संगत महिमा
हमारे यहाँ संगत
की बड़ी महिमा है। महिमा ऐसी कि कौआ हो जाये कोयल और बगुला बन जाये हंस! हंस को
अच्छा माना जाता है। क्यों? हंस में ऐसा क्या होता है? हंस
में नीर-क्षीर विवेक होता है — वह पानी और दूध को अलग-अलग करके दूध ग्रहण कर लेता
है। संतों ने तो कहा है कि पानी के विकार को छोड़कर दूध ग्रहण कर लेता है। असल में
हंस पानी के विकार को ही नहीं पानी को ही छोड़ देता है, वह भी विकार ग्रस्त बनाकर।
एक बात और है। बाबा जी कह रहे थे कि असली हंस को यह कला नहीं आती है कि वह अपनी इच्छा
से बगुला बन जाये। लेकिन बगुला से परमोट होकर बना हंस कला में पारंगत होता है — जब
तक चाहे हंस बना रहे, जब चाहे पलटकर बगुला बन जाये, फिर जब चाहे हंस बन जाये — वाह
रे जमाना। संगत में एक और पते की बात का पता चला। उन्होंने एक सज्जन के बारे में
बताया — उसे देखते हो, वह बगुला भगत है। अब यह बगुला भगत क्या होता है? बगुला
से जो हंस में परमोट होकर हंस बना होता है, उसमें ध्यान लगाने और भगत बनने का गुण
होता है। अपने इन्हीं गुणों के कारण इसे बगुला से हंस और हंस से बगुला में कायांतरण
और भावांतरण में इनकी सिद्धि होती है। बात यह ठहरी कि ऐसी सिद्धि से संपन्न को
बगुला भगत कहते हैं। यह भी पता चला कि ऐसे बगुला भगतों से सावधान रहने की जरूरत
होती है। इन्हें पहचानना मुश्किल है कोई कहाँ तक बचे बगुला भगत तादाद में बहुतायत
हैं। असली हंस अब मिलते कहाँ हैं जी! और बगुला भगत! इनकी तो भरमार है, चारों तरफ।
संगत का
प्रभाव हमारे यहाँ बहुत है। ईश्वरीय कृपा से किसी हारी-बीमारी में डॉक्टर से मिलना
हुआ तो पहली बार नहीं भी तो दूसरी बार के बाद तो डॉक्टर से मिलना बंद और संगत
शुरू। प्रभु कृपा से दो-चार भी संगत का, योग मिला तो मरीज को स्वास्थ्य लाभ हो या
न हो, उसके हाफ डाक्टर यानी अछिद्ध — जो सिद्ध नहीं हो पाता उसे अछिद्ध कहा जाता
है — डॉक्टर बनकर लौटना तो तय ही होता है। जिन भाग्यशालियों को यह सुयोग अनय
कारणों से निरंतर मिलता रहता है वे नीम हकीम बन जाते हैं। उनका एक छाप, यानी
ब्रांड भी होता है, इनर ब्रांड यानी, भीतर-भीतर सब जानते हैं लेकिन, सामने बोलते
नहीं हैं। ये झोला लेकर विचरण करें या बैग लेकर, लोग इन्हें झोला छाप डॉक्टर ही
मानते हैं। ये धीरे-धीरे या फिर इलाकायी स्थिति के अनुसार तेजी से, अपना कारोबार
पसार लेते हैं। इनका समाज में कामचलाऊ सम्मान भी होता है। इनका यह इनर ब्रांड बहुत
इस्क्लुसिव है, हालाँकि कारामाती कवियों ने इस इनर ब्रांड को झपटने की कम कोशिश
नहीं की है और वे झोला छाप कवियों के रूप में विख्यात हो रहे हैं — अब तो यदा-कदा
झोला छाप बहुविशेषज्ञतावाले भी जब-न-तब दिखने लगे हैं। इस छीना झपटी को रोका नहीं
जा सकता। क्योंकि लोक स्वीकृति भले हो, इस इनर ब्रांड के पेटेंटीकरण की सुविधा
नहीं है। झोला छाप डॉक्टरों की बढ़ती लोकोपयोगिता एवं तदनुसारी लोकप्रियता के कई
कारण हैं। यहाँ इन में से कुछ कारणों की ही चर्चा की जा सकती है। पहला तो यह कि
असली डॉक्टर के पास तुरत-फुरत में पहुँचना मुश्किल। दूसरा, किसी तरह पहुँच गये तो
महँगे जाँच का भागमभाग, महँगी दवाइयों का चक्कर। अधिकतर लोग, नमक रोटी का ही
ठीक-ठाक जुगाड़ नहीं कर पाते हैं — महँगे दवाइयों, महँगी दवाइयों का इंतजाम कठिन
ही होता है। असली डॉक्टर के पास तो अधिकांश मरीज तब पहुँचता है जब पानी नाक से
ऊपर, कई बार सिर के ऊपर चढ़ जाता है। यह पानी भी ऐसा कि जहाँ नीर-क्षीर विवेकवाली
हंसगिरी भी नहीं चलती है। अपटी खेत में जान गँवाने का विकल्प तो सदैव खुला ही रहता
है। इसलिए मनरेगी समाज में झोला छाप डॉक्टर की इतनी
इज्जत, इतनी महिमा बनी रहती है — इज्जत का मतलब होता है, इज ऑफ डुइंग बिजनेस,
कारोबार पसारने में आसानी! जिन अछिद्ध की इज्जत नहीं होती, वे सलाह देने का हुनर
हासिल कर लेते हैं। किसी हारी-बीमारी का पता चलते ही ये अपने बहुमूल्य सुझाव के
साथ प्रकट होते हैं। इनके पास कैंसर से लेकर उकासी तक से बचने का कारगर सुझाव होता
है।
इसी तरह प्रभु
कृपा से जिन्हें दो-चार बार वकीलों से संगत का मौका मिल जाये तो फिर उन्हें अछिद्ध
वकील बन जाने से कौन रोक सकता है। अछिद्धों की बढ़ती लोकोपयोगिता और लोकप्रियता के
कई अन्य उदाहरण आस-पास मिल जायेंगे — यथा, अछिद्ध फासिस्ट, अछिद्ध कम्युनिस्ट,
अछिद्ध कमुनल, अछिद्ध सेकुलर, अछिद्ध डेमोक्रेट आदि। खोज लीजिएगा, निराशा हाथ नहीं
लगेगी — गारंटी है। बहरहाल, एक और बात कहे बिना यह प्रसंग अधूरा रह जायेगा। तब से यह
जो बाँचे जा रहा हूँ, यह भी संगत का ही प्रभाव है। आजकल परसाई जी से ही नहीं, हरि मोहन
झा, खट्टर बाबू से भी संगत करने का सुयोग बना हुआ है — इस तरह से बाँचते चले जाने
के लिए कोई फेक डिग्री या असली लाइसेंस हासिल नहीं की है, मैंने। आगे, आप खुद ही
समझदार हैं, इशारा ही काफी है।
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