‘अ से लेकर ज्ञ तक’!
संतोष में सुख है,
और मैं सुखदास!
———
कल ही की बात है। उसकी मुलाकात मुझ से हो
गई। मैं जरा आराम की ही मनःस्थिति में था। सोचा हजामत करवा लूँ। हजामत के मामले
में शुरू से ही मैं दिन बगैरह का परहेजी नहीं हूँ। हालाँकि, माँ के रहते उसकी
भावनाओं का ख्याल रखना पड़ता था। किसी वर्जित दिन हजामत करवाने से वह अगली हजामत
के दिन तक नाना-नाना तरह की आशंकाओं से घिरी रहती थी, यह सब मुझे पत्नी के मार्फत
पता चलता था कि माँ किस चिंता में पड़ी रहती है। उसके नहीं रहने पर कई तरह के दुख
हैं, लेकिन इस तरह की कई वर्जनाओं से मुक्त होना बुरा भी नहीं लगता था। आज के बच्चे
तो इस तरह की वर्जनाओं से सहज ही मुक्त हैं। अच्छा ही है।
मैं हजामत की लाइन में अपनी बारी के
इंतजार में माथा नवाये अखबार देख रहा था। अब अखबार को भी पढ़ने का नहीं देखने का
रिवाज है। यों मैं अखबार पढ़ने के मामले में ‘अ से लेकर ज्ञ तक’ पढ़ने का आदी कभी
नहीं रहा। इन दिनों तो मौका मिलने पर ही पढ़ना होता है। वह भी मैं, दूसरे पेज से
पढ़ना शुरू करता हूँ। छोटे-छोटे शीर्षकों में ही कोई खबर रहती है तो रहती है, बाकी
तो सभी जानते हैं। समाचार रोपनी अब कोई गुप्त बात तो है नहीं! हालाँकि, यहाँ के
अधवयस और ज्येष्ठ नागरिकों में अखबार पढ़ने की लत मेरे पिता की ही तरह बनी हुई है।
कानून जो कहे, मैं बूड़े लोगों को वरिष्ठ नहीं ज्येष्ठ नागरिक ही कहना उचित मानता
हूँ। दफ्तर में कई लोगों के बेटी-बेटा के उम्र के नौजवान भी उनके सीनियर कहलाते
हैं और ठीक ही कहलाते हैं। वरिष्ठ कहलाने की लालसा लेखकों में भी बहुत होती है।
कलम घसीटते एक उम्र पार करने पड़ वरिष्ठता का दावा बनने लगता है, जबकि वे ज्येष्ठ
लेखक होते हैं। ज्येष्ठ को जेठ कहा जाए तो भी इस में कोई हेठ नहीं है। वरिष्ठता
में गुणवत्ता समाहित रहती है, ज्येष्ठ या जेठ में सिर्फ उम्र का हिसाब रहता है।
आते ही उसने कहा — अंकल आप भी अखबार पढ़ते
हैं?
—
देख लेता हूँ,
कभी-कभार। क्यों? इसमें
कोई बुराई है!
—
हमलोग अब अखबार
नहीं पढ़ते हैं। उसमें हमारे काम का कुछ भी नहीं रहता है। पहले रिक्तियों की सूचना
रहा करती थी। अब तो कुछ भी रिक्त नहीं है। सब कुछ भरा-भरा है। कितना अच्छा है न!
—
क्या हरा-भरा है?
—
अंकल! आपने ठीक
से सुना नहीं! मैं ने हरा-भरा नहीं, भरा-भरा कहा! आप हरा-भरा और भरा-भरा का अंतर
जानते हैं मुझे यकीन है।
—
तुम तो मुझे
जानते भी नहीं, फिर भी यकीन है?
—
जानने की छोड़िये।
आजकल यह कह पाना मुश्किल है कि कौन जानता है, कौन नहीं जानता है। मैं पके फेसबुक
पोस्ट पढ़ता हूँ।
—
ओह! नाम क्या है?
—
नाम नहीं
बताऊँगा। अच्छा लगता है, कभी-कभी बहुत अच्छा लगता है, लेकिन कभी कमेंट या लाइक
नहीं करता।
—
क्यों! जब अच्छा
लगता है, तो लाइक करना चाहिए। कमेंट करना तो और अच्छी बात है। लेखक को बल मिलता
है।
—
आप तो भाषा में
माहिर हैं। लेखक क्यों कहते हैं, पोस्ट करने के लिए लिखनेवाला तो पोस्टक हुआ न! एक बार किया था। लेकिन आप तो पीछे ही पड़ जाते
हैं। और हाँ, मेरी आइडी फेक है।
—
आइडी फेक है? ओह! अच्छा
कोई बात नहीं। आजकल तो फेक का ही जमाना है।
—
मैं आप को एक बात
बताना चाहता था, लेकिन कमेंट करके नहीं, न मैसेज करके। बात यह है कि आप बहुत बड़ा-बड़
पोस्ट करते हैं। कौन पढ़ता है, इतना बड़ा-बड़ा पोस्ट? माना आप
बहुत मेहनत करते हैं, घर में भी लोग बात कहते होंगे। रात-दिन लगे रहते हैं। जो
लाइक करता है, वह भी नहीं पढ़ता है पूरा। कमेंट देखकर लगता है कि कमेंट करनेवाला
भी पूरा नहीं पढ़ता है। प किसका भला करते हैं! किसी का नहीं। बस, अपना समय बर्बाद
करते हैं। मैं खुद कई बार आपके वॉल पर जाने की सोचता हूँ और बहक कर किसी रील,
वीडियो में उलझकर रह जाता हूँ। आपकी मिहनत को बहते देखकर कहना था। मैं खुद साहित्य
का रोजी हीन छात्र हूँ। असली आइडी से पोस्ट करता था, साहित्यिक। सब बेकार!
अभी न जाने और क्या-क्या कहता वह, लेकिन
मेरी लाइन आ गई। मैं अपने को लेखक समझता आ रहा हूँ, सालों से। इस बार ऐसी हजामत
बनी कि लेखक से पोस्टक बनकर लौटा हूँ। मैंने सोचा और नहीं लिखूंगा — लंबा-लंबा
पोस्ट! मगर लत का क्या करूँ! संतोष के लिए इतना ही काफी है कि लोग लाइक कमेंट भले
न करते हों, लेकिन पढ़ जरूर लेते होंगे — ‘अ से लेकर ज्ञ तक’। संतोष में सुख है, और
मैं सुखदास!
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें