विकल्पहीनता का आनंद

विकल्पहीनता का आनंद
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कुछ लोगों के जेहन में किशन पटनायक की याद होगी। किशन पटनायक सामाजिक राजनीतिक चिंतक थे। वह दौर था जब पूरी दुनिया में टीना (TINA) का कोहराम मचा था। टीना, मतलब कि कोई विकल्प बचा नहीं है। किशन पटनायक तब दोनों हाथ उठाकर पूरी बौद्धिक ताकत के साथ कहते थे, विकल्प है। उनकी बहुत महत्त्वपूर्ण किताब है ‘विकल्पहीन नहीं है दुनिया’। अवसर मिल जाये तो जरूर पढ़ना चाहिए। उनके लेखों का संकलन है जो काफी है भरोसे के लिए। दुनिया कभी विकल्पहीन नहीं होती है। यह सच है कि जो विकल्प हमें दिखाया जा रहा था या दिख रहा था वह वह अपनी अंतर्वस्तु में वस्तुतः एक ही था। इस तरह कोई विकल्प था नहीं, बस विकल्प का आभास था। हमने आभास पर यकीन किया। विकल्प सत्ता के पास नहीं हुआ करती है, चाहे वह राजनीतिक सत्ता हो या बाजारनीतिक सत्ता हो। विकल्प हमेशा जनता के पास होता है। इस बात पर भरोसा कर लेना चाहिए।  हमने भरोसा किया।
अब यह विडंबना ही है कि गाँधी और गोडसे को एक दूसरे का विकल्प मानने तथा मनवाने का प्रस्ताव किया जा रहा है। बहुत सारे लोग गाँधी को नहीं, गोडसे को बेहतर विकल्प मानने भी लगे हैं। ध्यान में होना ही चाहिए कि गाँधी और गोडसे यहाँ व्यक्ति होने के कारण महत्त्वपूर्ण नहीं हैं, बल्कि विचार सरणी के रूप में महत्त्वपूर्ण हैं।
विकल्प का द्वंद्व
आज की तुरंग गति-मति के समय में विकल्प की तलाश बहुत कठिन काम है। एक तो वास्तविक विकल्प को पहचानना मुश्किल, दूसरे वह पूरी तरह अपरीक्षित होता है। बेहतर नतीजा नहीं भी दे सकता है। विकल्प का द्वंद्व बहुत कष्टकर होता है। जिन्हें नतीजे की बहुत चिंता नहीं होती है वे विकल्प को लेकर मगजमारी नहीं करते हैं। विकल्प तलाश की दुविधा के पार बसता है विकल्पहीनता का आनंद! कहने की जरूरत नहीं है कि आज हम में से बहुत सारे लोग विकल्प तलाश के कष्टकर द्वंद्व से बाहर निकल गये हैं। न सिर्फ बाहर निकल गये हैं बल्कि विकल्पहीनता का आनंद लेने में जीवन की सार्थकता पा रहे हैं।
तो फिर क्या है विकल्प!
है विकल्प है। यह जरूर है कि विकल्प को खोजना आसान नहीं है। आसान इसलिए नहीं है कि यह खोज अकेले का उद्यम नहीं है। इसके लिए संगठित उद्यम चाहिए। मुश्किल इसलिए भी है कि उद्यम संगठित होते ही इस या उस तरह की शक्ति में बदल जाता है। शक्ति के सत्ता में बदल जाने में देर ही कितनी लगती है। हमारा काव्य अनुभव बताता है, जिधर अन्याय होता है, शक्ति उधर ही झुक जाती है। साक्षी निराला हैं। ऐसा है, दुष्चक्र। न्याय, चाहे जिस भी प्रकार का हो, चाहिए तो इस दुष्चक्र को शुभचक्र में बदलना ही होगा। फिलहाल तो मैं Arti Thakur आरती ठाकुर के सवाल (फेसबुक पर) का जवाब ढूढ़ रहा हूँ कि ‘कोसल और मगध से होते हुए कवि और उसकी कविता नागरिक होएंगे ही अंततः सांसारिक जरूरतें उन्हें प्रचारित कवि बनाती है और वैराग्य से जीते/ लिखते उन्हें पलायनवादी...... कवि जो मगध में था अब वो किसी समयकाल में नहीं। शब्दों में जिंदा रहने की क्या शर्त्तें है, कोई बताये तो?’ कोई क्या बतायेगा भला! रघुवीर सहाय को याद करें तो अपने मोर्चे पर मरने की जिद हमें बचा सकता है। अपने मोर्चे पर मरने की जिद भी एक विकल्प है!
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Ramesh Chand Meena (फेसबुक पर) का सवाल गौर तलब है इसलिए इस सवाल को यहाँ रखना और इसके जवाब को प्रस्तावित करना दायित्व है।
सवाल, विकल्पहीनता के दौर में नहीं जी रहे है हम?
जवाब यह कि
भाई, विकल्पहीनता भी एक विकल्प है, अब चयन हमारा जो हो!

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