भाषा
में डर
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प्रकृति
तो है ही मनोहारी और चमत्कारी। मनुष्य की सभ्यता भी कोई कम विस्मयकारी नहीं है।
वन, नदियाँ, पहाड़ जंगल मनुष्य की निर्मिति नहीं है। मनुष्य इन्हें बना नहीं सकता।
ये बनती रहती है। बड़े-बड़े भवन, डैम, फैक्ट्रियाँ, कल-पूर्जे, वाहन आदि सभ्यता की
निर्मिति है। इन्हें मनुष्य ही बना सकता है। बनाता रहता है। प्रकृति में चीजें
बनती नहीं, बल्कि विकसित होती रहती है, मनुष्य का इनके विकास में कोई सीधा हस्तक्षेप
नहीं होता है, विध्वंस में भले हो। प्रकृति की निर्मिति में मनुष्य का हस्तक्षेप
कितना होता है, इस पर विभिन्न तरह से सोचा जा सकता है। लेकिन, सभ्यता की निर्मिति
में प्रकृति बुनियाद देती है। इस तरह से सोचें तो प्रकृति से बाहर कुछ भी नहीं
होता है।
मैं भाषा
के बारे में सोचता हूँ। भाषा प्रकृति की निर्मिति है या सभ्यता की निर्मिति है। मनुष्य
भाषा का निर्माण नहीं कर सकता है। भाषा के विकास में प्रकृति मनुष्य को अपना
माध्यम बनाती है। कुछ लोग प्रकृति के विरुद्ध जाकर भी भाषा का निर्माण उसी तरह
करने की कोशिश में लगे हैं। ऐसे लोग अक्लमंद होते हैं या मंद अक्ल होते हैं। कम का विपरीत अधिक है। कम का विपरीत मंद नहीं
होता है। लेकिन कमअक्ल का विपरीत अक्लमंद होता है! मुझे समझ में नहीं आ रहा। जिसे कोई
बात समझ में नहीं आता, क्या उसे नासमझ कहा जा सकता है? जिसे कोई बात समझ में आती
है, क्या उसे समझदार कह सकते हैं? आप मेरी कुछ मदद कर सकते हैं। यदि आप ने मेरी
मदद की तो मैं आपको अपना मददगार कहूँगा, जरूर कहूँगा। लेकिन आपने मेरी मदद नहीं की
तो मैं क्या कहूँगा? साधारणतः भाषा में आदमी व्यक्ति निडर होता है, लेकिन जब
व्यक्ति की अभिव्यक्ति में डर का सदावास हो जाये, तो भाषा में डर अपना घर बना लेता
है। यही है, भाषा में डर!
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