बहुत दुखी और पराजित महसूस कर रहा हूँ

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इस देश की ही बात कहता हूँ। दुनिया की बात, क्या कहूँ! मेरा यह मत बनता जा रहा है कि इस देश से सांप्रदायिकता को निर्मूल करना असंभव है। अभी, दो दिन पहले एक प्रखर बौद्धिक, संवेदनशील मनुष्य और समतामूलक समाज के स्वप्नदर्शी अपने अग्रज मित्र से बात हो रही थी। बातचीत के प्रवाह में उन्होंने एक बात कही, वह बात संकेतपूर्ण है। मित्र का नाम बड़ा है, लेकिन यहाँ बताना उचित नहीं है। नाम बताने की पहली बाधा यह है कि यह नितांत व्यक्तिगत बातचीत फोन पर हो रही थी और दूसरा यह डर है कि नाम बताने से इस बात की संवेदना व्यक्ति के आस पास सिमटकर रह जायेगी। उन्होंने कहा, ‘और चाहे जो हो, ब्राह्मणों पर कोई यकीन नहीं किया जा सकता’। यह एक ऐसी बात है, जो पूरी तरह से सांप्रदायिक मनोभाव के हमारे सर्वाधिक विवेक-संपन्न मन भी में चिर-स्थाई रूप से समाये रहने की पुष्टि करती है। उनके जैसे विवेक-संपन्न और प्रबुद्ध मित्र के भी मन में इस तरह के मनोभाव के टिके रहने की मुझे उम्मीद नहीं थी। फिर क्या फर्क रहता है जब कोई गैर-मुस्लिम कहे, ‘और चाहे जो हो, मुस्लमानों पर कोई यकीन नहीं किया जा सकता’ या कोई गैर-हिंदु कहे, ‘और चाहे जो हो, हिंदुओं पर कोई यकीन नहीं किया जा सकता’ या कोई गैर-बिहारी कहे, ‘और चाहे जो हो, बिहारियों पर कोई यकीन नहीं किया जा सकता’ या कोई गैर-दलित कहे, ‘और चाहे जो हो, दलितों पर कोई यकीन नहीं किया जा सकता’ आदि, इसी तरह से लिंग-क्षेत्र आदि के संदर्भ भी समझे जा सकते हैं। इसे जितना बढ़ाया जाये स्थिति उतनी ही भयावह प्रतीत होगी। यहाँ, कहने का मकसद सिर्फ यह है कि हमारे सामने बहुत बड़ी चुनौती है। एक गहरे अर्थ में खुद को फिर से पहचानने की जरूरत है। इस पर बहस करना यहाँ मेरा मकसद नहीं, यहाँ तो सिर्फ मन का मरोड़ आपके सामने रखने का मकसद है दोस्तो! कहीं ऐसा तो नहीं कि जन्मना ब्राह्मण जाति के होने के कारण मुझे यह बात कुछ अधिक बड़ी लग रही हो? ऐसा हो सकता है, यह असंभव नहीं है। क्या सचमुच, इस देश से सांप्रदायिकता को निर्मूल करना असंभव है?

क्या करे कोई

इस गूंगी मुस्कान का क्या करे कोई
और कटी जुबान का क्या करे कोई

लटपटाते बयान का क्या करे कोई
मचलते हिंदुस्तान का क्या करे कोई

ढहते हुए मकान का क्या करे कोई
जी गुर्राते संविधान का क्या करे कोई

दिल-ए-नाबदान का क्या करे कोई
प्रफुल्ल कोलख्यान का क्या करे कोई