैं! इस में हमारी दिलचस्पी होनी चाहिए। फारस में जनमे जलालुद्दीन रूमी (1207-1273) कहते हैं, अमेरिका में बहुत लोकप्रिय ही नहीं, लोक-सम्मानित और लोक-स्वीकृत कवि हैं। ऐसी क्या खासियत है इनकी कविताओं में, यह देखना और भी दिलचस्प है। रूमी सूफी कवि थे। रूमी कहते हैं — बिना स्याही और बिना शब्दों के लिखी जाती है सूफ़ी की किताब। याद कीजिए, मसि-कागद न छूने, कलम नहीं पकड़ने की बात करनेवाले कबीर (14-15वीं सदी) को। रूमी की कविता कहती है — सूर्य एक ही है, उसकी किरणें असंख्य हैं, सूर्य इनके कारण बंटता नहीं। रवि-शशि को मानव-अद्वैत के ऐसे ही संदर्भ में लेते हैं, कबीर एवं, भारत के सूफी-संत हैं!  रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने मानव धर्म में हवाला दिया — कबीर, नानक, रविदास, दादू और उनके अनुनायियों ने मनुष्य शरीर को भगवान का मंदिर कहा है। इस मंदिर में सर्व-व्यापी परम सत्ता का लौकिक निवास है। कबीर कहते हैं, इस शरीर में स्वर्ग का बगीचा है, इस में सात समुद्र और असंख्य सितारे शामिल हैं, सृष्टिकर्ता इस में प्रकट है। दादू शरीर को शास्त्र कहते हैं। इसी शास्त्र में ईश्वरीय संदेश लिखा है। यह सब अपनी आध्यात्मिक लौकिकता और व्यावहारिकता में, आत्मा की अमरता और शरीर की नश्वरता वाले आध्यात्मिक अलौकिकता के अव्यावहारिक भाव-बोध से भिन्न और विजातीय है। 
खैर, मुझे तो इस अविश्वास प्रस्ताव पर राहुल गाँधी की शुरुआत से इस सांस्कृतिक कार्यभार का स्मरण हो आया, हम लोगों के लिए यही यह इस बहस की उपलब्धि हो सकती है। राजनीतिक कार्यभार तो उन लोगों के जिम्मे है ही। शरीर में स्वर्ग के बगीचा से, भिन्न अर्थ में, गालिब याद  गये — बाजीचा-ए-अतफाल है, दुनिया मिरे आगे। होता है शब-ओ-रोज तमाशा मिरे आगे। 
रूमी कौन है, यह जानने से अधिक जरूरी यह जानना है कि हम कौन हैं, और कहाँ भटक रहे हैं!

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