भाषा और पेशागत व्यवहार पेशा के परिसर में भाषा लाचार


भाषा और पेशागत व्यवहार
पेशा के परिसर में भाषा लाचार!
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जीवन में भाषा का बड़ा महत्त्व है। हम किस तरह की भाषा में और कैसे लोगों से बात करते हैं। लोगों से हमारा संबंध इस बात पर निर्भर करता है। पेशागत लोगों से जैसे वकील, पुलिस, डाक्टर, अध्यापक या अफसर बाबू से हम किसी प्रयोजन से बात करते हैं तो उनका भाषागत व्यवहार या तेवर कुछ इस तरह का होता है, जैसे सामनेवाला निरा मूरख है। मूरख है, लाचार भी है। मूरख या लाचार होना चरित्र की दुर्बलता का सूचक नहीं हो सकता और न ही इस बिना पर किसी के साथ हीन व्यवहार करने का किसी को कोई हक मिलता है। यह संभव है कि उपस्थित संदर्भ में वह निरा अज्ञानी हो, जैसे बहुत बड़ा अध्यापक, बिजली तार जोड़ने के मामले में अज्ञानी हो या कोई डाक्टर अपने देश के इतिहास की बारीकियों को नहीं जानता हो। यह हम कब समझ पायेंगे कि कोई मूरख, लाचार, निर्धन भले हो वह मनुष्य है। भारत के संदर्भ में कहें तो भारतीय है, उसी तरह से और उतना ही जिस तरह से ज्ञानी गुनी, समर्थ और धनवान होते हैं। एक ही संविधान से शासित हैं हम, एक ही हमारा आधार है एक ही हमारा आकाश है, एक ही क्षितिज है एक ही विरासत है। हो सकता है मैं गलत होऊँ, लेकिन मुझे लगता है कि अपढ़ या अनपढ़ लोग इस देश की उतनी बड़ी समस्या नहीं हैं जितनी बड़ी समस्या पढ़े लिखे लोगों निरक्षराचारण है, समाज के प्रति, उपलब्ध संसाधनों के प्रति। निरक्षरता और मूर्खता में कोई अनिवार्य या जिसे कहते हैं अन्योनाश्रित संबंध नहीं होता है।
बहरहाल, हम साहित्य के संदर्भ में सोचें। आज साहित्य पर भी पेशेदारी का कोई कम दबाव नहीं है। अच्छा है, या नहीं इस पर अलग से बात हो सकती है, लेकिन पेशागत विशेषज्ञता, कई बार दंभ और भ्रम से भरी विशेषज्ञता के भी दबाव में साहित्यकार भी आ गये हैं, इससे इनकार नहीं किया जा सकता है। कई बार अपने पाठकों से, अगर कभी जीवन में उससे मुलाकात हो जाये तो, हमारा पेशागत दुर्दमाीय बरताव पाठक को हम से पिंड छुड़ाने में ही अपना भला होने के निष्कर्ष तक अविलंब पहुँचने की प्रक्रिया में जुटा देता है। अन्य पेशादारों को झेलना उसकी दैनंदिन जरूरतों को पूरा करने की मजबूरी होती है, तो उसे झेल लेता है। साहित्य उसकी किसी दैनंदिन जरूरत से जुड़ा हुआ नहीं होता है। हाँ, कोई साहित्य का कक्षा विद्यार्थी या फिर परीक्षार्थी हो तो बात और है। तो, क्या हमें अपने पाठकों और श्रोताओं पर बौद्धिक अतिक्रमण से बचने की सावधान कोशिश नहीं करनी चाहिए! करनी चाहिए, बहुत सावधानी से यह सतर्क कोशिश करनी चाहिए। एक संदर्भ देता हूँ। तथाकथित, हास्य-व्यंग्य कवि सम्मेलन में जो श्रोता जाते हैं, वे अधिकतर मामले में समाज के समर्थ लोग होते हैं। उन कवियों के अर्थ-भार को उठाने में कुछ हद तक सक्षम भी होते हैं, कई बार उठाते भी हैं। इसलिए उनके प्रति उनका व्यवहार चारण जैसा होता है। इस चारण वृत्ति से उनकी कोई बुनियादी वृत्ति संतुष्ट होती है। प्रसंगवश, भाषा में भाट और चारण इतनी बार साथ-साथ प्रयुक्त होते हैं, तो उस का कोई तो कारण होगा। हम जैसे खुद को गंभीर और प्रगतिशील माननेवाले लोगों के जो श्रोता होते हैं वे भिन्न प्रकार के होते हैं और हम उनकी उस तरह की बुनियादी वृत्ति को संतुष्ट नहीं करते हैं। ऊपर से बौद्धिक अतिक्रमणवाला आपत्तिजनक आचरण, हर बार नहीं भी तो अधिकतर बार, उन्हें हम से दूर कर देता है। हमें अन्य पेशादारों, यदि हम खुद को भी पेशादार मानते हों तो खासकर, अपने पाठक (जिसे हम अचेतन रूप से ही सही हम अपना क्लाइंट मानने लगे हैं, हालाँकि वह इसके निकृष्टतम अर्थ में भी क्लाइंट होता नहीं है) जैसे व्यवहार से बचना चाहिए।
पेशा के परिसर में भाषा के लाचार हो जाने की स्थिति से अपना मन खिन्न है, दूसरे की खिन्नता की थोड़ी परवाह जरूर है! इसलिए, ये सारी बातें मैं अपने जन-व्यवहार के लिए सोच रहा हूँ, किसी अन्य के लिए नहीं। किसी अन्य के या आप के भी काम आ जाये तो क्या कहने!
एक बात और। पढ़-पढ़कर बोलता नहीं हूँ, बोल-बोलकर लिखता नहीं हूँ। हमेशा भवानीप्रसाद की चुनौती की याद रहती है कि जैसा बोलता है, वैसा लिखकर देख, जैसा लिखता है वैसा बोलकर देख। वैसा कर के देख। मुझे मानने में कोई संकोच नहीं कि मैं अक्सर इस कसौटी पर खुद को खोटा साबित होता हुआ पाता हूँ।

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