राष्ट्रीयता, नगरीयता और नागरिकता

सच है कि दिल्ली अब तक पूर्ण राज्य तो नहीं बन पाई, लेकिन लगता है कि वह रूप बदलकर 'राष्ट्र' बनने की तरफ बढ़ रही है.. 'अण्णा और आप' के अंतर्विरोध के भीतरी तहों में सक्रिय क्षेत्रीय प्रसंगों पर भी सोचने की जरूरत है। सुविधा और सुरक्षा के तर्क पर जिस तरह से मुंबई से महाराष्ट्र क्षेत्र के रहनिहारों का एक तरह की अ-भिन्नता का और देश के अन्य हिस्से के रहनिहारों का दूसरे तरह की भिन्नता का संबंध विकसित होता गया है, क्या उसी तरह से दिल्ली से हरियाणा क्षेत्र के रहनिहारों का एक तरह की अभिन्नता का और देश के अन्य हिस्से के रहनिहारों का दूसरे तरह की भिन्नता का संबंध विकसित करने का प्रयास नहीं किया जा रहा है? नागरिकता का संबंध संवैधानिक रूप से भले ही राष्ट्रीयता से पुष्ट और  परिभाषित होता हुआ दिखता रह सकता है, लेकिन व्यावहारिक रूप से नागरिकता का संबंध निकृष्टतम अर्थों में नगरीयता से अपभाषित और संकुचित हो रहा है। नागरिकता राष्ट्रीयता से नहीं नगरीयता से तय होने की दिशा में बढ़ रही है।


क्षेत्रीय-सामाजिक-सामुदायिक संबंधों में लाभग्राहिता की दृष्टि से थोड़ा-बहुत तनाव और खैंचतान कोई अ-स्वाभाविक बात नहीं है.. लेकिन यह तनाव और खैंचतान अगर टकराव की ओर बढ़ने लगे तो मानना चाहिए कि यह सामाजिक-सामुदायिक संबंधों की लाभग्राहिता में राजनीतिक ध्रुवीकरण के प्रसंग जुड़ रहे हैं और यह खतरनाक हद तक जा सकते हैं.. मुश्किल मगर यह है कि इसे खतरनाक हद तक बढ़ने से सिर्फ और सिर्फ जननीति ही रोक सकती है.. लेकिन इस बात को समझने में बहुत वक्त लग जा सकता है कि टकराव बढ़ानेवाला राजनीतिक ध्रुवीकरण का जन्म-सूत्र सत्ता की राजनीति से जुड़ा होता है और खतरनाक हद तक बढ़ने से रोकनेवाली जननीति का जन्म-सूत्र सामाजिक-सामंजस्य की मौलिक आकांक्षा से जुड़ा होता है.... सामाजिक-सामंजस्य को सामाजिक-सत्ता सुनिश्चिचत कर सकती है.. तो क्या रजनीतिक राष्ट्र एक ओर कॉरपोरेट-राष्ट्र की तरफ बढ़ता जायेगा और दूसरी तरफ समाज-राष्ट्र में बदलता जायेगा... जो भी शक्ति-संरचना का यह संक्रमणकाल उथल-पुथल और पुरानी जटिलताओं में नई-नई गुत्थियों के बनने का भी काल होगा... पुरानी रसौलियों में नई टीस से भरा यह दौर काफी कष्टकर होगा... किस मुश्किल में हैं हम कि राजतंत्र 'खत्म' हो गया पर राजनीति जारी है... जनतंत्र 'स्थापित' हो गया लेकिन जननीति शुरू नहीं हुई..इस मुश्किल का कोई ओर-छोर नहीं दिखता है.... ऐसी कठिन घड़ी में निराला याद आते हैं... गहन है यह अंध कारा... इस गगन में नहीं शशधर नहीं तारा... 

1. राष्ट्रीयता, नगरीयता और नागरिकता

1 टिप्पणी:

mahesh mishra ने कहा…

"व्यावहारिक रूप से नागरिकता का संबंध निकृष्टतम अर्थों में नगरीयता से अपभाषित और संकुचित हो रहा है। नागरिकता राष्ट्रीयता से नहीं नगरीयता से तय होने की दिशा में बढ़ रही है।"