समाजवाद प्रेरित अंतर्राष्ट्रवाद और नवजागरण प्रेरित राष्ट्रवाद
इन दिनों पिछले कई दशकों से चल रही भूमंडलीकरण की आँधी इस अर्थ में कुछ हद तक थमती नजर आ रही है कि भूमंडलीकरण के पैरोकार राष्ट्रीय सीमाओं और संप्रभुताओं के महत्त्व की पहचान नये सिरे से करने लगे हैं। अनुभव और अध्ययन से अब इसकी पुष्टि हो चुकी थी कि ‘वर्त्तमान भूमंडलीय अर्थ-व्यवस्था की कार्य प्रणाली के अंदर गहराई में असंतुलनकारी तत्त्व सक्रिय हैं, यह नैतिक रूप से अस्वीकार्य और राजनीतिक रूप से अधार्य है। इन तत्त्वों का संबंध अर्थ-व्यवस्था, समाज और राजनीति के संबंधों में व्याप्त बुनियादी असंतुलन से है। अर्थ-व्यस्था धीरे-धीरे भूमंडलीय होती जा रही है, जबकि सामाजिक और राजनीतिक संस्थाएँ मोटे तौर पर स्थानीय, राष्ट्रीय अथवा क्षेत्रीय बनी रह जा रही हैं। इस समय की कोई भी भूमंडलीय संस्था विश्व-बाजार में जनतांत्रिक मूल्यों के लिए न तो कोई दृष्टि विकसित कर रही है और न तो देशों के अंदर और देशों के बीच बुनियादी असमानताओं को दूर करने का उपाय कर रही है। इन असंतुलनों का दूर करने के लिए बेहतर संस्थागत रूपों और नीतियों की आवश्यकता है, तभी भूमंडलीकरण के वायदे साकार हो सकते हैं।’[1] अध्ययन यह भी बताता है कि ‘आर्थिक और राजनीतिक व्यवस्था का असंतुलन जनतांत्रिक उत्तरदायित्व को क्षतिग्रस्त करता है।’[2] इसकी अनिवार्य पहरिणति के रूप में ‘अर्थ-व्यवस्था और समाज का असंतुलन’ सामाजिक न्याय को क्षतिग्रस्त करता है। भूमंडलीय अर्थ-व्यवस्था की कार्य प्रणाली के असंतुलनकारी तत्त्वों की पहचान और पुष्टि के बावजूद ‘विश्व नेता’ इन खतरों को रोकने के लिए न तो कोई ईमानदार कोशिश कर सके और न ही इससे उत्पन्न खतरों के वैश्विक दुष्प्रभाव को कम करने की कोई वास्तिवक तैयारी कर सके। ‘भूमंडलीकरण के वायदों को साकार’ करने की बात तो दूर भूमंडलीकरण की प्रायोजित प्रक्रियाओं को टिकाये रखना ही असंभव हो गया। इसके ‘नैतिक रूप से अस्वीकार्य और राजनीतिक रूप से अधार्य’ होने की बात तब समझ में आई जब ‘भूमंडलीय अर्थ-व्यवस्था’ की दुरवस्था के कारण वैश्विक घोटाले सामने आने लगे और भयानक आर्थिक मंदी का वातावरण बन गया। प्रत्याहार सन्निपात (withdrawal syndrome) से ग्रस्त राज्य के हस्तक्षेप की बात वे लोग भी जोर-शोर से उठाने लगे जो लोग कल तक ‘बाजार के अदृश्य हाथ’ पर भरोसा दिला रहे थे। जो हो अब ‘राष्ट्रीय हितों’ और ‘राष्ट्रीय प्राथमिकताओं’ को नये सिरे से पहचानने और अपनाने की जरूरत महसूस होने लगी है। इस परिप्रेक्ष्य में अमेरिका के नये राष्ट्रपति बराक ओबामा की टिप्पणियों और नीतियों के नतीजों की प्रतीक्षा पूरी दुनिया को है। यह जरूर साफ है कि जब ‘राष्ट्रीय हितों’ और ‘राष्ट्रीय प्राथमिकताओं’ को नये सिरे से पहचानने और अपनाने की जरूरत महसूस होने लगी है तब स्वभावत: ‘राष्ट्रीय अस्मिताओं’ के सवाल भी नये सिरे से उठेंगे। इतिहास साक्षी है कि राष्ट्रवाद के खतरे भी कोई कम नहीं हैं। भले ही, इन खतरों में से अधिकांश का संबंध अंधराष्ट्रवाद से है। सवाल यह है कि राष्ट्रवाद ‘अंधा’ कैसे हो जाता है या इसे अंधा बनानेवाले कारक कौन हैं? कहना न होगा कि राष्ट्रवाद की अवधारणाओं पर पुनर्विचार जरूरी है। ध्यान में रखना होगा कि राष्ट्रवाद की अवधारणाओं पर किये जानेवाले पुनर्विचार की प्रक्रियाओं को अंतर्राष्ट्रवाद के भी नये स्वरूप के प्रति सचेत रहना होगा। कतिपय सीमाओं के कारण इस लेख में हमारा ध्यान मुख्यत: नवजागरण प्रेरित राष्ट्रवाद की संभावनाओं पर ही केंद्रित है और इस अर्थ में इस लेख को पूर्ण न मानकर अपेक्षाकृत भविष्य में लिखे जानेवाले किसी बड़े लेख का हिस्सा माना जा सकता है।
भारत में राषट्रवाद की स्थिति कैसी रही है? रवींद्रनाथ ठाकुर के शब्दों को याद करें तो, ‘भारत ने कभी भी सही अर्थों में राष्ट्रीयता हासिल नहीं की। मुझे बचपन से ही सिखाया गया कि राष्ट्र सर्वोच्च है, ईश्वर और मानवता से भी बढ़कर। आज मैं इस धारणा से मुक्त हो चुका हूँ और दृढ़ता से मानता हूँ कि मेरे देशवासी देश को मानवता से भी बड़ा बतानेवाली शिक्षा का विरोध करके ही सही अर्थों में अपने देश को हासिल कर पाएँगे।’[3] स्वभावत:, समाजवाद प्रेरित अंतर्राष्ट्रवाद और नवजागरण प्रेरित राष्ट्रवाद की संभावनाओं को पुनर्परीक्षित करना होगा। यह सवाल तब और जरूरी हो जाता है जब हम देखते हैं कि भूमंडलीकरण और अंतर्राष्ट्रवाद ऊपर से समानार्थी प्रतीत होने के बावजूद परस्पर विरोधी हैं। इनकी विरोधिता के कई आयाम हैं। असल में भूमंडलीकरण पूँजी की एकता और राष्ट्रों के आर-पार आने-जाने का विधान करता है जब कि अंतर्राष्ट्रवाद श्रमशक्ति और इस अर्थ में मनुष्यों के राष्ट्रों के आर-पार आने-जाने के प्रावधानों पर जोर देता है। पूँजी केंद्रित भूमंडलीकरण मनुष्य-केंद्रित अंतर्राष्ट्रवाद का भी विलोम रचता रहा है और राष्ट्रवाद का भी। राष्ट्रवाद के बहुत सारे मॉडल हैं। सवाल यह है कि हमारे लिए कौन-सा मॉडल अधिक उपयुक्त है। क्या नवजागरण-प्रेरित राष्ट्रीय आदर्शवाद हमारा मॉडल हो सकता है? इस सवाल का कोई भी उत्तर देने के पहले राष्ट्रीय आदर्शवाद में निहित नवजागरण की प्रेरणाओं को समझना होगा। साथ ही, इस सवाल पर भी गौर करना होगा कि ‘अगर भूमंडलीकरण का विरोध राजनीतिक आंदोलन है तो यह राष्ट्रवाद की सौ साल पुरानी अवधारणा को लेकर क्यों चल रहा है? पूँजीवाद के आरंभिक दौर के राष्ट्रवाद और ‘थर्ड वेव’ के दौर के राष्ट्रवाद में अंतर होना चाहिए या नहीं?’[4] यह सच है कि नवजागरण प्रेरित राष्ट्रीय आदर्शवाद को हू-बहू नहीं अपनाया जा सकता है, लेकिन उसके नये संस्करण के लिए उस पर गौर करना ही होगा।
जहाँ तक हिंदी क्षेत्र की बात है तो, यह सच है कतिपय अन्य भाषायी क्षेत्रों की तरह हिंदी क्षेत्र में नवजागरण की प्रक्रिया बहुत आगे नहीं बढ़ पयी; लेकिन यह मानना कि हिंदी क्षेत्र में नवजागरण की कोई प्रक्रिया शुरू ही नहीं हुई भ्रामक है। इस भ्रम का संबंध लोकजागरण के विकास के रूप में नवजागरण को नहीं पढ़ने या कह लें लोकजागरण और नवजागरण के बीच के संबंध को ठीक से नहीं समझ पाने से है। लोकजागरण अर्थात भक्ति काल से नवजागरण को काटकर देखने और इतिहास को सांस्कृतिक अभिप्रायों से विच्छिन्न कर सिर्फ राजनीतिक परिप्रेक्ष्य में तौलने की प्रवृत्ति से इतिहास की व्याख्या कितनी भ्रामक और खतरनाक हदों को छू सकती है इसका अंदाजा वीरभारत तलवार की ‘रस्साकशी’ से लगाया जा सकता है। ‘18वीं सदी में, जब भारत में मुगल सम्राज्य टूट-बिखर रहा था और अँगरेजों की सत्ता मजबूत हो रही थी, सबसे पहले दिल्ली के वली उल्लाह ने, जिनसे मुस्लिम पुनरुत्थानवादी नवजागरण शुरू हुआ था, भारत में मुस्लिम सत्ता के राजनीतिक पतन का कारण भारतीय मुसलमानों के धार्मिक और सांस्कृतिक पतन को बताया।.... मजहब के बुनियादी उसूलों पर जोर देने के साथ-साथ हिंदुओं के मेल-जोल से इस्लाम में घुस आई ‘खराबियों’ को बाहर निकालने का शुद्धतावादी सुधार आंदोलन शुरू किया। शाह वली उल्लाह के विचारों से उनके शिष्यों की कई अलग-अलग परंपराएँ फूटीं जिनमें वहाबी भी हुए, देवबंदी भी और एक तरह से अलीगढ़ तहरीकवाले भी। जब तक कंपनी राज को उखाड़कर फिर से मुस्लिम हुकूमत कायम करना मुमकिन लगता रहा, तब तक उन्होंने हिंदुओं को अपने साथ रखना जरूरी समझा। हिंदुओं से धार्मिक भिन्नता पर तब भी जोर दिया जाता था, पर राजनीतिक भिन्नता पर नहीं, क्योंकि राजनीतिक दुश्मन अँगरेज थे।’[5] लोकजागरण के चिह्न भक्ति काल में मिलते हैं। हिंदी आलोचना में यह आम धारणा बनी रही है कि भारत में इस्लाम के आगमन से भारतीय मानस, और साफ-साफ कहा जाए तो हिंदू मानस, किसी गहरी निराशा या हताशा के गर्त्त में डूब गया। इस आम धारणा पर संदेह किया जाना चाहिए क्योंकि राजनीतिक स्तर पर इस्लाम के आगमन की बात हो या धर्म और दर्शन के स्तर पर आगमन की बात हो, व्यापक हिंदू मानस में पराजय बोध के उत्पन्न होने का कोई ठोस आधार नहीं दिखता है। जो कभी जय बोध से ही नहीं जुड़ पाया उसके पराजय बोध से जुड़ने की बात कुछ जमती नहीं है। वस्तुत: इस आम धारणा की ऐतिहासिक सच्चाई पर अधिक वस्तुनिष्ठ ढंग से विचार किया चाहिए। इस ‘आम धारणा’ को ‘डि-कोड’ करें तो हिंदू-मुसलिम के बीच घृणा और वैर को स्वाभाविक और उचित बताये जाने एवं ठहराये जाने के औपनिवेशिक प्रपंच की वह सिद्धांतिकी सामने आ सकती है जिसका क्षतिकर विकास द्विराष्ट्रीयता के रूप में हुआ तथा जिसका विघटनकारी परिणाम देश-विभाजन के रूप में सामने आया। इस पर अलग से विचार किया जाना चाहिए। फिलहाल, यह सच है कि भक्ति के प्रारंभ को इस्लामिक आगमन के बाद उत्पन्न किसी निराशा, अगर कोई रही हो तो, से अनन्यत: जोड़ना ठीक नहीं है लेकिन यह मानना भी ठीक नहीं है कि इस्लामिक आगमन का इस पर कोई प्रभाव है ही नहीं। आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी भारतीय चिंता के स्वाभाविक विकास को रेखांकित करते हुए कहते हैं, ‘संस्कृत की कविताएँ लोक-भाषा के द्वारा बोधगम्य करायी जाती थीं और इस प्रकार मूल कविता का स्वाद कुछ बाधा पाकर राजा और सामंत तक पहुँचता था, पर अपभ्रंश की कविता सीधे असर करती थी। ऐसे राजा बहुत कम हुए जो संस्कृत अच्छी तरह समझ सकते हों। इसका अवश्यंभावी परिणाम यह हुआ कि अपभ्रंश भाषा कविता का राजानुमोदित वाहन हो गयी। एक बार राजाश्रय पाकर वह बड़ी तेजी से चल निकली। यहाँ भी हम देखते हैं कि लोक-भाषा की ओर झुकाव स्वाभाविक रूप से ही हो चला था, किसी बाहरी शक्ति के कारण नहीं। ऊपर की बातों से अगर कोई निष्कर्ष निकाला जा सकता है तो वह यही हो सकता है कि भारतीय पांडित्य ईसा की एक सहस्राब्दी बाद आचार-विचार ओर भाषा के क्षेत्र में स्वभावत: ही लोक की ओर झुक गया था; यदि अगली शताब्दियों में भारतीय इतिहास की अत्यधिक महत्त्वपूर्ण घटना अर्थात इस्लाम का प्रमुख विस्तार न भी घटी होती तो भी वह इसी रास्ते जाता। उसके भीतर की शक्ति उसे इसी स्वाभाविक विकास की ओर ठेले लिये जा रही थी। उसका वक्तव्य विषय कथमपि विदेशी न था।’[6]
इसमें शायद ही किसी को संदेह हो कि शास्त्रीय और बौद्धिक दबाव के कारण हिंदी आलोचना कई बार साहित्य के आगे-आगे, और कई बार तो बहुत आगे चलने लगी। देखे हुए को नई परिस्थितियों एवं परिप्रेक्ष्य में फिर से, नये कोण से और अलक्षित रह गये को देखने का उद्यम आलोचना करती है। हिंदू-मुस्लिम एकता के निहितार्थों को ‘भद्र वर्ग’ से सीमित कर देखना इतिहासबोध के इकहरेपन का ही नतीजा है, ‘सैयद अहमद हिंदू-मुस्लिम एकता तो चाहते थे, पर पुराने शक्ति-समीकरण के तहत ही। इस शक्ति-समीकरण में मुस्लिम भद्रवर्ग ऊपर था, हिंदू भद्र नीचे या उसके पीछे। ... पॉल ब्रास का यह विचार गौरतलब है कि पुराने सामंती तत्त्वों से निकले इस भद्रवर्ग की विचारधारा सांप्रदायिक उतनी नहीं थी जितनी जनतंत्र विरोधी थी। हालाँकि उस वक्त जनतंत्र भी अंगरेजी राज के मातहत बहुत सीमित और सतही था। 19वीं सदी का मुस्लिम अलगाववाद जनतांत्रिक माँगों के विरोध का नतीजा था।’[7] कहना न होगा कि भारत जैसे बहुलात्मक संस्कृतिवाले देश में बोध और ज्ञान के किसी निकाय में किसी भी स्तर पर इकहरापन खतरनाक निषकर्षों तक ले जाता है; इतिहास को प्रतिशोध का दस्तावेज और वर्त्तमान को ‘अन्यों’ की वधशाला में बदलने का रसायन तैयार करता है। वीरभारत जी एक ही साँस में आत्मविरोधी बातें बेधड़क होकर कह जाते हैं। असल में मंतव्य पहले से तय हो तो निष्कर्षों और स्थापनाओं तक उलटे-सीधे चाहे जैसे भी हो पहुँचने में कोई देर नहीं लगती है। हिंदी नवजागरण के निषेध के झोंक में वे कहते हैं, ‘कुछ लोग अपनी कल्पना में रूसी जाति जैसी बड़ी ‘हिंदी जाति’ में बिहारियों को शामिल मानकर चलते हैं।... जिस समय पश्चिमोत्तर प्रांत में मुस्लिम विरोधी हिंदीजाति के गठन का प्रयास चल रहा था, उसी समय बिहार के भद्रवर्गीय हिंदू और मुसलमान एक ही बिहारीपन की भावना से भरकर आपस में सहयोग कर रहे थे। 19वीं सदी के आखिरी दशकों और 20वीं सदी के पहले दशक में शिक्षित बिहारी भद्रवर्गीय नेतृत्व में जो आंदोलन चल रहा था, वह न धार्मिक सुधारों के लिए था, न हिंदी-उर्दू विवाद का था। वह था बंगाल से बिहार को अलग करने का आंदोलन। बिहार का नवजागरण यही आंदोलन था। बिहार को बंगाल से अलग करने की माँग पहली बार 1880 के दशक में उठी। 1894 में पहली बार आंदोलन का मुखपत्र ‘बिहार टाइम्स’ (बाद में ‘बिहारी’ नाम से) निकलना शुरू हुआ तो आंदोलन के नेता डॉ. सच्चिदानंद सिन्हा ने लिखा कि यहीं से ‘बिहार में नवजागरण का दौर शुरू हुआ’[8]। बिहार के संदर्भ में ‘नवजागरण’ (रेनाँसा) शब्द का प्रयोग डॉ. सच्चिदानंद ने 1941 में किया जब हिंदी नवजागरण जैसी कोई अवधारणा मौजूद नहीं थी। 19वीं सदी के आखिरी दशकों में शुरू हुआ यह बिहारी नवजागरण उसी दौर में पश्चिमोत्तर प्रांत के हिंदी नवजागरण से बुनियादी तौर पर भिन्न था--- अपने चरित्र और उद्देश्य, दोनों में।’[9] एक ओर तो यह कहना कि ‘हिंदी नवजागरण जैसी कोई अवधारणा मौजूद नहीं थी’ और दूसरी ओर यह स्थापित करना कि ‘19वीं सदी के आखिरी दशकों में शुरू हुआ यह बिहारी नवजागरण उसी दौर में पश्चिमोत्तर प्रांत के हिंदी नवजागरण से बुनियादी तौर पर भिन्न था’। जो (हिंदी नवजागरण) था ही नहीं उससे भिन्नता का क्या मतलब! क्या ‘हिंदी जाति’ में बिहारियों को शामिल मानकर चलना ऐतिहासिक रूप से गलत और हिंदी जाति से भिन्न मानना सही है! ऐसा साफ तौर पर झलक जाता है कि अपनी किसी पूर्वनिर्धारित मान्यता के कारण डॉ. तलवार ‘हिंदी जाति’ और ‘हिंदू जाति’ को समानार्थी बना देते हैं। क्योंकि वे ‘हिंदी जाति’ को (ध्यान रहे ‘बिहारी जाति’ को नहीं) ‘मुस्लिम जाति’ के अन्य और ‘विरोधी’ के रूप में दिखाने की ना-हक कोशिश करते हैं। नवजागरण को लोक जागरण के सातत्य में देखने के बजाए विच्छिन्नता में देखना इस दृष्टि वक्रता के मूल में है।
हिंदी के जिन कुछ आलोचकों ने नवजागरण के महत्त्व को सही परिप्रेक्ष्य में समझा उन में डॉ. शंभुनाथ प्रमुख हैं। डॉ. शंभुनाथ के मुताबिक ‘निश्चय ही जिन समाजों में पहले से उच्च परंपराएँ मौजूद थीं, वहाँ नवजागरण अतीत से पूरा प्रस्थान नहीं था। भारत के नवजागरण की एक बड़ी खूबी है अतीत और पश्चिम दोनों से आलोचनात्मक संवाद और उनका रूपांतरण। इसी समय आलोचना की भी नींव पड़ी।’[10]
ऐसी परिस्थिति में जब अतीत का आकर्षण तीब्रतर होता जा रहा हो और पश्चिम की बौद्धिक बंदूक सिर पर तनी हो एक ही साथ ‘अतीत और पश्चिम दोनों से आलोचनात्मक संवाद’ एक ही समय में दो भिन्न तथा कुछ मामलों में विपरीत रुचियों के लोगों से टेलीफोन पर बात करने जैसा था। जाहिर है, ऐसे में एक को लक्षित कर कही बात दूसरा पकड़ लेता है और संवाद में उलाझाव पैदा हो जाता है। अपनी तमाम उलझावों के बावजूद, नवजागरण में परंपरा के निषेध का नहीं परंपरा के परिष्कार का संकल्प मिलता है। इस अर्थ में नवजागरण में अतीत से प्रस्थान न होकर परिष्कृत अतीत को साथ लेकर भविष्य की ओर प्रस्थान का संकल्प निहित है। डॉ. शंभुनाथ की आलोचना दृष्टि के निर्माण में भारतीय नवजारण की गहरी भूमिका है। इसलिए, डॉ. शंभुनाथ के नवजागरण से संबंधित विचारों पर और अधिक गंभीरता से गौर करने की जरूरत है। औपनिवेशिक वातावरण में हासिल हो रही पाश्चात्य ज्ञान-परंपरा और भाव-परंपरा से भारतीय परंपराओं के संवाद का भी भारतीय नवजागरण से गहरा संबंध है। डॉ. शंभुनाथ राष्ट्रवाद और राष्ट्रीय आदर्शवाद में भी अंतर करते हैं। डॉ. शंभुनाथ बुद्धिवाद, राष्ट्रीय जागरण और लोकतंत्र को नवजागरण के महान लक्ष्यों के रूप में रेखांकित करते हैं। आज के भारत और उसमें भी हिंदी प्रदेशों की अधिकतर समस्याओं के कारणों को वे नवजागरण की परियोजनाओं के खंडित हो जाने से जोड़कर देखते हैं। वे मानते हैं कि ‘हम ‘डी-जनरेशन’ के दौर से गुजर रहे हैं और पुराने युग का नवजागरण-प्रेरित राष्ट्रीय आदर्शवाद क्षत-विक्षत एवं विकृत हो चुका है।’[11] यह ठीक है कि आजादी के बाद दिनोदिन नवजागरण-प्रेरित राष्ट्रीय आदर्शवाद क्षत-विक्षत एवं विकृत होता गया है, समाज सुधार या समाज एवं संस्कृति के पुनर्निर्माण की प्रक्रिया मंद या निस्पंद होती चली गई है किंतु उसकी संभावनाएँ अभी पूरी तरह से नष्ट या समाप्त नहीं हो गई है। डॉ. शंभुनाथ ठीक ही रेखांकित करते हैं कि ‘बीसवीं सदी जो मुख्य सवाल छोड़कर गई है, वह यह है कि सूचना और तकनीकी क्रांति बाजारवाद द्वारा नियंत्रित होगी या मनुष्य के किसी उच्चतर आलोचनात्मक, नैतिक और साहित्यिक-सौंदर्यशास्त्रीय बोध द्वारा। यह कभी भूलना नहीं चाहिए कि मनुष्य की आलोचनात्मक अंतर्दृष्टि, विकासशील नैतिकताबोध, जनतांत्रिक चेतना और पाश्विक भावजगत के पुनर्मानवीयकरण की प्रवृत्ति ही बीसवीं की आधुनिकता की वे महान ताकतें हैं, जिन्हें इक्कीसवीं सदी ने खो दिया तो यह एक अंधी सदी होगी।’[12] संस्कृति और आधुनिकता में वैरभाव को चिह्नित किये जाने की खतरनाक मनोवृत्ति हमारे अंदर जाने-अनजाने सक्रिय रही है। हमारी मानसिक बुनावट की किसी अतल गहराई में यह बात जमी हुई है कि संस्कृति शुद्ध परंपरा है और आधुनिकता परंपरा का पूर्ण निषेध। देखा जाये तो संस्कृति और आधुनिकता की इस मिथ्या विरुद्धता को न सिर्फ समाप्त करना, बल्कि इनका प्रभावी युग्म तैयार करना नवजागरण का एक प्रमुख उद्यम और कार्यभार है। हिंदी क्षेत्र में नवजागरण का रथ तेजी से आगे तक नहीं बढ़ पाया इसलिए भी यहाँ संस्कृति और आधुनिकता का युग्म नहीं बन पाया और इनके बीच की ध्वंसकारी मिथ्या विरुद्धता अभी भी जमी हुई है। डॉ. शंभुनाथ संस्कृति और आधुनिकता की इस मिथ्या विरुद्धता के परिणामों के लेकर काफी चिंतित रहे हैं। वे ठीक ही कहते हैं कि ‘संस्कृतिहीन आधुनिकता और आधुनिकताहीन संस्कृति--- आज के मनुष्य के सामने दो बड़ी चुनौतियाँ हैं। दोनों समाज को झुंड बना देती हैं।’[13] अपने हिंदी क्षेत्र की राजनीतिक प्रक्रियाओं को ध्यान से देखने पर जनता के झुंडीकरण का रहस्य खुल जायेगा। चुनाव की आँधी में लहराते हुए झंडे हमें झुंडों में बदलने के लिए लपकते रहते हैं! लोकतंत्र के झंडे लोक को झुंड में बदलने के लिए लपकें इससे अधिक दुखद और क्या हो सकता है! डॉ. शंभुनाथ बड़े ही मार्मिक सवाल से जूझते हैं कि, ‘झुंड राजनीति से अपने ‘व्यक्ति’, ‘विवेक’ और ‘अंत:करण’ को खो जाने से बचा लेना संभव होगा?’[14] संभव होगा, यदि हम इक्कीसवीं सदी की ज्ञान संपदा और भाव संपदा के आलोक में संस्कृति और आधुनिकता की मिथ्या विरुद्धता को समाप्त करने में कामयाब हो सके। सच पूछा जाए तो, ‘व्यक्ति’, ‘विवेक’ और ‘अंत:करण’ को खो जाने से बचा लेना मानवीय स्वप्न को बचा लेना है। लोक जागरण और नवजागरण के बीच सार्थक संवाद स्थापित करके ही डॉ. शंभुनाथ भक्ति आंदोलन को इस रूप में पढ़ पाते हैं कि ‘दरअसल भक्ति आंदोलन खोए हुए मानवीय स्वप्न को ढूँढ़ने का माध्यम था। हर भक्त कवि ने अपनी आँख से वह स्वप्न देखा था और रक्त के आँसू बहाए थे।’[15]
साहित्य
शुरू
से
ही
सत्ता
के
परिपथ, चाहे वह सत्ता राजनीतिक हो या शास्त्रीय, से निष्कृत लोक का विमर्श रहा है। भरतमुनि ने शुरू में ही इसे रेखांकित कर दिया था, ‘न वेद व्यवहारोयं संश्राव्य: शूद्रजातिषु। तस्मात्सृजापरं वेदं पंचमं सावणार्णिकम।’[16]
तथापि, यह नहीं भूलना चाहिए कि साहित्य की भी अपनी सत्ता होती है और लोक की भी। सत्ताओं में आपसी संबंध भी देर-सबेर स्थापित हो ही जाते हैं। हमारे समय में साहित्य लोक विमर्श से अधिक सत्ता विमर्श का हिस्सा बन गया है, इसलिए डॉ. शंभुनाथ ठीक ही सवाल उठाते हैं कि ‘साहित्य सत्ता विमर्श है या लोक विमर्श? आज जब सांस्कृतिक चीजें तेजी से सत्ता विमर्श में बदल रही हैं और लोक एक पीछे छूटा मामला है, यह देखने की जरूरत है कि साहित्य बीच के कुछ व्यवधानों को नजरअंदाज किया जाए तो किस तरह किस तरह मुख्यत: लोक विमर्श का मामला है।’[17]
डॉ.
शंभुनाथ
सत्ता
और
लोक
से
साहित्य
के
संबंध
के
परिणाम
के
बारे
यह
भी
याद
दिलाते
हैं
कि
‘पुराने समय के वे ही कवि माने-जाने गए, जो सत्ता की घेरेबंदी का अतिक्रमण करके लोक की आवाज बने। अमीर खुसरो और विद्यापति से लेकर कबीर-तुलसी और भारतेंदु-प्रेमचंद-रामविलास
शर्मा
तक
कवियों-लेखकों
का
सत्ता
की
भाषा
छोड़कर
जनभाषा
और
जन-चिंताओं
की
तरफ
मुड़ना
साहित्य
को
लोक
विमर्श
बनाना
ही
था।
कहना
न
होगा
कि
सदियों
से
लोक
की
संस्कृति
बहुस्रोतपरक, उदात्त और विरुद्धों में सामंजस्य की थी, जबकि हर जमाने में ही सत्ता के सांस्कृतिक औजार थे----कामुकता और अभेद में भेद।’[18]
आशय
स्पष्ट
है
कि
साहित्य
के
लोक
से
जुड़ाव
का
सीधा
अर्थ
है
बहुस्रोतपरक, उदात्त और विरुद्धों के प्रति सामंजस्यशील होना है और सत्ता से जुड़ाव का मतलब कामुकता और अभेद में भेद को बढ़ावा देना है। कहना न होगा कि कामुकता का अर्थ नैसर्गिक काम भावना के दुरुपयोग से है, न कि काम भावना के निषेध से। यह नवजागरण की प्रेरणाओं का ही प्रभाव है कि वे तुलसीदास के महत्त्व को इस रूप में रेखांकित कर पाये कि ‘तुलसी की एक आँख में समाज का यथार्थ था, दूसरी आँख में उसका स्वप्न। उत्तरकांड में दोनों आमने-सामने हैं। रामराज्य का युटोपिया मनुष्य के संदर्भ में रचा गया था, देवताओं को आकर नहीं बसना था उसमें। सभी भक्त कवियों की निगाह में सबसे पहले मनुष्य था।’[19]
मनुष्य
को
महत्त्व
नवजागरण
की
प्रमुख
प्रेरणा
रही
है।
यह
नवजागरण
की
प्रेरणाओं
का
ही
प्रभाव
है
कि
चंडीदास
‘सबार ऊपरे मानुस’ बोध को पा सके और रवींद्रनाथ ठाकुर ‘मनुष्य पर विश्वास खोने’ को पाप कह सके।
ऊपरी परतों को भेदकर थोड़ी गहराई में जाकर टटोला जाए तो नवजागरण की पूरी प्रक्रिया आंतरिक और बाह्य दोनों ही प्रकार के उपनिवेशों से मुक्ति की प्रक्रिया है, भले ही यह धीमी गति और मीठी आँच की प्रक्रिया ही क्यों न रही हो। भारतेंदु हरिश्चंद्र की ‘अंधेर नगरी’ को अन-उपनिवेशन की इसी आकांक्षा से जोड़कर डॉ. शंभुनाथ कहते हैं कि ‘राजा को सूली पर चढ़ाना 19वीं सदी के भारत का महास्वप्न है। यह सिर्फ राजा को सूली पर चढ़ाना नहीं है, उत्तर-औपनिवेशिकता के लिए एक वृहत्तर संघर्ष का आह्वान करना है।’[20] डॉ. शंभुनाथ ‘समग्र सांस्कृतिक अभिप्राय’ को नवजागरण के आलोक में पकड़ने का प्रयास और प्रस्ताव करते हैं। इसी प्रयास के तहत डॉ. शंभुनाथ लिखते हैं, ‘छायावादी कवि के रूप में पंत जितनी उग्रता से पुनरुत्थानवाद का विरोध करते हैं, दूसरा कोई छायावादी कवि नहीं करता। यह एक उल्लेखनीय तथ्य है कि अपने छायावादी दौर में पंत ने ‘तुलसीदास’ या ‘कामायनी’ जैसी कोई रचना नहीं लिखी। उन पर पुनरुत्थानवाद या प्राचीनतावाद की हल्की छाया भी नहीं पड़ी, हलाँकि छायावाद का नवजागरण की पुनरुत्थानवादी धारा से झीना संपर्क था।’[21] इतिहास की अनसुनी आवाजों पर कान धरते हुए शंभुनाथ माखनलाल चतुर्वेदी, राहुल सांकृत्यायन, सियारामशरण गुप्त और रामवृक्ष बेनीपुरी के साहित्यिक महत्त्व को नये सिरे प्रस्तावित करने का प्रयास करते हैं। वे कहते हैं, ‘माखनलाल चतुर्वेदी का साहित्य छायावाद के भीतर नहीं रखा जाता, उन्हें राष्ट्रीय धारा का कवि माना जाता है। इस तरह के विभाजन से भ्रम पैदा होता है।’[22] डॉ. शंभुनाथ राहुल सांकृत्यायन के महत्त्व को नवजागरण और वामपंथी आंदोलन के सेतु के रूप में पहचानते हैं। विवेकानंद का परिप्रेक्ष्य लेते हुए राहुल सांकृत्यायन के संदर्भ में की गई शंभुनाथ की टिप्पणी बहुत अर्थपूर्ण है और हमारी आज की कतिपय समस्याओं को समझने की दृष्टि देती है। वे कहते हैं, ‘विवेकानंद की वैचारिक पृष्ठभूमि वेदांत पोषित आत्मवाद है जबकि राहुल की वैचारिक पृष्ठभूमि बौद्ध धर्म पोषित अनात्मवाद। दोनों अलग-अलग परंपराओं से आकर भी नवजागरण के समान लक्ष्यों से प्रतिबद्ध है--- बुद्धिवाद, राष्ट्रीय जागरण और लोकतंत्र। नवजागरण के इन महान लक्ष्यों से प्रतिबद्ध होने के कारण ही विवेकानंद और राहुल सांकृत्यायन देश की धर्मनिरपेक्ष ताकतों की प्रेरणा बने, सांप्रदायिक ताकतें उनका दुरुपयोग नहीं कर सकीं। राहुल के संदर्भ में सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण तथ्य यह है कि राष्ट्रीय स्वाधीनता संग्राम, वामपंथी आंदोलन और आधुनिक वैज्ञानिक विकास में हिस्सा लेते हुए भी उनका संबंध नवजागरण से बना हुआ था। वह पिछड़े हुए समाज में अधूरे और कच्चे नवजागरण से चिंतित थे, क्योंकि इसका सीधा असर भावी विकास और क्रांतिकारी चेतना पर पड़नेवाला था। आधुनिक भारत के लोकतांत्रिक और वामपंथी नेताओं ने नवजागरण के बचे कार्यभार की उपेक्षा की। इसी का नतीजा है कि विकास और क्रांतिकारी चेतना के शिखर पर संप्रदायवाद, जातिवाद, क्षेत्रीयतावाद, तथा दूसरी वैचारिक संकीर्णताओं का इतना बड़ा तांडव मचा।’[23] भारत में निरंतर फैलते जा रहे संप्रदायवाद, जातिवाद, क्षेत्रीयतावाद, तथा किसी भी प्रकार की वैचारिक संकीर्णताओं के प्रसार को रोकने के लिए अधूरे और कच्चे नवजागरण के अभिप्रायों को गतिशील और फिर प्रगतिशील प्रक्रियाओं से जोड़ना लाभकर हो सकता है; निश्चय ही यह जुड़ाव 19वीं सदी से भिन्न स्तर पर ही होगा।
शंभुनाथ बताते हैं कि ‘बड़ा मुश्किल होता जा रहा है कि किसी व्यक्ति में अब ‘स्थानीय’ या ‘जातीय’ के साथ-साथ ‘मानवीय’ और ‘क्रांतिकारी’ बोध भी हो। इस सदी के उत्तरार्ध की सबसे बड़ी पूँजीवादी साजिश ‘जातीय’, ‘मानवीय’ और ‘क्रांतिकारी’ के बीच दीवारें खड़ी कर देना है। इस परिदृश्य में नागार्जुन हमारे लिए अधिक महत्त्वपूर्ण हो उठते हैं। मैथिली संस्कृति में रचे-बसे नागार्जुन एक व्यापक जातीय, मानवीय क्रांतिकारी कवि के रूप में, इस सदी के उत्तरार्ध के हिंदी के सबसे बड़े कवि के रूप में पहचाने जायेंगे।’[24] डॉ. शंभुनाथ बताते हैं, ‘रामविलास शर्मा ने लोकजागरण, पूँजीवादी विकास, हिंदी जातीय गठन और हिंदी नवजागरण का बढ़-चढ़ कर वर्णन किया हो, पर भूलना नहीं होगा कि वे पुनरुत्थानवादी दंभ के संकीर्ण प्रसंगों में नहीं गए। उनकी हिंदी जाति की अवधारणा एक बंद और अंधी अवधारणा नहीं है, उसमें पर्याप्त ‘स्पेस’ है। उन्होंने जो बड़ी बौद्धिक परियोजनाएँ हाथ में लीं, उनके आधार पर कोई चाहे तो उन्हें मार्क्सवाद से प्रेरित आधुनिकता का सबसे बड़ा भारतीय महावृत्तांतकार कह सकता है।’[25]
समाज और परिवार में स्त्री के लिए समकक्ष दर्जा सुनिश्चित किये जाने की चिंता नवजागरण का एक प्रमुख घटक है। ‘स्त्री विमर्श के एक बड़े हिस्से में वैश्वीकरण को स्त्री-मुक्ति के महाद्वार के रूप में देखा जा रहा है। उत्तर-आधुनिक स्त्री विमर्श में जिस तरह नवजागरण के सुधारों से संतोष नहीं है, उसी तरह आरक्षणों और कल्याणकारी योजनाओं से भी नहीं है। ... एक खास दुनिया का स्त्री विमर्श मामले को पितृसत्ता को चुनौती से आगे मर्द से विद्रोह तक ले जाता है।’[26] यह नवजागरण की प्रेरणाओं का ही प्रभाव है कि वे ‘पितृसत्ता को चुनौती दिये जाने के औचित्य’ को प्रसन्नतापूर्वक स्वीकारते हैं जबकि ‘मर्द से विद्रोह’ के औद्धत्य को दृढ़तापूर्वक नकार देते हैं। नवजागरण में निहित आत्मनिरीक्षण और आत्म सुधार की निश्च्छल तत्परता का आग्रह ऐसा गुण है जो व्यक्ति और समाज को कट्टरता और जड़ता से संघर्ष करने के लिए आवश्यक दृढ़ता और लोच प्रदान करता है। नवजागरण की प्रेरणाओं के सफल आत्मसातीकरण का तोषकर परिणाम है कि कट्टरता और जड़ता के परे और पार वैचारिक दृढ़ता और सांवादिक लोच डॉ. शंभुनाथ के व्यक्तित्व के गढ़न का हिस्सा है। महत्त्वपूर्ण यह है कि नवजागरण की प्रेरणाएँ डॉ. शंभुनाथ की सीमा नहीं बन पाती है। वे न सिर्फ राहुल सांकृत्यायन के महत्त्व को नवजागरण और वामपंथी आंदोलन के सेतु के रूप में पहचानते हैं, बल्कि खुद भी इस सेतु के निर्माण के अवरोधकों से संघर्ष करते हैं। इतिहास की द्वंद्वात्मकता के सही परिपरेक्ष्य को पहचानते हैं इसलिए अतीत को वे अखंड रूप में देखते हैं तथा वर्तमान का विश्लेषण अतीत के खंडन के लिए नहीं भविष्य के पुनर्मानवीयकरण के लिए करते हैं, संदेश यह कि विरुद्धों के बहिष्करण में नहीं संस्करण में दुख की दवा है। उदारीकरण-निजीकरण-भूमंडलीकरण के दौर में जब भारी असंतुलन ही स्वाभाविक लक्षण बनता जा रहा है डॉ. शंभुनाथ की विश्वदृष्टि और आत्म दृष्टि में; ज्ञान-प्रसार और भाव-प्रसार में आश्वस्तकारी आत्म-सतुलन और संगति है। अपने समय में उपलब्ध संवेदना और ज्ञान के संसार से उनका गहरा परिचय है, इसे परिचय के नवीकरण की उत्सुकता भी कम नहीं है। अपने किसी पूर्वग्रह को अतिक्रमित करने में भी वे हिचकते नहीं हैं। यह महज संयोग नहीं है कि नवजागरण में युवापीढ़ी के लिए पर्याप्त संदेश (space) मिलता है और डॉ. शंभुनाथ भी युवापीढ़ी से रचनात्मक संवाद और संबंध के प्रति सदैव आग्रहशील बने रहते हैं। डॉ. शंभुनाथ के आलोचना कर्म का मकसद भारतीय समाज के सांस्कृतिक पुनर्निर्माण के लिए रसद जुटाना है, लोक जागरण और नव जागरण के आलोक में जन जागरण की संभावनाओं को तलाशना है। अर्थ-व्यस्था के भूमंडलीकरण की आँधी के झकोरों के कमजोर पड़ते ही स्थानीय, राष्ट्रीय अथवा क्षेत्रीय बनती जा रही सामाजिक और राजनीतिक संस्थाओं की संकीर्णताओं में वृद्धि की आशंका बढ़ती जा रही है। ‘राष्ट्रीय हितों’, ‘राष्ट्रीय प्राथमिकताओं’ और ‘राष्ट्रीय तथा जातीय अस्मिताओं’ के अतिरिक्त दबाव से अंधराष्ट्रवाद और भारत जैसे बहुजातीय देश में आंतरिक विभंजकताओं का खतरा काफी बढ़ गया है। अंधराष्ट्रवाद और आंतरिक विभंजकताओं के खतरों से निपटने के लिए समाजवाद प्रेरित अंतर्राष्ट्रवाद और नवजागरण प्रेरित राष्ट्रवाद की संभावनाओं को तलाशने तथा कच्चे और अधूरे नवजागरण के अवशिष्टों के बोझ को उतार फेकने की तैयारी में डॉ. शंभुनाथ से सहमत या असहमत तो हुआ जा सकता है लेकिन उनके वैचारिक प्रस्तावों की अनदेखी नहीं की जा सकती है।
[1]ILO Report of ‘World Commission on the Social Dimension of Globalization’ 2004: A fair globaliztion: Creating opportunities for all: Globalization for people Avision for change
[2] -वही-
[3]रवींद्रनाथ ठाकुर: भारत में राष्ट्रीयता -1917: सामाजिक क्रांति के दस्तावेज -1, सं. डॉ. शंभुनाथ, वाणी प्रकाशन -2004
[4]अरुण कुमार त्रिपाठी: कट्टरता के दौर में: भूमंडलीकरण के विरोध की सीमाएँ: राधाकृष्ण प्रकाशन प्रा लि 2005
[5]हिंदी नागरी और गोरक्षा: रसाकशी -19वीं सदी का नवजागरण और पश्चिमोत्तर प्रांत: वीरभारत तलवार: सारांश प्रकाशन 2002
[6]आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी: हिंदी साहित्य की भूमिका- हिंदी साहित्य: भारतीय-चिंता का स्वाभाविक विकास: राजकमल प्रकाशन, संस्करण 1979
[7]हिंदी नागरी और गोरक्षा: रसाकशी -19वीं सदी का नवजागरण और पश्चिमोत्तर प्रांत: वीरभारत तलवार: सारांश प्रकाशन 2002
[8]डॉ. सच्चिदानंद सिन्हा: सम एमीनेंट बिहार कंटेंपरेरीज:हिमालय पब्लिकेशन, 1944 पटना: रसाकशी -19वीं सदी का नवजागरण और पश्चिमोत्तर प्रांत:: वीरभारत तलवार: सारांश प्रकाशन 2002
[9]डॉ. सच्चिदानंद सिन्हा: सम एमीनेंट बिहार कंटेंपरेरीज:हिमालय पब्लिकेशन, 1944 पटना: रसाकशी -19वीं सदी का नवजागरण और पश्चिमोत्तर प्रांत:: वीरभारत तलवार: सारांश प्रकाशन 2002
[10]डॉ. शंभुनाथ: भूमिका: हिंदी नवजागरण और संस्कृति: आनंद प्रकाशन - 2007
[11]डॉ. शंभुनाथ: दुस्समय में साहित्य: इतिहास की अनसुनी आवाजें: वाणी प्रकाशन 2002
[12]डॉ. शंभुनाथ : दुस्समय में साहित्य: आजादी और विपर्यय की सदी
[13]डॉ. शंभुनाथ: दुस्समय में साहित्य: आजादी और विचर्यय की सदी
[14]डॉ. शंभुनाथ: दुस्समय में साहित्य: आशा इतिहास से संवाद है
[15]डॉ. शंभुनाथ: दुस्समय में साहित्य: रामचरितमानस और वर्तमान समय
[16]भरतमुनि : नाट्यशास्त्र,1.12
[17]डॉ. शंभुनाथ: भूमिका: हिंदी नवजागरण और संस्कृति: आनंद प्रकाशन - 2007
[18]डॉ. शंभुनाथ: भूमिका: हिंदी नवजागरण और संस्कृति: आनंद प्रकाशन - 2007
[19]डॉ. शंभुनाथ: दुस्समय में साहित्य: रामचरितमानस और वर्तमान समय
[20]डॉ. शंभुनाथ: दुस्समय में साहित्य: अँधेर नगरी: उत्तर-औपनिवेशिक विमर्श
[21]डॉ. शंभुनाथ: दुस्समय में साहित्य: नवजागरण, छायावाद और पंत
[22]डॉ. शंभुनाथ: दुस्समय में साहित्य: इतिहास की अनसुनी अवाजें
[23]डॉ. शंभुनाथ: दुस्समय में साहित्य: इतिहास की अनसुनी आवाजें
[24]डॉ. शंभुनाथ: दुस्समय में साहित्य: उम्मीद के कवि नागार्जुन
[25]डॉ. शंभुनाथ: दुस्समय में साहित्य: रामविलास शर्मा होने का अर्थÃ
[26]शंभुनाथ: हिंदी नवजागरण और संस्कृति: स्त्री विमर्श की मुश्किलें: आनंद प्रकाशन
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