जे
बिनु काज दाहिनेहु बाएँ
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पटना में रहनेवाले हिंदी के बड़े आलोचक खगेन जी से बात
हो रही थी। मैंने किसी प्रसंग में बाबा नागार्जुन की पंक्ति का हवाला दिया – “क्या है दक्षिण, क्या है वाम;
जनता को रोटी से काम।” बात बाबा के हवाले से थी। एक चुभती खामोशी के बाद उन्होंने
कहा – यह प्रामाणिक पंक्ति नहीं है, कम-से-कम मैंने नहीं देखी है। जाहिर है, बातचीत
पटरी से उतर गई! वे बाबा के हवाले से खिन्न थे, मैं उनके नकार से अवसन्न। हम असहमताधिकार के सम्मान के साथ
अपने-अपने अप्रकट मनोविकार से ग्रस्त हो कर बातचीत से बाहर निकल आये।
जब से वैचारिक सक्रियता शुरू हुई तब से दक्षिण-वाम के
भेदाभेद की वैष्णवी व्याख्या सुनता आया हूँ। जिंदगी का असली सवाल रोटी है। रोटी
मिले तो सीधा-सादा बहुसंख्य आदमी सीधी राह पकड़ गृहस्थी की गाड़ी खींचने में जुता
रहता है − विशिष्ट जनों की बात और है। भूखे
पेट न भजन होती है, न जुगाली और न ही जुगलबंदी। बिना काम-काज का आदमी दाएँ-बाएँ
होता रहता है – हाँ कुछ लोग होते हैं जो अपने निरंतर दाएँ या बाएँ होने के दीर्घकालिक
भ्रम को बाहर-भीतर टिकाये रखने में कामयाब रहते हैं। आदमी आज काम-काज माँग रहा है, काम-काज! सुन
रहे हैं? आज से नहीं! सदियों से।
याद कीजिए रघुवीर सहाय की कुछ पंक्तियों को −
“मनुष्य
के कल्याण के लिए
/ पहले उसे इतना भूखा रखो कि वह और कुछ / सोच न
पाए / फिर उससे कहो कि तुम्हारी पहली जरूरत रोटी है/ जिसके लिए
वह गुलाम होना भी मंजूर कर लेगा ... (गुलामी 1972)” और यह भी, “कितना अच्छा था छायावादी / एक दुख लेकर वह एक गान देता था / कितना कुशल था प्रगतिवादी
/ हर दुख का करण वह पहचान लेता था / कितना महान
था गीतकार / जो दुख के मारे अपनी जान लेता था / कितना अकेला हूँ मैं इस समाज में / जहाँ मरता है सदा
एक और मतदाता (एक अधेड़ भारतीय आत्मा: आत्म
हत्या के विरूद्ध:67)।”
सुन
रहे हैं न?
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