राहुल गाँधी के परिवारवाद का मतलब

राहुल गाँधी के परिवारवाद का मतलब

वाद कहने का आशय विचार और विचारधारा होता है। जब विचार कहते हैं, तो आशय उनका अपना विचार होता है। उनके परिवार के सदस्यों के विचारों के सामान्य पक्ष (कॉमन फैक्टर) में, विभिन्न स्रोतों से बने उनके खुद के विचार के मूलांश के जुड़ने से उनकी विचारधारा बनती है। यही हो सकता है उनका परिवारवाद। कम-से-कम जवाहर लाल नेहरू, इंदिरा गाँधी, राजीव गाँधी के विचारों का सामान्य पक्ष (कॉमन फैक्टर) है — धर्म-निरपेक्ष, लोकतंत्रीय, लोक-कल्याणाभिमुखी राज्य के प्रति अटूट और लचकदार राजनीतिक और वैयक्तिक निष्ठा, आइडिया ऑफ इंडिया। इसमें जाहिर तौर पर दक्षिणपंथ विरोधी वामपंथी रुझान से बनी अंतर्वस्तु का सार-स्वरूप (एसंसियल्स ऑफ कंटेंट्स एंड फॉर्म्स) अनिवार्यतः शामिल रहा है। वामपंथी रुझान होने से कोई वामपंथी या कम्युनिस्ट नहीं हो जाता, हल्के-फुल्के मिजाज में कहें तो वामपंथी पार्टियों के सदस्य ही जब सही मायने में वामपंथी या कम्युनिस्ट नहीं हो सके तो ये क्या होंगे। खैर, कहना यह है कि जवाहर लाल नेहरू, इंदिरा गाँधी, राजीव गाँधी, सोनिया गाँधी सब में वामपंथी रुझान रहा है, लेकिन ये वामपंथी नहीं रहे हैं। राहुल गाँधी में वामपंथी रुझान हैं, लेकिन ये वामपंथी नहीं हैं। प्रसंगवश, इस तरह का वामपंथी रुझान तो घोषित पूँजीवाद और स्वस्थ पूँजीवादी व्यवस्था में भी रहता आया है – भले ही रणनीतिक तौर पर। वैश्विक राजनीति की हवा बदल जाने से इसमें आये बदलाव से भी इनकार नहीं किया जा सकता है। वैसे, नागरिक मामलों में यह रणनीति वहाँ आज भी काम कर रही है। भारत जैसे निर्माणाधीन पूँजीवादी राज्य-व्यवस्था या आधी-अधूरी पूँजीवादी व्यवस्था में यह रणनीति स्थगित नहीं तो शिथिल जरूर हो गई। लाभार्थी नीतियों के नीतिगत फैसलों या रणनीतिक कार्यान्वयन को देखते हुए पूरी तरह से स्थगित नहीं कहा जा सकता है। फिर भी, राज्य की लोक-कल्याण नीति और लाभार्थी नीति के रुझानों में बुनियादी अंतर है। लोक-कल्याण नीति में राज्य का रुझान वामपंथी होता है। जबकि, लाभार्थी नीति में राज्य का रुझान दक्षिणपंथी होता है। रुझान होने मात्र से कोई राज्य वामपंथी या दक्षिणपंथी नहीं हो जाता है।

सभ्यता में शोषण तो अनिवार्य है। सवाल अधिकतम पोषण के साथ न्यूनतम शोषण या न्यूनतम पोषण के साथ अधिकतम शोषण का है। विकसित पूँजीवाद की राज्य व्यवस्था पोषण के साथ शोषण की नीति पर काम करती है। अर्द्ध विकसित या अधूरे पूँजीवाद की राज्य व्यवस्था पोषण विहीन शोषण नीति पर चलती है। सामग्रिक शिक्षा, क्षमता, दक्षता और आधिकारिकता के अभाव-जनित माहौल में, अधूरे पूँजीवाद की राज्य व्यवस्था तरह-तरह के कारनामों और झूठे लक्ष्यों, लोकलुभावन प्रतिश्रुतियों से पोषण विहीनता से बनी खाइयों को भरने या प्राणांतक विषमताओं की पीड़ा को कम करने की — आभासी अर्थ में कामयाब और वास्तविक अर्थ में नाकाम — कोशिशें करती रहती है। इसी कोशिश से निकलती है लाभार्थी नीति। अधूरे , पूँजीवाद की राज्य व्यवस्था में साँठ-गाँठवाली पूँजीवादी गतिविधि और उस से उपजे भ्रष्टाचार का निर्लज्ज बोलबाला हो जाता है; असल में भ्रष्टाचार का मूल उद्गम पूँजीवाद और लोकतंत्र के अंतर्विरोधों के मध्य होता है। इस अंतर्विरोध के आयतन का क्षेत्रफल की जितनी बड़ी आपदा होती है, इसमें भ्रष्टाचार के फलने, फूलने और पसरने का उतना ही अवसर होता है। कहना न होगा, भारत में इस समय अधूरे पूँजीवाद की राज्य व्यवस्था काम कर रही है। इस बात को ध्यान में रखते हुए राहुल गाँधी की वैचारिकी, विचारधारा, गतिमति और राजनीतिक कार्यविधि और इसके संभावित परिपक्व परिणाम को समझना होगा। खासकर तब जबकि, इस समय राहुल गाँधी की राजनीतिक विश्वसनीयता और सामाजिक स्वीकार्यता बढ़ रही है — सोशियो-पॉलिटिकल कैपिटल बन और बढ़ रहा है।

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