पेन-ड्राइव में पृथ्वी: अजित आजाद: लोकार्पण क अवसर पर दूबि-धान

अजित आजाद पेन ड्राइव मे पृथ्वी :
लोकार्पणक अवसर पर दुबि-धान
-प्रफुल्ल कोलख्यान
कवि आ कविताकेँ भिन्न-भिन्न बुझबाक चाही। कविक आकांक्षा आ कविताक आकांक्षा नहि खाली भिन्न होइत छै, परस्पर संघाती सेहो होइत छैक। एहि समयमे कवि आ कविताक आकांक्षा भयावह संघातमे अछि। अजुकाक कार्यक्रममे एहि भयावह संघात पर गप केनाइ कार्यक्रम क आकांक्षाक संघातमे शामिल भेनाइ स कम नहि, ताञ एहि पर फेर कखनो। तखन कविताक आकांक्षाक किछुओ संकेत नहि केनाइ कविता पर चर्चाक एहि अवसरकेँ होहकार दिश ल जा सकैत अछि। आब, संकेत त संकेते होइत छै। खैर।
कविता क बहुत रास आकांक्षा होइत छै। ई आकांक्षा सब समय एक रंग-रूप मे नै रहैत छै। जेना जीवन बदलैत रहै छै तहिना ई आकांक्षा सेहो अपन रंग-रूप बदलैत रहै छै, जे सौभाविक। त की कविता क कोनो सार्वकालिक आकांक्षा नै होइत छैक! होइत छै। एक टा मूल आकांक्षा होइत छै। एहि मूल आकांक्षा क परिप्रेक्ष्य मे कविता क अन्य आकांक्षा अपन रुपाकार लैत रहैत छै। ई मूल आकांक्षा की होइत छै! की सब कवि क कविता मे ई मूल आकांक्षा एकहि रंग-रूप मे अनिवार्यतः होइत छै! नै। सब कवि स्वतंत्रतापूर्वक एहि मूल आकांक्षा के अपना तरहे थिर करैत छैथ, दुर्निवार स्थितिमे बदैलतो रहैत छैथ। जाबे तक कविता लिखनहार क भेट व परिचय अपन कविता क मूल आकांक्षा स नै होइत छैन,ताबे धरि ओ कवित त लिखैत रहैत छैथ मुदा ओ कवि क तरजा आ हौसला के नै गहिया पबैत छैथ, खाहे ततखनात कतेको नीक आ भावविमुगद्ध कविता लिखबा मे सफल किएक ने भ जाइथ। वचन प्रवीण भेनाइ आ कवि भेनाइ भिन्न-भिन्न गप छै। से ज नहि होइतै त तुलसीदास किएक लिखितैथ जे,
‘राम भगति भूषित जियँ जानी। सुनिहहिं सुजन सराहि सुबानी॥
कबि न होउँ नहिं बचन प्रबीनू। सकल कला सब बिद्या हीनू॥’
किएक लिखितथिन जे हम कवि नहि छी, नहि वचन प्रवीण छी, सब कला आ विद्या स हीन छी! तैयो अहाँकेँ हमर सराहना लोक करैत अछि त बस एहि द्वारे जे हमर उक्ति राम भक्ति स समृद्ध अछि। अर्थात, संक्षेपमे ई जे कविताकेँ स्वीकार आ सराहक लेल कविताक आकांक्षा स जुड़ाव पहिल शर्त्त होइत छैक। कविताक  बहुत रास गुण होइत छैक। तुलसीदासक शब्द मे कही त,
‘आखर अरथ अलंकृति नाना। छंद प्रबंध अनेक बिधाना॥
भाव भेद रस भेद अपारा। कबित दोष गुन बिबिध प्रकारा॥’
नाना प्रकारक अर्थ, अलंकार, अनेक प्रकारक छंद रचना, भाव आ रस आदिस कवितामे तरह-तरहक गुण-दोष होइत छै। एहि दोष शब्द पर ध्यान दिऔ। अकारण नहि जे मैथिली समाज मे छंद क संगे एकटा आर शब्द क वेबहार होइत छै, जेना चाहक संगे ताह! छंदक संगे बेबहार होबवाला ओ शब्द थिक छल! सुच्चा कविकेँ पहिने ई स्वीकर क लेबाक चाही जे औ बाबू हमरा कवित्त विवेक नहि अछि। तुलसीदासक शब्दे कहि’त
‘कबित बिबेक एक नहिं मोरें। सत्य कहउँ लिखि कागद कोरें॥’
सुच्चा कविकेँ अपन कविताक मूल आकांक्षाकेँ सबस पहिने चिन्ब पड़ैत छै। अपन निजी आकांक्षा स कवित क आकांक्षा ज संघाती मुद्रामे उपस्थित होइत ओकरा कविताक आकांक्षा संग ठाढ़ हुअ पड़ैत छै। आ से अपनाकेँ कवि नहि मानल जेबाक जोखिमक शर्त्त पर ठाढ़ होब पड़ैत छै।
अजित आजाद एहि  शर्त्तकेँ अपना ढंगस बुझैत छैथ। ओ बुझैत छैथ जे ‘गप बनायब, गप्पी होएब थिक, कवि होएब नहि।’ एकर कारण की! एकर कारण ई जे कवि क एक कविता हुनकर दोसर कविता क प्रसंगे अधिक आधिकारिक तौर पर अपन अस्तित्व क अर्थ पबैत अछि। से अर्थ पबैत छैथ कविताक मूल आकांक्षाक सातत्य मे। ई मूल आकांक्षा मालाक सूत जकाँ कवि क कविता के काव्य शृँखला मे जनमैत रह देबाक अवसर दैत छै।
आधुनिक, उत्तरआधुनिक वा पराधुनिककालमे कविता क मूल आकांक्षा प्रथमतः आ अंततः ओकर विचारधारा मे प्रगट होइत छै। कविताक संभवाना त भावधारामे सन्निहित रहैत छै, मुदा कविता क ई संभवाना अपन सार्थकता क संतोख त विचारधारा स जोग-लगन में पबैत अछि। संकेत मात्र स काज चलि जाएत जे दुनिया विचार संदर्भे जाहि पिच्छर जमीन पर पहुँचाओल गेल अछि ओहि मे मुख्य विवादक कारण विचार नै धारा छै। बहुतोक लेखे विचार आ विचारधारा मे कोनो अंतर नै। एहि बात पर ध्यान रखनाइ जरूरी जे सदखनि त नै, मुदा अधिकाँशतः भाव अपना केँ विचार क पोशाक मे उपस्थित करैत अछि। धारा ओहि पोशाक केँ छिन्न-भिन्न क भावक अनित्यता वा क्षणभंगुरताक पोल खोलि दैत अछि। ताञ, विचार स ततेक परहेज नै, विचारधारा स परहेज। प्रसंगे कही त आइ काल्हि त कोनो प्रसंग पर विचार पुछनिहार कतेको भेट जेताह, मुदा विचारधारा पुछनिहार शायदे संयोगे।
त! की होइत छै विचारधारा? संसार मे विचारधारा बहुतो रास छैक, असल मे ओकरा उपविचारधारा कहनाइ अधिक उचित। दू टा मूल विचार छै। वस्तुवादी आ भाववादी। अर्थात, वस्तु स भाव क जन्म होइत छै अथवा भाव स वस्तु क?  एत एहि पर वेसी विवेचनक गुंजाइस नहि। तथकन ई कहब जे रोटी आ राम एक दोसरक विकल्प नहि भ सकैत अछि। निवेदन ई जे रोटियोकेँ कने वृहत्तर अर्थ मे लेल जाए आ रामकेँ सेहो वृहत्तर अर्थ मे लेल जाए। कने दृढ़तापूर्वक ई कहब जरूरी जे रामसँ बैर नहि मुदा, अजित आजादक कविता का मूल आकाँक्षा प्रथमतः आ अंततः रोटी छैन। जेना राम एकटा सुंदर भाव तहिना रोटी एकटा जरूरी विचार।
भगवान कहलखिन त कहलखिन! आइ काल्हि त सब शक्ति-स्रोत स जुड़ल लोक सब त सब अबल-निबलकेँ इएह कहै छै ने जे भगवान कहलखिन्ह,
‘सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज।
अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः।।’
सब धर्मक परित्याग करैत हमर शरण में आउ? हम अहाँकेँ सब पाप स मुक्त क देब। चिंता जुनि करी। शक्ति-स्रोत स जुड़ल लोक सब अपनाकेँ भगवान स कम की बुझैत छैथ! मनुखक क शरण मे मनुखकेँ जेबाक बाध्यता स बचेबाक संघर्षोकेँ सभ्यताक मूल संघर्ष के रूपमे चिन्हबाक चाही। चिन्हबाक चाही एहि संघर्ष केँ। सभ्यताक प्रांगण मे अनवरत चलि रहल एहि रण केँ। एहि रणकेँ ज नहि चिन्हि सकै त चारण होइ मे कतेक देरी! विकल्प कोनो नहि, रण  चारण!  अजित आजाद एहि संघर्षकेँ नीक जकाँ बुझैत, भने रेखांकित करैत छैथ, ‘वर्त्तमान मे कविताक नाम पर दू टा प्रवृत्ति मुख्य रहि गेल अछि – रण अथवा चारण। हम अपनाकेँ पहिल कोटि मे रखैत छी।’ ओ अपन पक्ष आ प्रवृत्तिकेँ बिछ लैत छैथ, बिछि छैथ अपन विकल्प। हुनकर कविताक मर्म के बुझबा लेल एहि विकल्पक महत्त्व आ एहि स्वीकारक मर्मकेँ बुझ पड़त! ओ अपन कवितामे एहि विकल्पक चयनक संदर्भमे विचार’क महत्त्वकेँ बुझैत छैथ आ समयक आँचर मे लागल अहगराहीक आँच काटिक कविताक मनोरम जगत दिश नहि बढ़ चाहैत छैथ। ताञ ओ कहि सकैत छैथ जे, ‘कवितामे ‘विचार’ एकटा विचारणीय (जरूरी) पक्ष थिक। किछु गोटे विचारकेँ कविता पर ‘भार’ (अनावश्यक लदनी) जकाँ बुझैत छथि आ एहिसँ अपनाकेँ कतियौने रहैत छथि।’
कतेक चाही? हम पूछै छी अपना के, अहाँ पूछू अपना के। अजित आजाद पुछलैन अपना के! ‘बेसी किछु नहि’ कविताकेँ देखल जाए-- ‘नहि, एतेक प्रशंसा नहि/ नहि, एतेक निंदो नहि/ / नहि, एतेक भूख नहि/ नहि, एतेक तृप्तियो नहि/ / एतेक आकुलता, एतेक निश्चिन्ति सेहो नहि किन्नहुँ/ / नहि, किछु नहि एतेक/ जतबे जीवन, ततबे किछु/ जीवनक अनुपातसँ बेसी किछु नहि/ अपन दुनू हाथसँ बेसी किछु नहि।’ ताइं, ‘अपेक्षा’ ‘साँस भरि/ श्रम// श्रम भरि/ आराम// आराम भरि/ निन्न// निन्न भरि/ अन्हार// इजोत भरि/ जीवन// जीवन भरि/ सुख// दुख ओतबे भरि/ जतबे भरि मोन रहय ई सभ।’
विडंबना ई जे आजादी क संग गठित नव भारत-राष्ट्र मे हमर सभक भाषा चिर स्थगन मे समा गेल। भाषा किछु शब्द आ वाक्य-विन्यास नहि होइत छै। भाषा सभ्यताक एकटा अध्याय होइत छै। जे भाषा संस्कृत सनक समृद्ध आ शक्तिशाली भाषा स भिन्न भ ओकर चुनौतीक मुकाबिला करैत जीबैत आ स्वयं-समृद्ध होइत चलि आयल ओ झाजाद भारत-राष्ट्र मे स्थगन आ कुपोषणक शिकार भ गेल! ओकरा जीवन व्यवहार स बाहिर क देबाक सबटा ब्यौंत भ गेल! जीवन व्यवहार स भाषाकेँ बाहिर केनाइक मतलब एकटा जीबैत समाज आ सामाजिकता केँ बहिष्कृत क देनाइ स कम की? ‘पितरकेँ अर्घ्य नहि/ भाषा चाहियनि/’ पितर के? पितर जिनका लेल बँसवारि एकटा कामना छलैन विचार छलैन वंश-वृद्धिक! गवाही अजित आजादक कविता, ‘कोहबरमे कोपड़ायल बाँसक/ चित्र बनबैत काल/ विधकरीक मोनमे अवश्ये हेतनि आयल/ वंश-वृद्धिक मंगल-विचार/ एकटा कामना थिक बँसबारि/ से बुझबामे भांगठ नहि अछि आइ’। पितर के? पितर जे आजाद भारत-राष्ट्र क स्वप्न देखलैन, जे ओहि सपना लेल रण केलैन! ज पितर केँ ठीक स चिन्हियैन त सते वाकहरणक शिकार भेल पितरकेँ अर्घ्य नहि, भाषा चाहियनि। मिथिलांचल दू राष्ट्रमे बँटि गेल! ओहू स बेसी दुखद आ कष्टकर ई जे मैथीली जातीयताक बोध नहि विकसित भ सकल ओहि फर फेर कहियो।
कवि अपन समय आ समाजक सौंदर्यबोध आ आनंद संदर्भकेँ बुझैत बदलैत रहैथ छथि। कवि स्वानुभूतिकेँ अनकर तदानुभूति मे बदलैत ‘आनंद’ आ ‘मजा’ क छूटल वा ओझल क्षितिजक ईशारा करैत रहैत छै। बोध करबैत रहैत छै जे, बहुत कुछ पाबि गेलाक बादो एहि जीवनमे कते किछु स्पृहणीय छूटल रहि जाइत छै! सबूत!  ‘यात्रा’ कविता! ‘दलिसगा संग/ उसना भदइक भात आ अल्लुक सन्ना/ खयने छी की अहाँ/ खेतक आड़िपर बैसिक’/ मरुआ रोटीक संग नून-तेल-मिरचाइ/ आ कि कोनो मेला मे गमछा पसारिक’ मुरही-लाइ/ खयने छी अहाँ/ / हम खयने छी’।
की हम सब सते पनिमरू भ गेल छी! नहि कोना! नहि ई त ई बाल किएक जे, ‘बिसलरी पिबैत जल-मन्त्री/ बोतलक पेनीमे छोड़ अइँठ पानि/ आस्वासनक मुद्रामे उछालि दैत छथि/ बोतलक ठेपी खोलैत जनता/ तृप्त-तृप्त होइत/ बिदा भ’ इत अछि धरिया बन्हैत’। एक समय उनिभू (उदारीकरण-निजीकरण-भूमंडलीकरण) क शुरुआती दौरमे ट्रिकिल डाउन क आर्थिकीक बड्ड चर्च-बर्च रहै। ट्रिकिल डाउन क आर्थिकीक आइ कोनो तेहेन चर्च-बर्च त नहि, मुदा हाल त उएह!
तखनि, ई कखनो संभव नहि जे कोनो कविक सब कविता समान रूपेँ महत्त्वपूर्ण आ स्वीकार्य हो। प्रकृत कवि आ उपकृत कविक फर्क पर फेर खनो, अखैनत ई कह चाहै छी, जेना प्रकृति मे उपलब्ध बहुत रास उपादान हमरा पहुँच आ अवगैत स बाहर रहि जाइत अछि. तहिना प्रकृत कविक बहुत रास कविताकेँ बुझाबाक चाही। ‘शारदा सिन्हा’ बहुत महत्त्वपूर्ण आ प्रभविष्णु कविता बनैत-बनैत अंत मे कविक अपन भावातिरेक मे अपरतिभ समाहारक शिकार भ जाइत छैक। कविता मे कवि हुसि कत जाइत अछि एहि दृष्टि-बोधक लेल एहि कविताकेँ बेर-बेर पढ़बाक चाही।
कहब, अनावश्यक जे हमरा साहित्य आ कविताक प्रगाढ़ बोध नहि। मैथिलीमे त एकदमे नहि। एक टा पाठकक रूपेँ जे बुझमे आएल से कहलौँ। एकरा बस लोकार्पणक अवसर पर बस दुबि-धान बूझि। कहबाक मौका दौलौं, आभार।

मेरी खामोशी और असूयापन


मेरी खामोशी और मेरा असूयापन!
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यकीन मानें मेरा
जब आप मेरा मर्सिया पढ़ रहे होंगे
मैं कुछ नहीं बोलूंगा

यकीन मानें मेरा
जब आप मेरा मर्सिया पढ़ रहे होंगे
मैं कुछ नहीं सुन रहा होउंगा

आप जानते हैं और
कवि ने भी पहले ही कहा है
मुर्दा कुछ नहीं बोलता
मुर्दा कुछ नहीं सुनता है
कुछ नहीं बोलना
कुछ नहीं सुनना
मरे हुए की खास पहचान है

यकीन मानें मेरा
मैं कुछ नहीं बोलूंगा उस वक्त
मैं कुछ नहीं सुनूंगा उस वक्त

यकीन मानें मेरा
वैसे इस वक्त भी मैं
कहाँ कुछ बोलता हूँ !
वैसे इस वक्त भी मैं
कहाँ कुछ सुनता हूँ!

मैं बिना कुछ बोले
बिना कुछ सुने
जीने की जुगत में लगा रहता हूँ!

मेरा मर्सिया पढ़ रहे हों तो
ईश्वर से मेरी माफी की प्रार्थना करें
मेरा ईश्वर क्रोध में है
ईश्वर जिसने मुझ को कान दिया
ईश्वर जिसने मुझ को जुबान दिया

मेरे जीने की इस जुगत पर
मेरा ईश्वर क्रोध में है
फिर भी आप
जब आप मेरा मर्सिया पढ़ रहे हों
मेरी माफी के लिए प्रार्थना करना

सच कहता हूँ, डर लगता है

सच कहता हूँ, डर लगता है
जी! सच कहते हुए डर लगता है।

डर लगता है
उनको फूल देते हुए जो खडगहस्त हैं
डर लगता है
रंगों की बात चलने पर
एलर्जी का डर लगता है

डर लगता है
मचलते हुए देखकर
घर के चिराग से
घर को आग लग जाने का
डर लगता है

डर लगता है
उत्सव में उत्तेजना से
डर लगता है।

सच कहता हूँ, डर लगता है
जी! सच कहते हुए डर लगता है ।

ओ इक्कीसवीं सदी! सुन रही हो!

ओ इक्कीसवीं सदी!
सुन रही हो!
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यह काम्य तो नहीं था
मगर तीनों सीख बापू के।।
इस तरह जीना तो नहीं !
मगर रास्ता ही क्या
बचा रह गया है
ओ अन-अभिव्यक्ति की सदी
इक्कीसवीं सदी!
अश्रव्यता की सदी
इक्कीसवीं सदी!
अदृश्यता की सदी!
इक्कीसवीं सदी!

लेखन और आलोचन

आलोचक का दायित्व है कि अपनी पहल पर साहित्य को पढ़ने की कोशिश करे और नये पुराने के बीच तारतम्य की तलाश करे। लिखना एक कला है और पढ़ना भी। लेख लिखने के बाद उस रचना विशेष के लेखन के कला दायित्व से मुक्त हो जाता है और पाठक उस रचना विशेष से आनंद (कभी-कभी मजा) से तृप्त हो जाता है। हर तृप्ति अपने असर में अतृप्ति की गुंजाइश और ललक छोड़ जाती है। आलोचना इस अतृप्ति को साथ लेकर तृप्ति की नई संभावनाओं की तलाश में सृजन के ज्ञात परिप्रेक्ष्य के समकक्ष रचना को समुपस्थित करता है। बातें और भी हैं, संक्षेप में यह कि रचना की आलोचना कार्य तो है भी किसी तरह, लेकिन अनुकंपा तो कभी नहीं, कभी नहीं। संदर्भ महत्वपूर्ण है, विस्तार से लिख सकूँ तो धन्य कोई और लिखे तो कृतकत्य!

इसको भी सलाम! उसको भी सलाम!

क्या महान दृश्य है!
क्या महान दृश्य ॥
जाल में हिलोर मारती मछलियाँ
रसोइये की सलाहकार!
क्या महान दृश्य है!
इसको भी सलाम!
उसको भी सलाम!

जाने अब क्या देखता हूँ!

इनको भी देखा
उनको भी देखा
यह मुल्क अब करे तो क्या करे
तेरी रहनुमाइयों का यह कमाल कि
अब मसीहाई का कोई इंतजार नहीं
शहर सुंदर बनेगा बेदाना बनाकर
और गाँव रहेगा शहर से बेगाना होकर
ये हौसला तेरा और तेरा इकबाल
पिटकर मरेगा सिपाही
घर रह जायेगा कैदखाना होकर
इनको भी देखा
उनको भी देखा
यह मुल्क अब करे तो क्या करे

हिंदुस्तान भी बना लिया
पाकिस्तान भी बना लिया
तेरा रसूख कि मुल्क रह गया
सियासत का निशाना बनकर।

वे दिन जो अब यादों में बचे रहे

वे कुछ दिन थे
अच्छे या जैसे भी थे
थे मगर इस लायक कि बचे रह गये
बचे रह गये यादों में
जब कभी आघात लगता है
मन उन्हीं यादों के दरमियान होता है
चलती है हवा जैसा कि स्वभाव है
हरा भरा कर देती है
कहा था बहुत व्याकुल होकर
कान्हा ने राधा से
हालांकि सामने थी रुक्मिणी
ऐसा दादी ने कहा था
कहा था कान्हा ने
सर्ब सुवर्ण की बनि द्वारिका, गोकुल कि छवि नाहीं
ऐसी बात
सिर्फ राधा से ही कही जा सकती है
भले ही माध्यम रुक्मिणी हो
जब कहती है रुक्मिणी कि
जब इतना प्यारा था गोकुल
तो फिर डगरे क्यों कन्हैया!
कहे भले रुक्मिणी
मगर असल में उलाहना देती है राधा
उलाहना राधा का हक है
रुक्मिणी माध्यम
अब दादी रही नहीं
इस तरह
कहने सुनने का रिवाज भी नहीं रहा
वे कुछ थे जो यादों के दरमियान हैं!

इस ना-उम्मीद समय में प्रार्थना

भीड़ चाहे जितनी भी बड़ी हो
भीड़ का कोई कंधा नहीं होता
भीड़ के पास मार होती है
भीड़ के पास सम्हार नहीं होता है
राजा के पास 

बेकाबू भीड़ न फटके 

पूरा इंतजाम होता

राजा अपने बचाव में 

प्रजा को भीड़ में बदल देता है
भीड़ में बदलने और भीड़ से बचने 

को सियासत कहते हैं
हो सके तो भीड़ में बदले जाने से 

खुद को बचाना
भीड़ में बदले जाने से खुद को बचाना
तुम जो नागरिक हो 

आखिरी उम्मीद हो
उम्मीद हो मेरी जान

इस ना-उम्मीद समय में प्रार्थना! 
सियासत और भी है, बगावत और भी है! 

कभी-कभी ऐसा भी होता है! सुनो शोना... !

कभी-कभी ऐसा भी होता है!
सुनो शोना!
कल वल्लभ जी आये! बात-चीत होती रही। साहित्य, हिंदी साहित्य, से जुड़ी बात-चीत! जाते समय अपनी कविताओं की निहायत पतली-सी पुस्तिका दे गये --'सुनो शोना...!'
उलटने-पुलटने के लिहाज से उठाया तो बस इश्क के आकाश के एक अजाने-से क्षितिज के पार बढ़ता ही चला गया! इश्क की खोई हुई-सी जमीन जैसे बिछती चली गई! बाकी बातें विस्तार से तो फिर कभी, अभी तो इतना ही कि निस्संदेह ये कविताएँ हिंदी कविता के रकवा में एक नया एहसास है, कम-से-कम हिंदी कविता के मेरे अपने पाठानुभव के हासिल में तो जरूर। वल्लभ को धन्यवाद क्या कहूँ जिसने इश्क की टीस को एक लंबी पुकार से जगा दिया, पुनरुज्जीवित कर दिया। अलवत्ता, हरे प्रकाश उपाध्याय (संपादक, मंतव्य, लखनऊ) और गणेश गनी (साहित्यिक संपादक, हिमतररू, हिमाचल प्रदेश) के प्रति आभार प्रकट करना निहायत जरूरी है कि उन्होंने इस पतली-सी पुस्तिका का फ्लैप लिखकर इन कविताओं को पढ़ने की प्राथमिक प्रेरणा दी।
कभी-कभी ऐसा भी होता है शोना! 'सुनो शोना...!'
सुनो शोना!
चंद लम्हे उधार लेकर हयात से
कुछ हर्फ़ बोये थे तसव्वुर के..
अब, जब नज़्म खिलती है
तो तोड़ लेता हूँ
तुम्हारे सिरहाने छींटने के लिए।

नदी मिट्टी हो गई!

नदी मिट्टी हो गई!
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पुरखों ने उसी के सहारे जिंदगी काटी
कभी दिशा पकड़कर तो
कभी-कभी विपरीत जाने की कोशिश में भी
हो जो भी मगर सच है कि
पुरखों ने उसी के सहारे जिंदगी काटी
ऐसा पिता ने कहा था
नदी जो बाहर पानी की तरह बह रही है
जिस्म के भीतर वही खून बनकर बहा करती है

नदी पानी की तरह बहती रही
पानी की तरह बहना
एक खतरनाक मुहावरा बन गया
इस सभ्यता में
इतना खतरनाक कि
पानी का पानी की तरह बहना मंजूर नहीं रहा

इन दिनों जब सभ्यता शहरों में रहने लगी
एक दिन खबर आई
खबर में इस सभ्यता की जान है
खबर आई कि नदी मिट्टी हो गई
अचानक नहीं हुआ
मगर होते-होते यह हो गया कि
नदी मिट्टी हो गई

कुछ लोगों ने कहना शुरू किया कि
नदी मिट्टी हो गई यह सच नहीं है
सच है कि नदी हो गई मिट्टी
बहस चलती रही माध्यमों के सहारे
बहस में इस बात पर मिट्टी पड़ी रही कि
नदी जो पानी बनकर बहा करती है बाहर
वही खून बनकर बहा करती है जिस्म के अंदर
तो फिर उस खून का क्या हुआ
जो भी हो नदी मिट्टी हो गई!

उन्नीस का पहाड़ा!

उन्नीस का पहाड़ा!
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वह कवि था।
उन्नीस का पहाड़ा पढ़ता था।
उन्नीस का पहाड़ा मायने
उन्नीस सौ सैंतालीस का पहाड़ा।
अब फिर कवि
उन्नीस का पहाड़ा पढ़ रहा है
उन्नीस का पहाड़ा।
उन्नीस का पहाड़ा मायने
अब दो हजार उन्नीस का पहाड़ा!
इस बीच कितना लोकतान्त्रिक पानी बह गया।
पानी बह गया
और बदल गया उन्नीस का पहाड़ा!

स्वागत है 2018 हम अकेले हैं!



स्वागत है 2018 हम अकेले हैं!
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आना-जाना तो लगा रहता है। यह साल 2017 अतीत और इतिहास में समा जाने के कगार पर है। नया साल 2018 हमारी जिंदगी में बस शामिल होने ही वाला है। जिंदगी वक्त का हम सफर है। वक्त के साथ बहुत सारे हमसफर मिलते और बिछड़ते चलते हैं। जिंदगी चलती रहती है। जिंदगी के सफर में हम ढेर सारी चीजों, प्रसंगों, व्यक्तियों, संदर्भों आदि को हम साथ लिये चलते हैं। जिन्हें साथ लिए चलते हैं उनका साल भर फूल, माला, आयोजन, प्रयोजन, प्रवचन आदि सम्मान करते हैं। मैं कुछ गलत कह गया। इसे इस तरह से कहना मुनासिब होगा कि जिनका हम साल भर फूल, माला, आयोजन, प्रयोजन, प्रवचन आदि सम्मान करते हैं, लगता है कि हम उन्हें साथ लिये चल रहे हैं। ओह शायद फिर गलत कह गया। सच तो यह है कि साल भर हम जिन्हें फूल, माला, आयोजन, प्रयोजन, प्रवचन आदि सम्मान करते हैं, उन्हें बस वहीं छोड़ देते हैं कि कोई उन्हें साथ ले जाना चाहो तो ले जाये या जो हो मैं तो चला। शायद मैं कह नहीं पा रहा और आप तय नहीं कर पा रहे हैं कि मेरी बात से इत्तिफाक रखें या फिर न रखें! उदाहरण के लिये, अगर हम गाँधी या भगत सिंह, दोनों को दो ध्रुव जैसा माना जाता है, इसलिए या कहा, नहीं कहना चाहिए। गाँधी और भगत सिंह कहना चाहिए। अपने आप से ही हमें पूछना चाहिए कि यदि गाँधी और भगत सिंह को अपने सफर में हम साथ रखते हैं तो किसी व्यक्ति या समुदाय को अत्याचारित या अपमानित होते हुए देखकर हमें यह क्यों याद नहीं आता है कि यह भी उन्हीं लोगों में से एक है जिनके मान-सम्मान और हितों की हिफाजत के लिए गाँधी और भगत सिंह ने अपनी जान तक की परवाह नहीं की। जिन गाँधी और भगत सिंह को हम अपने साथ लिए चल रहे हैं, क्या उन्हें हमने अभिव्यक्ति की आजादी नहीं दे रखी है! वे हमें कभी टोकते हैं या हम उन से, कभी-कभी ही सही, बातचीत भी करते हैं! नहीं करते हैं। आजकल तो तस्वीरें भी बोलती हैं! शायद हम उन्हें अपने साथ नहीं रखते।
क्षमा करें विद्यापति ठाकुर, सहज सुमति पाने की आपकी ललक हमारे दिल कभी पैदा ही नहीं हो पाई! क्षमा करें कबीर, हरि को भजनेवाले जातपात पूछने में किसी से पीछे नहीं रहे, हरि को भजनेवाले हरि के नहीं रहे। क्षमा करें तुलसीदास, अब छोटन नहीं करते अपराध, बड़न करते हैं दिन रात। क्षमा करें प्रेमचंद, हमें धनिया का दुख नहीं दिखता, न अमीना का दुख दिखता है न खाला का। क्षमा करें गालिब, किसी के वायदे पर यकीन नहीं था, इतनी खुशी नहीं मिली कि खुशी से मर जाता, इसलिए, हाँ इसलिए जिंदा हूँ। क्षमा करें कविगुरु रवि ठाकुर, चित्त भय शून्य और माथा ऊँचा नहीं है। क्षमा करें भिखारी ठाकुर, हम बेटबेचबा समाज में खुश हैं। क्षमा करें निराला, है जिधर अन्याय है उधर शक्ति और हमें शक्ति से कोई गुरेज नहीं। क्षमा करें जयशंकर प्रसाद, अब अपने में ही सब कुछ भर, व्यक्ति विकास करेगा। क्षमा करें बाबा नागार्जुन, हम न तो बादल को घिरते देखते हैं और न कोई धुआँ खोजते हैं। क्षमा करें दिनकर, जनता सिंहासन को खाली करने की बात नहीं सोचती, अपनी थाली के खाली होते चले जाने को रोती है। यह साल 2017 भी नया बनकर ही आया था, अब पुराना बनकर जा रहा है। नया साल 2018 आ रहा है। स्वागत है 2018 हम अकेले हैं। क्षमा करें अज्ञेय, यह सच है कि भोर का बावरा अहेरी, पहले बिछाता है आलोक की, लाल-लाल कनियाँ, पर जब खींचता है जाल को, बाँध लेता है सभी को साथः

भोर का बावरा अहेरी
पहले बिछाता है आलोक की
लाल-लाल कनियाँ
पर जब खींचता है जाल को
बाँध लेता है सभी को साथः
छोटी-छोटी चिड़ियाँ
मँझोले परेवे
बड़े-बड़े पंखी
डैनों वाले डील वाले
डौल के बैडौल
उड़ने जहाज़
कलस-तिसूल वाले मंदिर-शिखर से ले
तारघर की नाटी मोटी चिपटी गोल घुस्सों वाली
उपयोग-सुंदरी
बेपनाह कायों कोः
गोधूली की धूल को, मोटरों के धुँए को भी
पार्क के किनारे पुष्पिताग्र कर्णिकार की आलोक-खची तन्वि
रूप-रेखा को
और दूर कचरा जलाने वाली कल की उद्दण्ड चिमनियों को, जो
धुआँ यों उगलती हैं मानो उसी मात्र से अहेरी को
हरा देगी !

बावरे अहेरी रे
कुछ भी अवध्य नहीं तुझे, सब आखेट हैः
एक बस मेरे मन-विवर में दुबकी कलौंस को
दुबकी ही छोड़ कर क्या तू चला जाएगा?
ले, मैं खोल देता हूँ कपाट सारे
मेरे इस खँढर की शिरा-शिरा छेद के
आलोक की अनी से अपनी,
गढ़ सारा ढाह कर ढूह भर कर देः
विफल दिनों की तू कलौंस पर माँज जा
मेरी आँखे आँज जा
कि तुझे देखूँ
देखूँ और मन में कृतज्ञता उमड़ आये
पहनूँ सिरोपे-से ये कनक-तार तेरे
बावरे अहेरी

छंद! छंद क्या ? छंद क्यों?

छंद! छंद क्या ? छंद क्यों?
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छंद को लेकर बहुत सारे भ्रम हैं। छंद क्या है और क्यों जरूरी है! इस पर सोचने की जरूरत है, हर किसी को। हर किसी को माने सिर्फ उसके लिए जरूरी नहीं जो कविता रचने के काम से जुड़ा हुआ है या जो कविता लिखता है। तो पहले समझते हैं कि छंद है क्या।

छंद के साथ एक और शब्द का प्रयोग होता है, छल का। छल-छंद! छंद का मूल अर्थ होता है, बंधन। दूहने के समय गाय लथार न मारने लगे, यानी पैर से चोट न पहुँचा दे इसलिए दूहने के पहले गाय की पिछली दोनों टाँगों को बाँध दिया जाता है। इसे छानना कहते हैं। यह छानना छंद से ही विकसित रूप-ध्वनि है। गाय से हम छल करते हैं। छल यह कि गाय को विश्वास दिलाते हैं कि उसका दूध उसका बच्चा पी रहा है। इस छल का एहसास होने पर गाय पैर चला सकती है। इस पैर चला देने के आशंकित आघात से बचने के लिए छानना जरूरी होता है। संक्षेप में, समझा जा सकता है कि छल के लिए छंद क्यों जरूरी है! कविता भी एक तरह से छल रचती है। सकारात्मक छल। अब अगर बिल्क्ल ही द्विपाशिक (BINARY) सोच के नहीं हैं तो नकार में छिपे सकार तथा सकार में छिपे नकार को आसानी से पहचान सकते हैं। तात्पर्य यह कि सारे छल नकारात्मक नहीं होते हैं, सकारात्मक भी होते हैं। तो यह कि कविता वाक के ढाँचागत रूप (STRUCTURAL FORM) के माध्यम से संवेगों के संचलन के साथ भावात्मक संप्रेषण के लिए सकारात्मक छल रचती है।

छंद में कविता का होना जरूरी नहीं है। कविता में छंद का होना जरूरी है। दिखनेवाले बंधन के साथ यानी छंद में बहुत सारी बातें कही जाती हैं, लेकिन वे कविता नहीं होती हैं। न दिखनेवाले बंधन के साथ यानी बिना छंद के बहुत सारी बातें होती हैं, लेकिन उनमें कविता होती है! बिना छंद के! बिना बंधन के! हर बंधन दिखे ही जाये जरूरी तो नहीं। जैसे गाय का रस्सी से बँधी होती है, यह दिखता है। हम जो गाय से बिना रस्सी के बंधे होते हैं, यह नहीं दिखता है।

काव्याभास और कविता में अंतर है। छंद कविता का आभास यानी काव्याभास रचने में सहायक होता है। आपका छंद एक बार काव्य का आभास रचने में सफल हो जाता है तो फिर उसमें कविता के लिए भी जगह बनने लगती है और पाठक को पीड़ाहीन (पीड़ा हीन, पीड़ारहित नहीं) प्रतीक्षा के लिए एक सहार (सहारा नहीं, सहार) मिल जाता है। याद करें, कबीर को तो सहार समझ में आता है—
गुरू कुम्हार शिष कुंभ है, गढि़ गढि़ काढ़ै खोट।
अन्तर हाथ सहार दै, बाहर बाहै चोट।।

कविता में छंद का होना जरूरी है, कविता में दिखे यह जरूरी नहीं है। छंद को संप्रेषण कौशल के औजार (TOOLS OF COMMUNICATION SKILLS)की तरह समझना चाहिए। छंद जीवन और जागतिक व्यवहार में भी जरूरी होता है, हम बहुत कोशिश करते हैं। यह कोशिश कविता में भी हो तो बेहतर! अन्य बातों के अलावा प्रेमचंद के गोदान का छंद भी बहुत उच्च-स्तरीय है। पढ़कर देख लीजिये न!

भाषा के मानकीकरण से भाषा की छंदस् योग्यता और आकांक्षा पर क्या असर पड़ता है और लोक में जहाँ भाषा के मानक दबाव का असर कम होता है, वहाँ कथ्य में छंद की अधिक उपस्थिति और व्याप्ति पर फिर कभी। अभी यो कबीर याद आ गये फिर, वे गुरु हैं--
अति का भला न बोलना, अति की भली न चूप।
अति का भला न बरसना, अति की भली न धूप।।

कोई-न-कोई राय होनी चाहिए

कोई-न-कोई राय होनी चाहिए
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आज की दुनिया में
दूरियाँ बढ़ गई है कि नजदीकियाँ
कहना मुश्किल है
मेरे दोस्तों की इस पर दिलचस्प राय है
आप की भी कोई-न-कोई राय होनी चाहिए, खैर

हम एक दूसरे को जानते हैं!
हम एक दूसरे के दुख को नहीं जानते।

ऐसा क्यों होता है मेरे साथ
कह नहीं सकता
यकीन करता हूँ कि
आप के साथ यह सब नहीं होता होगा
क्या पता होता भी हो,
कुछ कह नहीं सकता

जब भी किसी से मिलता हूँ
मैं नहीं मेरा झूठ
लपककर हाथ मिलाता है,
कभी-कभी गले भी मिल लेता है
सामनेवाले के झूठ से

हमारे सुख आपस में बात करने लगते हैं
इस कदर बात करने लगते हैं कि
वक्त का कोई एहसास ही नहीं रह जाता है

आज तो गजब ही हो गया
मेरे झूठ ने सच को बहुत दुत्कारा
क्या-क्या न कहा, मसलन मुहँचोर

यह सच है कि मेरा दुख भी

मुँह चोर है और सच भी
मैं बहुत परेशान-सा हूँ कि
मेरा झूठ भी मुहँजोर है
मेरा सुख भी मुँहजोर है

आप मेरे दोस्त हैं तो बुरा न मानें
मेरा झूठ और मेरा सुख
इस समय समाचार चैनलों में टहल रहा है
और इस बीच मेरा दुख चुपके से
आप के कान में यह डाल रहा कि
हम एक दूसरे को जानते हैं!
हम एक दूसरे के दुख को नहीं जानते।

मैं लौट रहा हूँ मिथिला

मैं लौट रहा हूँ मिथिला
मिथिला को बताने
बताने कि मगध जिंदा है!
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इन दिनों खास मगध में हूँ
पूछता हूँ मगध से बार-बार
मैं कब नहीं था मगध में!

झकझोरता हूँ खुद को
मगध की बैखरी छायाओं को
झकझोरता हूँ परा को, 
पश्यंती को भी
पूछता हूँ मगध से बार-बार--
मैं कब नहीं था मगध में!

मगध कोई उत्तर नहीं देता
पूछता है सवाल
और मुँह फेर लेता है तत्काल
पूछता है कि उलाहनाओं को छोड़ो
मिथिला, मैथिली का हाल बताओ!

मैं एकदम भीतर से डर जाता हूँ 
डर  जाता हूँँ भारतवासी की तरह
डर  जाता हूँँ  कि मैं वह नहीं हूँ
जिस होने के भ्रम में जीता हूँ!

डर  जाता है मेरा भारतवासी मन कि
मगध सिर्फ छाया नहीं है
है उसमें प्राण बाकी
रिसता है उसके भी अंदर दर्द
जैसे दर्द मिथिला का, 
मैथीली का

मगध के प्राण में दर्द है
दर्द है तो विचार भी होगा!

दर्द और विचार तो वैसे ही होते हैं साथ
जैसे होते हैं साथ आग और धुआँ
मिथिला में हो, चाहे हो नालंदा में धुआँ

मिथिला का प्राण मिथ में बसा है अब तक
मगध जानता है कि कैसे और किस तरह
रौंदे हुए इतिहास में बचा है प्राण अब तक

हिलते हुए मगध ने कहा श्रीकांत!
जो अब तक कोई समझ नहीं पाया
भारतवासी की छाया 
हैसियत से बहुत लंबी हो गई है
उदयाचल! अस्ताचल!
जानती है पैर के नीचे दबाई गई जमीन है!
जानती है पैर के नीचे जमीन दबाई गई है!

तुम विचार की चिंता करते रहे!
विचार क्या करे कोई जब सवाल सामने हो
सवाल तो रोम-रोम में है श्रीकांत।

सवाल भारत जीता रहा
मिथ में, इतिहास में, मिथहास में
तो क्यों कुचला गया मगध या मिथिला!

तख्त हो या सलतनत पलटता जरूर है
सवाल हो या विचार उठता जरूर है श्रीकांत

मगध जिंदा है, और पूछ रहा है
मिथिला, मैथिली का हाल
मैं भारतवासी
मगध की जमीन पर
मगध को क्या जवाब दूँ!
क्या हाल बताऊँ मिथिला का!

मैं लौट रहा हूँ मिथिला
मिथिला को बताने
बताने कि मगध जिंदा है!
मगध जिंदा है अपने सवालों के साथ।

रिश्तों की रवायत

ये दूरियां
ये मजबूरियां
थथमार देती है
रिश्ते की नजाकत को
मार देती हैं!

अपना कौन, पराया क्या!
अपनों से अधिक पराया कोई क्या खाक होगा!

कभी-कभी अच्छा लगता है अपनों का परायापन
एवजी जिसके
परायों का अपनापन
ये कश्मकश ही शायद
रिश्तों की रवायत है!

ये दूरियां
ये मजबूरियां
थथमार देती है
रिश्ते की नजाकत को
मार देती हैं!