साहित्य का वर्गीकरण

9/24/2023

11:32 AM

साहित्य का वर्गीकरण

——————

साहित्य और साहित्य के वर्गीकरण का सवाल किसी-न-किसी आधार पर बार-बार उठता है। हिंदी में यह सवाल अधिक तीखा है। क्या दलित, आदिवासी साहित्य शायद यहाँ मुराद दलित, आदिवासी साहित्यकारों के लिखे साहित्य से है के बाहर या इतर जो भी लिखा गया साहित्य है उसे एक मुश्त ब्राह्मणवादी साहित्य मान लिया जाना चाहिए? यदि हाँ, तो इस सूची में ओबीसी को भी क्यों नहीं जोड़ लिया जाना चाहिए? और स्त्री साहित्य?

कुछ दिन पहले, एक विद्वान ने पुरस्कृत लेखों की सूची निकाली थी जाति के आधार पर। उस सूची में प्रेमचंद और नागार्जुन को उनकी जातियों के खाने में रखा गया था। इस पर एतराज की कोई बात है! प्रेमचंद और नागार्जुन जन्म से उन जातियों के थे ही। क्या इसी आधार पर प्रेमचंद और नागार्जुन के साहित्य को भी उन जातियों का साहित्य मान लिया जाना चाहिए! क्या यह ठीक होगा? साहित्य के अलावा भी जीवन में और बड़े काम होते हैं उन पर भी ध्यान देना जरूरी है। परंपरागत भारतीय समाज की कारीगरी का संबंध जाति से रूढ़ रहा है। यह भी सच है कि जाति व्यवस्था में भेदभाव का भयानक विष रहता है, जिसके बुरे प्रभाव से कोई इनकार नहीं कर सकता है। यह भी सच है कि ब्राह्मणवाद से इन इस विष-प्रभाव को कम करने या खत्म करने या मुकाबला करने के लिए विभिन्न जातियों से जुड़े लोग विभिन्न तरीकों स प्रयास करते रहे हैं इन प्रयासों में से एक तरीका है, साहित्य। अन्य जातियों से जुड़े लेखकों के लिखे ऐसे साहित्य को एक मुश्त ब्राह्मणवाद के खाता में डाल देना क्या उचित है! यहाँ ठहर कर सोचने की कोई जरूरत सूची इस तरह का वर्गीकरण करनेवाले को है? शायद उन्हें ऐसा सोचने की कोई जरूरत नहीं महसूस होगी! क्यों? इस क्यों का जवाब क्या हो सकता है?

ठहर कर, शक्ति और संवेदना की संरचना के संदर्भों पर विचार करने की जरूरत है। शक्ति के स्रोत और आधार वस्तुनिष्ठ अधिक होते हैं, इसलिए उन्हें वस्तुनिष्ठ तरीके से चिह्नित किया जा सकता है। शक्ति के विभिन्न स्रोत हैं —— राजनीतिक गतिविधि, राजकीय प्रक्रिया, आर्थिक प्रकिया और वित्तीय समावेशन, शिक्षा एवं कौशल अर्जन के अवसर। शक्ति का नैतिक परिणाम संवेदना में परिलक्षित होता है। संवेदना को स्रोत और आधार आत्मनिष्ठ अधिक होते हैं, इसलिए उन्हें आत्मनिष्ठ तरीके से ही चिह्नित किया जा सकता है।  अधिक संवेदना का सामाजिक, नैतिक संवेदना के विभिन्न स्रोत हैं —— भेदभाव मुक्त सामाजिक वातावरण, मानवमूल्य की अखंडता, व्यक्ति की गरिमा, स्वतंत्रता, लोकतांत्रिक निष्ठा, सामाजिक और वैधानिक व्यवस्थाओं का अनुसरण करते हुए पारस्परिक सहमति या असहमति के प्रति सम्मान और आनंद-बोध का बने रहना। शक्ति और संवेदना का मिलन सामाजिक भूमि पर अवस्थित नैतिक संरचना में संभव होता है।

साहित्य शक्ति से अधिक संवेदना से जुड़ा मामला है। शक्ति में वर्गीकरण और वर्गीकरण में विभाजन स्वभावगत होता है, संवेदना में एकीकरण, और एकीकरण में समरसता स्वभावगत होती है। इस वर्गीकरण और एकीकरण में भी कई पेंच हो सकते हैं, या होते हैं। उन पेंचों सब से बड़ा पेंच है नैतिक मूल्यों को अवहेलित करते हुए शक्ति का संवेदना क्षेत्र में पदक्षेप। यह मान भी लें तो भी हिंदी साहित्य के वर्गीकरण को क्या रोक लेंगे! शायद नहीं। नहीं क्यों?

इसलिए नहीं क्योंकि, यह आत्मनिष्ठ मामला है। इसके साथ ही राजनीतिक परिस्थिति में बने मनोभाव के चलते हित साधन में किसी भी समुदाय के बाहर के किसी भी तत्त्व की स्वीकार्यता बनना मुश्किल है। उदाहरण : दलित हित की बात होनी चाहिए, लेकिन वह तभी स्वीकार्य होगा जब दलित समुदाय को कोई ऐसा करे; दलित समुदाय से बाहर का कोई दलित हित की बात करता है तो, वह स्वीकार्य नहीं होगा, बल्कि दखल माना जायेगा।

राजनीति अधिक शक्तिशाली होती है। राजनीति वर्गीकृत लक्ष्य समूह को संबोधित करती है, वहीं से प्राण रस प्राप्त करती है। राजनीति में वर्गीकृत अर्थात संगठित लक्ष्य समूह को वोट बैंक कहते हैं। शक्ति की गुणवत्ता समर्थन में प्राप्त वोट से तय होती है या हुई मानी जाती है। समर्थन में प्राप्त वोट का महत्त्व जीवन के अन्य क्षेत्रों में भी बढ़ रहा है, साहित्य में भी बढ़ रहा है। क्या साहित्य की उत्कृष्टता समर्थन में प्राप्त वोट तय हो सकती है या मानी जा सकती है? कुछ लोग कहेंगे हाँ, कुछ लोग कहेंगे ना। इस हाँ, ना की स्वीकार्यता भी ‘हाँ’ या ‘ना’ के बीच बहुमत से तय होगी!

है बहुमत से सब तय नहीं होता है, सच है। लेकिन बहुमत से जो तय होता है, अल्पमत उस तयशुदा दायरे से निकल जाये यह मुश्किल ही होता है —— बात मानवीय संकाय की है‘हाँ’ या ‘ना’ कहनेवाले अपनी तरह से सोच सकते हैं चाहें तो, मुझे भी सही कर सकते हैं। न चाहें तो कोई बात नहीं।


  

      

 

   

कोई टिप्पणी नहीं: