शब्दों में अर्थ-भराव
लोक शास्त्र का द्वंद्व
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(संदर्भः मैला आँचल से)
लोक में संघर्ष का उत्साह टेक्स्ट में अपना अर्थ भरते हुए आगे
बढ़ता है। (ज्योतिषी जी) जोतखी जी समझाते हैं कि उनके मामा ने कहा था -
‘प्रातःकाल उठके देखते हैं कि गाँव-भर के लौंडे इसी
झंडा-पत्तखा लेकर ‘इनकिलास जिन्दाबाघ’ करते हुए गाँवों में घूम रहे हैं। मामा से
पूछा कि ‘मामा, क्या बात है?’ तो मामा
बोले कि गाँव के सभी लड़कों ने भोलटियरी में नाम लिखा लिया है। ‘इनकिलास जिन्दाबाघ’
का अर्थ है कि हम जिन्दा बाघ हैं।...जिन्दा’
(साभारः मैला आँचलः फणीश्वर नाथ “रेणु”)
इन्कलाब में लोक किस तरह अपना अर्थ भर रहा था! कथा प्रवाह की सहज स्वाभाविकता में यह
अर्थ-भराव आया है। भाषा विकास को समाज विकास से जोड़कर, राजनीतिक भाषा और गतिविधि
का अध्ययन करने के लिए उत्सुक विद्वानों को शब्दों में अर्थ-भराव की लोक-वृत्त्ति
के माध्यम से राजनीतिक आंदोलनों को समझने की दिशा में सोचना चाहिए। पता नहीं, यह
उन के काम का नहीं भी हो सकता है। यह शंका क्यों? इसलिए कि अध्ययन एक मानकीकरण को पुष्ट करने की प्रक्रिया
है और लोक-वृत्त्ति मानकों को ध्वस्त कर आगे बढ़ने की प्रक्रिया है। लोक और
शास्त्र का द्वंद्व तो चलता ही रहता है। इस द्वंद्व में अंततः लोक ही सिद्ध होता
है। ऐसा इसलिए कि शास्त्र सिर्फ शब्द-योग कर सकता है। लोक शब्द का अर्थ-रूढ़ करता
है। समाज-सतर्क अध्येता शब्द-अर्थ प्रक्रिया में अंध लोक रुझान से बचने की कोशिश
करते हुए योग-रूढ़ अर्थ को स्वीकारता है। समाज-सतर्क साहित्य भी यह काम करता है।
कानूनों के बनने की प्रक्रिया में भी इसका उपयोग होता हो या हो सकता हो, मुझे नहीं
मालूम।
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