डर, जो बाहर भी है
और भीतर भी
निशांत
हिंदी कविता के युवा हस्ताक्षर हैं। 'जी, हाँ लिख रहा हूँ' उनका दूसरा काव्य संग्रह है। पहला
संग्रह 'जवान होते लड़के का कबूलनामा' नाम से भारतीय ज्ञानपीठ की युवा
पुरस्कार योजना के अंतर्गत प्रकाशित हुआ था। निशांत जिंदगी के संधर्ष से गुजरते
हुए आगे बढ़ते रहे हैं। उनके जीवन-संघर्ष की छाप उनकी कविताओं में मिल
जाती है। यह सच है कि प्रत्येक नागरिक को, इसलिए
कवि को भी, गहरे जीवन-संघर्ष के दौर से गुजरना पड़ता है।
नागरिक का जीवन-संघर्ष भी सामाजिक-संघर्ष से जुड़कर ही महत्त्वपूर्ण बनता
है। हिंदी कविता इन दिनों अपने अधिकांश में जीवन-संघर्ष
के उत्ताप से बचते-बचताते अपने होने को संभव करने का
प्रयास कर रही है।
'जी, हाँ लिख रहा हूँ' में पांच अनुक्रम हैं – ‘कोलकाताः
कविता के कैनवास पर कुछ बिखरे हुए चित्र’, ‘कबूलनामा’, ‘मैं में हम – हम में मैं’, ‘फिलहाल
साँप कविता’ और ‘कैनवास
पर कविता’। कोलकाता सचमुच जादूनगरी है। हिंदी
मानस में कोलकाता की विभिन्न छवियाँ हैं। कोलकाता पर बजर गिरे जैसी काव्य छवियाँ
ही नहीं, कलकाता शहर हिंदी लोक की विभिन्न अभिव्यक्तियों मे आशा और विरह की छवि
लेकर उपस्थित है। शायद ही किसी दूसरे शहर-महानगर की ऐसी जादुई उपस्थिति हिंदी मन
में हैं। कौन हिसाब लगा सकता है कितने बलम, कितनी झुलनी, कितना धक्का और कितने
कोलकाता हैं हिंदी मन में। कोलकाता के मन में हिंदी मन के लिए चाहे जितना भी स्पेस
बचा हो हिंदी मन में कोलकाता एक अद्भुत मोह है। हिंदी मन जिस कोलकाता को जानता है,
वह महानगर नहीं बल्कि जैसा कि बाबा नगार्जुन कहते थे गाँवों का गुच्छा है।
निशांत
ठीक ही कहते हैं, ‘कोलकाता में चारों तरफ ही जादू है/ और
मुझे डर है/ किसी दिन मैं गायब न हो जाऊँ कोलकाता से/ और किसी दूसरे शहर में मिले
मजदूरी करता हुआ एक लड़का/ जिसका चेहरा मेरे चेहरे से हू-ब-हू मिलता-जुलता हो।’ जो हालात हैं, उसमें किसी दिन कोलकाता
से किसी के भी गायब हो जाने की आशंका बढ़ रही है। निशांत का डर कोई सामान्य डर
नहीं है, बल्कि विकास के नैपथ्य में खड़े समय के अंतरंग का डर है। कोलकाता निशांत
का घर है। इस घर में डर ने अपना घर बना लिया है। डर हमारे जादुई समय का सबसे अधिक
जीवंत शब्द और स्पंदित चित्र है।
यह
डर भी अद्भुत है, यह डर कभी आमंत्रित करता हुआ भी दिखता है! मगर डर तो आखिर डर है! इस डर का डेरा सब जगह है – कवि के कबूल नामा में भी। निशांत के
शब्दों में कहें तो, ‘डरना ज़रूरी होता है, दोस्त! जीवन में आगे बढ़ने के लिए/ शरीर से
बचने के लिए/ आत्मा को मरने से बचाने के लिए/ संवेदनाओं को जिंदा रखने के लिए/ डरो
कि ताकि डरने से नहीं लगता चुनरी में दाग़/ भागो ताकि भागने से सोई रहती है आत्मा/
बची रहती है बचने की उम्मीद’। डर एक संदेश भी है इन दिनों। डर का
संदेश हो जाना इसलिए भी त्रासद है कि एक समय चित्त की भय-शून्यता की कामना विश्व
कवि रवींद्रनाथ के ठाकुर के काव्य में उतरकर कोलकाता ही नहीं, बंगाल ही नहीं, भारत
ही नहीं बल्कि पूरी मानव सभ्यता की मनोकामना के रूप में फैल गई थी। लेकिन यह डर है
कि टहलता रहता है हमारी धमनियों में, तब भी जब ‘मैं में
हम – हम में मैं’ हो, कविता कहती है, ‘एक डर कभी-कभी हमारी धमनियों में रेंगने
लगता/ ‘जीवन में क्या करेंगे हम?’’ हाँ, सवाल तो यही है कि क्या करेंगे हम,
‘ज़िन्दा रहने की मजबूरी लिये/ कभी-कभी
बड़ी-बड़ी बातें करते हैं/ एक घेरे में रहकर/ ‘लाल
सलाम-लाल-सलाम’ और/ ‘हल्ला
बोल-हल्ला बोल’ चिल्लाते हैं/ दाढ़ी बढ़ाकर, बाटा की
चप्पल पहनकर/ जंतर-मंतर या संसद भवन घेरते हैं/ ली-कपूर का जींस पहने/ गले में
पेन-ड्राइव टाँगे/ लंबी-चौड़ी शैक्षणिक डिग्रियाँ बटोरे/ सिगरेट पीते हुए/ दिन में
आम-आदमी की तरह दिखते हैं/ भीतर से बेहद डरे हुए ‘हम’’।
निशांत
के पास अपनी काव्य-भंगिमा है। इस काव्य-भंगिमा का अर्जन जीवन संघर्ष के दौरान उन्होंने किया है। जीवन को संभव करने के लिए किये गये पुरखों के संघर्ष भी
उनके काव्य के संभव होने में सकारात्मक ढंग से उपस्थित है। हिंदी कविता के पैटर्न
पर अभी कविगण काम करेंगे, ऐसी उम्मीद है। निशांत भी इस दिश में कुछ बेहतर करेंगे
इसकी उम्मीद की वजहें उनकी कविता में है। इनकी कविताओं में सक्रिय भाव-संघर्ष वाद से बाहर
की चीज है। परत-दर-परत इन कविताओं को पढ़ना, जवान होते आम भारतीय लड़के के मनोजगत
को पढ़ना है। अच्छी बात यह है कि निर्थकता-बोध है भी तो उसमें सार्थकता की बेचैन
तलाश भी है। इसी तलाश को एक आयाम देती है यह सूचना कि जी हाँ, लिख रहा हूँ। ‘जी हाँ, लिख रहा हूँ’ सिर्फ एक सूचना नहीं, एक संकल्प भी है
और भरोसे का आश्वासन भी। ‘डर से बाहर’ निकलकर पाठक अपने निजी अनुभव को नये
रूप में भाषा में आकार लेते हुए इन कविताओं देख सकते हैं। डर जो बाहर भी है भीतर भी है उससे बाहर
निकलना पाठक के लिए भी चुनौती है और कवि के लिए भी चुनौती है – फिलहाल तो, उम्मीद की जानी चाहिए कि
पाठक और कवि मिलकर इस चुनौती का मुकाबला सफलता पूर्वक कर सकेंगे।
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पुस्तकः
जी हाँ, लिख रहा हूँ
कविः
निशांत
प्रकाशकः
राजकमल प्रकाशन
पहला
सं.2012
कीमतः `150.00
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