फिर से गोदानः अपरापर पृष्ठभूमि में इतिहास और वर्त्तमान
दो विश्वयुद्धों के बीच और भारत की राजनीतिक स्वतंत्रता की घोषणा के लगभग एक दशक पहले ‘गोदान’ 1936 में आया। तब से दुनिया बहुत बदली है --- दुनिया के साथ भारत भी बदला है। गाँव भी बदला है और ‘गोदान’ को जिसका महाकाव्य कहा गया है वह किसान जीवन भी बदला है। अध्ययन-विश्लेषण की पद्धतियाँ भी बदली है। एक अर्थ में लिखना पढ़ना भी है और उसी अर्थ में फिर से लिखना फिर से पढ़ना भी है। ‘गोदान’ को पढ़ा भी बहुत गया है और इस पर लिखा भी बहुत गया है। इतने पढ़े-लिखे जाने के बावजूद ‘गोदान’ को फिर-फिर पढ़ने की या ‘गोदान’ पर फिर-फिर लिखने की जरूरत है। किसी भी महत्त्वपूर्ण कृति की संरचना में ऐसा बहुत कुछ होता है कि हर पीढ़ी उसको अपने तरीके से पढ़ती और पाती है। इस पीढ़ी को भी अपना ‘गोदान’ पाना है तो उसे पढ़ना होगा। पिछले कुछ वर्षों से किसानों की आत्महत्या की बहुतेरी घटनाएँ सामने आई हैं --- आँकड़े लाख को छू रहे हैं! इन सारी घटनाओं के कारणों के रूप में एक ही कहानी सामने आती है --- कर्ज की कहानी। एक ही उत्पादक-समूह से इतने बड़े पैमाने पर आत्महत्या की घटनाएँ कई तरह की चिंता को जन्म देती है। आत्महत्या का एक बड़ा और प्रमुख कारण ‘कर्ज’ हो सकता है, लेकिन कोई एक कारण चाहे वह जितना बड़ा और जटिल क्यों न हो आत्महत्या के कगार तक ले जाने के लिए पर्याप्त नहीं हो सकता। हमारा अनुभव यह भी बताता है कि कई बार जिस बात का पता ‘बड़ों और प्रमुखों’ को नहीं होता है, वह बात साधारण और अ-प्रमुखों के बीच आम होती है। सामाजिक सहकार के क्षरण और संवेदनातंत्र के ध्वस्त हो जाने को इतनी बड़ी संख्या में किसानों की आत्महत्या के कारणों के रूप में चिह्नित और परीक्षित करना जरूरी है। मनुष्य का जीवन-यापन एक सामाजिक प्रक्रिया है और जीवन-क्षरण भी सामाजिक प्रक्रिया के बुनियाद के खतरनाक सिकुड़न की साखी है। मनुष्य का जीवन मृत्यु से स्थाई संग्राम है। ऐसा माना जाता है कि मौत किस्तों में नहीं होती लेकिन यह सच नहीं है। सच यह है कि मौत का किस्तों में न होना मनुष्य की सबसे बड़ी आकांक्षा होती है। जब कोई मरता है तो अकेला नहीं मरता है, उसके साथ के लोगों का भी थोड़ा-सा हिस्सा मरता है, कोई अकेले आत्महत्या भी नहीं करता। हमारे भी भीतर का कुछ हिस्सा मरता है। मेरे मित्र महेश जायसवाल के मुँह से अनायास कई बार निकला कि हमारे आस-पास कोई नया प्रेमचंद होता तो नया गोदान लिखता। लोकप्रिय कही-मानी जानेवाली कई फिल्मों के नये सिरे से गढ़ने का प्रयास इधर हुआ भी है, लेकिन ‘गोदान’! ‘गोदान’ को फिर से लिखने का मतलब ‘गोदान’ को फिर से पढ़ना है, फिर से पढ़ना अर्थात फिर से पाना। अर्थात होरी को, धनिया, गोबर, झुनिया, हीरा, पुनिया, दातादीन, मातादीन, सिलिया, नोखेराम, नोहरी, रायसाहब, खन्ना, गोबिंदी, मालती, मेहता, खन्ना, दारोगा जी, संपादक महोदय आदि को फिर से देखना और उनकी दुनिया में झाँकने की गुस्ताखी करना है। कहना न होगा कि ताक-झाँक करना, न तो ताकना ही होता है और न झाँकना ही। इसलिए फिर से ‘गोदान’ और फिर-फिर ‘गोदान’।
दुनिया के इतिहास में भी और भारतीय इतिहास में बीसवीं सदी का अपना महत्त्व है। एक तरह से देखा जाए तो बीसवीं सदी में न सिर्फ इतिहास ने कई मोड़ लिये बल्कि सभ्यता और संस्कृति भी कम नहीं बदली। इतिहास के बदलाव हर बार सभ्यता में भी बदलाव लाएँ यह जरूरी नहीं होता है। इस बीसवीं सदी के बारे सोचने पर आज यह अचरज ही लगता है कि मनुष्य जाति ने सामाजिक संघटन के बारे में, मानवीय संबंधों के बारे में कैसे-कैसे स्वप्न देखे। न सिर्फ स्वप्न देखे बल्कि बहुत हद तक उसे साकार करने की दिशा में भी मजबूती से कदम बढ़ाए। यह बीसवीं सदी की अंदरुनी ताकत का ही कमाल था कि उसने दो-दो महायुद्धों के भयानक हादसे को न सिर्फ बर्दाश्त कर लिया बल्कि तेजी से हाथ-पैर झाड़-पोछकर अगली यात्रा के लिए उठ खड़ा हुआ। ‘समता-स्वतंत्रता-बंधुत्व’ के स्वप्न के लिए उन्नीसवीं सदी में चला संघर्ष बीसवीं सदी के आरंभिक दशकों में साकार होने की संभावनाओं को जगाता रहा। इस जागरण की धमक बहुत दूर और देर तक बीसवीं सदी में गूँजती रही। पूरी दुनिया में मानव के शोषण से मानव की मुक्ति का स्वप्न, मानवीय गरिमा के अर्जन का स्वप्न, व्यक्ति-स्वातंत्र्य का स्वप्न, औपनिवेशिकता की गिरफ्त से राष्ट्रों की मुक्ति और राष्ट्रीय जनतंत्र की स्थापना का स्वप्न --- लगभग पूरी सदी जैसे सपनों के साकार होने की संभावनाओं सदी बनकर उभरी। भारत भी अपने नये स्वरूप के लिए इस सदी में भरपूर संघर्ष कर रहा था। चुनौतियाँ कई थी --- बाहरी उपनिवेश की गिरफ्त से मुक्ति की भी और भीतरी उपनिवेश से भी मुक्ति की। भारत में भी मुक्ति के लिए राष्ट्रीय मुक्ति के लिए, सामाजिक मुक्ति के लिए जोरदार आंदोलन हुए --- कुछ हाथ भी आया, लेकिन बहुत कुछ छूट ही गया।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें