परमोटाने की क्राउनोलॉजी
हाँ, मैं कबूल करता
हूँ, उठने में देर हो गई। घरैतिन के झकझोरने पर झख मारती आँख खुली। आँख खुली, ऐसा
लगता है। ठीक-ठीक कह नहीं सकता, क्यों नहीं कह सकता! इसलिए नहीं
कह सकता कि जब मुझे झकझोरने की कार्रवाई चलाई गई मैं सो नहीं रहा था। सपना देख रहा
था। तकनीकी रूप से सपना देखने की अवस्था को सोना नहीं कहा जा सकता है। विवाद इस पर
भी हो सकता है कि नींद में सपना होता है या सपने में नींद। जानता हूँ इस विवाद में
आप की कोई दिलचस्पी नहीं है, आप भी जानिये कि मेरी भी इस में राईरत्ती दिलचस्पी
नहीं है। यह पराइम टेम बहस का विषय है। आप विश्लेषणगुरु नहीं हैं तो मैं भी हृदय विदारक प्रवक्ता नहीं हूँ।
उचितवक्ता भी नहीं हूँ। सही बात यह है कि वक्ता ही नहीं श्रोता भी नहीं हूँ,
स्रोता हूँ — मतस्रोत! जानकर रखिये, बाग-बगीचा या मॉल-टॉल में
तफरीह कालीन सेफ्टी-सिकोरोटी के लिहाज से युजर फ्रेंडली मत्स्य सूत्र, नहीं लिंक
है। मत्स्य सूत्र में तो चारा लगाइये और घंटों इंतजार करते रहिए, माने झख मारिये।
लिंक में तो दो-चार शब्द-सरीखा कुछ होता है, हित की तलाश में हिट कीजिए तो
आरम-पारम का स्वर्ण हरना स्व रण शुरू। यह स्वर्ण हरना स्व रण समझ में नहीं आ रहा।
यही तो दिक्कत है, हम को लोग दिक्कू समझते हैं और समझने में दिक्कत हो जाती है, तो
मैं करूँ तो, क्या करूँ! चलिए बताता हूँ — सोना हरने-हारने के लिए
अपने से रण, माने रुन-झुन-रुन-झुन नहीं, लड़ाई। आरम-पारम तो समझते होंगे, नहीं! आर में मौत या पार में मौत — मौत भयदशा नहीं उभयदशा है। हाँ तो युजर फ्रेंडली लिंक है — यह
प्रेम नहीं पराइम के बोलबाला का समय है। हाँ, तो
मैं सपना देख रहा था। हाँ, वही होगा मतलब सपना ही होगा। वैसे भी आजकल सिर्फ और सिर्फ
सपना ही देखता हूँ। ऐसा क्यों? क्या जवाब दूँ! सीधी-सी बात है, जो दिखाया जायेगा, वही दिखेगा, जो दिखेगा उसे ही देख
सकता हूँ। अब इतनी-सी क्रोनोलॉजी तो हर कोई बूझ सकता है। असल बुझक्कड़ तो वह है जो
क्रोनोलॉजी की क्राउनोलॉजी समझ ले। वैसे तो क्राउनोलॉजी हिंदी शब्द है, अंग्रेजी
का पता नहीं, पर्याय से समझ सकते हैं तो पर्याय हुआ मुकुटशास्त्र! आजकल तुक और पर्याय टूल्स समझदारी की दो आँखें हैं, जिनके पास ये नहीं
हैं, वे क्या बूझेंगे क्या होता है बहसजीत होने का मजा। पहले उस लाटफारम पर इस का
स्वागत होगा जिस पर बहस नहीं चर्चा होती है, फिर परमोटाकर पराइम टेम पर बहस की
योग्यता हासिल होगी। हाँ तो सपना में एक सज्जन की प्रगति कथा से रु-ब-रु था। वे
पहले प्रगतिशील कवि थे, वैसे अब तक की मेरी अध्वस्त मान्यता रही है कि कवि प्रगतिशील
ही होता है, कोई-कोई प्रीतिशील भी होता है। वे परमोटाकर अब बुद्धिजीवी हो गये थे
और खुश थे। वे मेरे भी परमोटाने के लिए किरपाशील थे। वे आरम-पारम आरगू कर रहे थे
कि ब्ह्मानंद सहोदर से मुलाकात प्रगतिशीलता में नहीं, किरपाशीलता में होती है —
किरपा लो, किरपा दो — कवि नहीं, किरपन बनो। किरपनिया बनने के लिए किरतनिया चर्या
की जरूरत होती है, ब्रह्मचर्या के तिरगुन फाँस को काटने की जरूरत होती है। वे मुझे
परदेशी नहीं स्वदेसी मानकर माया के मोहक बन में ले गये और हाल ही में तैयार की गई
किरपाचलीसा की अच्छी प्रस्तुति दे रहे थे। वे बताते रहे कि दोनों में कोई विरोध
नहीं है, इतना ही नहीं दोनों स्वीच ऑन ऑफ की पूरी फैसलिटी उपलब्ध है। इस पर
विस्तार से आगे — देशी कृष कवि के परमोटाये बहुदेशीय बुद्धिजीवी बनने की कथा।
(सपने में मैं था और सपना भी मुझ में है, तो यह आत्मेन है!)
(सपने में मैं था और सपना भी मुझ में है, तो यह आत्मेन है!)
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