काठ का उल्लू
वे गुस्से में थे। उनके सुपुत्र किसी भी नैतिक मामले में उनके किसी भी निर्देश की अवहेलना पर उतारू रहते थे। हालाँकि,
कार्योत्तर के आनंद में बढ़-चढ़कर मग्न होते थे। कार्यपूर्व के जोखिम और संशय की संलग्न
पीड़ा से परेशान रहते थे — बर्दाश्त नहीं कर पाते थे। यह उनकी स्थाई मनोवृत्ति बन
गई थी। यानी शरीफ आदमी के सभी लक्षण विद्यमान थे। उनके जाननेवाले कहते हैं, वे
पहले ऐसे करमठस्सू नहीं थे। ठान लेने पर बड़े-से-बड़े जोखिम उठाने से कभी चूकते
नहीं थे। अति वृद्ध लोग आगे यह भी बताते नहीं थकते हैं कि उनके पिता भी कम कुपित
नहीं होते थे। खैर उस दिन वे काफी गुस्से में थे और निजता आदि के अधिकार बगैरह के
प्रति सम्मान के भाव को बचाने का कोई ख्याल किये बिना, अपने पुत्र को काठ का उल्लू
घोषित कर रहे थे। उनके बाकी साथी उनके क्रोध शमन में लगे थे, लेकिन किंकर नाम से
जाने जानेवाले उनके एक साथी खामोश थे। उनकी खामोशी पर किसी का ध्यान नहीं जा रहा
था।
किंकर बाबू की श्रीमती जी ने अड़ोस-पड़ोस
में यह बात फैला दी थी कि किंकर बाबू के माता पिता ने उनके साथ न्याय नहीं किया।
बेटे का नाम किंकर रख दिया और मुझे ब्याह दिया। मेरे दादा तो भोले थे समझ नहीं
पाये। मैं भी कहाँ समझ पाई थी। करम फूटी थी। कोई क्या समझता — करम का फेर। इनका
चाल चरित्तर तो बाद में प्रकट हुआ। एक दिन पंडा जी के आने पर पता चला कि नाम दोष
है। जब नाम ही किंकर है तो आदमी क्या करे! उस दिन से किंकर बाबू पत्नी की नजर में
दया के पात्र बने हुए हैं। उनका सारा रोष अब सास-ससूर के अन्याय पर है। घर में
पत्नी के रोष से तो उनका बचाव हो गाया। लेकिन बाहर के लोग हर बात पर कहने लगे —
अरे वो क्या करेगा, वो तो है ही किंकर। इसलिए, उस दिन जब सब लोग सोत्ती बाबू के
क्रोध शमन के लिए अपने-अपने अंदाज में सक्रिय थे, किंकर बाबू के निष्क्रिय होने पर
किसी का ध्यान नहीं गया।
किंकर बाबू निष्क्रिय रहते हैं, लेकिन
ज्ञान की बात सोचते रहते हैं। उनके साथी जानते हैं किंकर बाबू चाहे जितने निष्क्रिय
रहते हों, ज्ञान वचन में उनका कोई जोड़ इलाके में नहीं है। वे जानते थे लेकिन इस
गुण को किंकर बाबू की सक्रियता मानने को तैयार नहीं थे। इस न मानने पर अचर्चित
सहमति थी। जब सोत्ती बाबू थोड़ा शांत हुए तो किंकर बाबू बोल उठे — असल में काठ बना
का एक यंत्र होता है। खेत की सिंचाई के समय पानी के प्रवाह को अपने खेत की तरफ
करने के लिए इस यंत्र को चतुर किसान सीधा कर लिया करता है। इस यंत्र को उल्लू कहते
हैं — उलीचनेवाला। काठ का बना होता है, इसलिए काठ का उल्लू। असल उल्लू भी उलीचने
में दक्षता के कारण धन देवी का वाहन प्रसिद्ध है — अंधेरे की आपदा में देखने में,
दक्ष, उजाले में उल्लू बने रहकर बेवकूफ का पर्याय बनने में सफल।
किंकर बाबू समझने में कोई भांगठ नहीं रहा —
सोत्ती कह रहा है, अपने बेटा को काठ का उल्लू बनाकर मैं अपना उल्लू सीधा करता हूँ।
किंकरवा बदनाम कर रहा है। सोत्ती बाबू उठे और चल दिये — संकल्प यह कि अब वे कभी
अपने बेटे को काठ का उल्लू नहीं कहेंगे।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें