राहुल गाँधी : मुहब्बत की दुकान


राहुल गाँधी का पारिवारिक नेपथ्य 1

राहुल गाँधी के परिवारवाद का मतलब 2

राहुल गाँधी की गतिमति और राजनीतिक कार्यविधि 3

राह में रोड़ा, काँटा, और फूल 4

राहुल गाँधी : मुहब्बत की दुकान

इस समय भारत के राजनीतिक परिसर में हलचल को समझना बहुत दिलचस्प है। यह सच है कि राहुल गाँधी अब भारतीय राजनीति के समकाल में राजनीतिक गतिविधि के केंद्र बिंदु बन गये हैं। इस समय की राजनीति को समझने के लिए राहुल गाँधी की राजनीति को समझना निहायत जरूरी है। प्रारंभ में ही एक बात कहके रखना प्रासंगिक है। जीवन में दुहराव बहुत होता है, लेकिन दुहराव कभी हू-ब-हू नहीं होता है। इतिहास में भी दुहराव होता है, हू-ब-हू नहीं होता है। लोकलुभावन की हिटलरी राजनीति के अनैतिक चेहरे का दुहराव हू-ब-हू हिटलर जैसा नहीं हुआ। गाँधीवाद की राजनीति के नैतिक चेहरे का दुहराव भी हू-ब-हू गाँधी जैसा नहीं हो रहा है। पहले के संदर्भ में पहले कई लेख लिखा था। जिसमें देश में जनादेश का संदेश, भारत में महाभारत, अपने वतन में पराए, नागरिक जमात का रास्ता आदि और कई कविताएँ लिखा था और ये सभी लेख जनसत्ता में समय-समय पर छपे भी थे। इस लिखने और छपने की चर्चा आत्म विवरण के लिए नहीं बल्कि सिर्फ इस लेख को तैयार करने के औचित्य और इसकी अनु क्रमिकता को संदर्भित करने के लिए की है। स्वतः स्पष्ट कारणों से, इस समय किसी अखबार के माध्यम से इस लेख को आप तक पहुँचाने की कोई प्रासंगिकता नहीं है। इसलिए व्यक्तिगत मेल पर इसे भेजना छोड़कर, कोई अन्य उपाय नहीं है। ठीक लगे तो कृपया, इसे देख  लें; न लगे तो इसकी अनदेखी करें।

राहुल गाँधी का पारिवारिक नेपथ्य 

हम भारतीय परिप्रेक्ष्य का संदर्भ लेते हैं। भारत में जाति, कुल, गोत्र, विश, ग्राम पहचान की बुनियाद है, ध्यान रहे इसमें राष्ट्र नहीं है। किसी अवहेलना के कारण नहीं, बल्कि इसलिए कि एक तरह से विश्वबोध का हिस्सा रहा है। इनमें से जाति और कुल समकालीन राजनीति में जीवंत  और प्रभावी हैं। कुल में विकसित परिवार अपने को पहले कुल और तदंतर जाति का प्रतिनिधि बताते हुए जाति को अपने अंदर समेट लेने की प्रवृत्ति रखता है — इसका सामाजिक रूप खाप पंचायत है और लोकतांत्रिक रूप परिवारवाद है। चूँकि, इस लेख के केंद्र में राहुल गाँधी हैं इसलिए, राहुल गाँधी के संदर्भ में परिवारवाद की चर्चा करेंगे।

साधारणतः लोग अपने पितामह से पहले के पितृ-कुल या मातृ-कुल की वंशावली के नामों की अनुक्रमिकता से  परिचित नहीं होते हैं; अन्य लोग क्या परिचित होंगे! राहुल गाँधी के मातृ-कुल और पितृ-कुल की समग्रता, यानी मिलीजुली श्रृँखला, को देखें तो  वे खुद, उनके माता पिता, उनकी नानी, नानी के माता पिता, नाना के पिता के नामों से लोग परिचित हैं; देश के लोग ही नहीं, विदेश के लोग भी। उदाहरण के लिए भारत के ऐसे कुछ गिने-चुने परिवार, जिन में कम-से-कम तीन पीढ़ी परिदृश्य में है या रहा है, का उल्लेख किया जा सकता है; ज्ञान और रस साहित्य में देखें तो रवीन्द्रनाथ ठाकुर, अमर्त्य कुमार सेन, फिल्म में संदीप रे, अभिषेक बच्चन आदि का। इन में सबसे लंबी वंश श्रृँखला राहुल गाँधी की है। लोग उनके वंशजों को जानते हैं इसलिए उनके काम से उनको जोड़कर देखने की कोशिश करते हैं। यह कहना बताना आसान है कि उनकी चार पीढ़ी ऊपर के लोगों ने क्या किया है। आप निंदा करना चाहते हैं तो उनकी चार पीढ़ी ऊपर के लोगों के किये को अपने हिसाब से चुनकर उन पर निंदात्मक या प्रशंसात्मक चर्चा, बहस, कुत्सा आदि कर सकते हैं, इतना ही नहीं इसके लिए राहुल गाँधी के ऊपर नैतिक जवाबदेही डालने की या वंशानुगत श्रेय देने की कोशिश कर सकते हैं, क्योंकि उन्हें आप भी जानते हैं और लोग भी जानते हैं — राहुल गाँधी का नाथ और पगहा दोनों आम जानकारी, लोक-दीठि, में है। जिनका कोई नाथ-पगहा नहीं है, वे न तो नाथ-पगहा की ताकत को जानते हैं, न बोझ को जानते हैं। कुल, परिवार की लोक-श्रृँखला कैसे बनती है! यह तब बनती है जब अगली पीढ़ी का सदस्य पिछली पीढ़ी के सदस्यों को उसी वैचारिक और कार्य श्रृँखला में अतिक्रमित करता हुआ लोक-दीठि में अपने लिए स्थान बनाने में कामयाब रहता है। राहुल गाँधी अपनी पीढ़ी के सदस्यों को उनकी वैचारिक और कार्य श्रृँखला में अतिक्रमित करते हुए लोक-दीठि में अपने लिए स्थान बनाने में अब कामयाब हो रहे हैं — सोशियो-पॉलिटिकल कैपिटल बन और बढ़ रहा है । 

राहुल गाँधी के परिवारवाद का मतलब

वाद कहने का आशय विचार और विचारधारा होता है। जब विचार कहते हैं, तो आशय उनका अपना विचार होता है। उनके परिवार के सदस्यों के विचारों के सामान्य पक्ष (कॉमन फैक्टर) में, विभिन्न स्रोतों से बने उनके खुद के विचार के मूलांश के जुड़ने से उनकी विचारधारा बनती है। यही हो सकता है उनका परिवारवाद। कम-से-कम जवाहर लाल नेहरू, इंदिरा गाँधी, राजीव गाँधी के विचारों का सामान्य पक्ष (कॉमन फैक्टर) है — धर्म-निरपेक्ष, लोकतंत्रीय, लोक-कल्याणाभिमुखी राज्य के प्रति अटूट और लचकदार राजनीतिक और वैयक्तिक निष्ठा। इसमें जाहिर तौर पर दक्षिणपंथ विरोधी वामपंथी रुझान से बनी अंतर्वस्तु का सार-स्वरूप (एसंसियल्स ऑफ कंटेंट्स एंड फॉर्म्स) अनिवार्यतः शामिल रहा है। वामपंथी रुझान होने से कोई वामपंथी या कम्युनिस्ट नहीं हो जाता, हल्के-फुल्के मिजाज में कहें तो वामपंथी पार्टियों के सदस्य ही जब पूरी तरह से वामपंथी या कम्युनिस्ट नहीं हो सके तो ये क्या होते। खैर,  कहना यह है कि जवाहर लाल नेहरू, इंदिरा गाँधी, राजीव गाँधी, सोनिया गाँधी सब में वामपंथी रुझान रहा है, लेकिन ये वामपंथी नहीं रहे हैं। राहुल गाँधी में वामपंथी रुझान हैं, लेकिन ये वामपंथी नहीं हैं। प्रसंगवश, इस तरह का वामपंथी रुझान तो घोषित पूँजीवाद और पूँजीवादी व्यवस्था में भी रहता आया था, भले ही रणनीतिक तौर पर। यह रणनीति वहाँ आज भी काम कर रही है। भारत जैसे निर्माणाधीन पूँजीवादी राज्य-व्यवस्था या आधी-अधूरी पूँजीवादी व्यवस्था में यह रणनीति स्थगित नहीं तो शिथिल जरूर हो गई। लाभार्थी नीतियों के नीतिगत फैसलों या रणनीतिक कार्यान्वयन को देखते हुए पूरी तरह से स्थगित नहीं कह सकते हैं। राज्य की लोक-कल्याण नीति और लाभार्थी नीति में रुझान का अंतर है। लोक-कल्याण नीति में राज्य का वामपंथी और लाभार्थी नीति में राज्य का दक्षिणपंथी रुझान होता है। यह रुझान होने मात्र से राज्य न तो वामपंथी हो जाता है, न ही दक्षिणपंथी हो जाता है। शोषण तो निवार्य है, सवाल पोषण के साथ शोषण या पोषण विहीन शोषण। विकसित पूँजीवाद की राज्य व्यवस्था पोषण के साथ शोषण की नीति पर काम करती है। अर्द्ध विकसित या अधूरे पूँजीवाद की राज्य व्यवस्था पोषण विहीन शोषण नीति पर चलती है। सामग्रिक शिक्षा, क्षमता, दक्षता और आधिकारिकता के अभाव-जनित माहौल में, अधूरे पूँजीवाद की राज्य व्यवस्था तरह-तरह के कारनामों और झूठे लक्ष्यों, लोकलुभावन प्रतिश्रुतियों से पोषण विहीनता से बनी खाइयों को भरने या प्राणांतक विषमताओं को कम करने की — सीमित अर्थ में कामयाब और वास्तविक अर्थ में नाकाम — कोशिशें करती रहती है। इस कोशिश से निकलती है लाभार्थी नीति। अधूरे , पूँजीवाद की राज्य व्यवस्था में साँठ-गाँठवाली पूँजीवादी गतिविधि और उस से उपजे भ्रष्टाचार का निर्लज्ज बोलबाला हो जाता है; असल में भ्रष्टाचार का मूल उद्गम पूँजीवाद और लोकतंत्र के अंतर्विरोधों के मध्य होता है। कहना न होगा, भारत में इस समय अधूरे पूँजीवाद की राज्य व्यवस्था काम कर रही है। इस बात को ध्यान में रखते हुए राहुल गाँधी की वैचारिकी, विचारधारा, गतिमति और राजनीतिक कार्यविधि और इसके संभावित परिपक्व परिणाम को समझना होगा। 

राहुल गाँधी की गतिमति और राजनीतिक कार्यविधि

इस समय भारत उत्पीड़न (पर्सिक्यूसन) के दौर से गुजर रहा है। इस दौर में लोगों को खैरात की नहीं वास्तविक राहत की जरूरत है। इसके लिए अधूरे पूँजीवाद की राज्य व्यवस्था में दक्षिणपंथी रुझान की खैरातवाली व्यवस्था को विस्थापित (डिलीट और रिमूव) कर वास्तविक राहतवाली वामपंथी रुझान को डालना और संस्थापित (इनसर्ट और इनस्टॉल) करना एक ऐतिहासिक, राजनीतिक और सामाजिक जरूरत है। राहत और खैरात का अंतर स्वतः स्पष्ट है, इसके बाद ही सामग्रिक शिक्षा, क्षमता, दक्षता और आधिकारिकता के सवाल को हल करने माहौल बन सकता है। सा माहौल बनने के बाद ही शोषण के लिए ही सही, पोषण की शर्त को पूरा करनेवाले पूँजीवाद के विकास का दौर आ सकता है। इस दौर के आने के प्रति उत्सुक रुचि अंतर्राष्ट्रीय पूँजी प्रभुओं की भी हो सकती है। राहुल गाँधी वामपंथी नहीं हैं। उन में निश्चित और परिभाषित वामपंथी रुझान है। राहुल गाँधी सुशिक्षित, सुपोषित, सुपरिभाषित और मानवानुकूल रैय्यतदारी के लिए सुनिश्चित राहतदारी व्यवस्था के आगमन की तैयारी में संघर्षशील हैं। राहुल गाँधी जानते हैं, इस समय क्रांति की राह पर चलने की नहीं, सुनिश्चित राहतदारी को हासिल करने की राह पर चलना जरूरी है। दुहराव  शर्त पर भी कहना जरूरी है कि इस समय भारत में लड़ाई दक्षिणपंथ और वामपंथ के बीच नहीं, दक्षिणपंथी और वामपंथी रुझानों के बीच है। इससे इतर और अधिक की गुंजाइशें भारत के संवैधानिक लोकतंत्र में नहीं है। इससे अधिक इतर और अधिक की तरफ लपकना भारतीय संविधान के अतिक्रमण की तरफ ले जायेगा। हालाँकि, इस लड़ाई में उनके कई राजनीतिक संगी-सहयोगियों में संविधान के अतिक्रमण की लुकी-छिपी प्रवणता के होने से इनकार नहीं किया जा सकता है, लेकिन वे निष्ठापूर्वक जानते हैं कि इस संविधान का परिरक्षण ही उनकी वैचारिकी और विचारधारा की ताकत का असली जन-स्रोत है। यह एक चुनाव जीतने से कहीं अधिक महत्त्वपूर्ण है और प्रधानमंत्री बनने से अधिक महत्त्वाकांक्षी है। वे निश्चित ही समझते होंगे, इस महत्त्वाकांक्षा को प्रधानमंत्री बनकर नहीं, बल्कि बनवाकर ही पूरा किया जा सकता है।  इस समझ से वे आगे बढ़ रहे हैं। कहाँ तक बढ़ पायेंगे यह तो वक्त बतायेगा।

राह में रोड़ा, काँटा, और फूल 

संघर्ष सामने है। आसान नहीं कठिन संघर्ष है। इस कठिन संघर्ष को सिर्फ चुनावी मुहावरों से ही नहीं समझा जा सकेगा। संक्रमण की पीड़ा से गुजरते हुए देश को समझना जरूरी है। धर्म के आधार पर, समुदायों के आधार पर, क्षेत्रीयता के आधार पर, भाषा के आधार पर यानी विविधता के हर आधार पर विभाजन की तीव्र कसमसाहट है। विखंडन की उग्र आवाज है। राजनीति की चरमराहट की निरंतर तेज होती आवाजों के बीच उत्तेजना और युयुत्सा का माहौल है — मणिपुर ही नहीं, नूँह ही नहीं चारों तरफ हाहाकार का हर किसी की इच्छा होती है युद्ध के मैदान में आमने-सामने खड़ी सेनाओं की स्थिति क्या है! ऐसे घरेलू संघर्ष के समय भारत के लोगों को महाभारत की याद आती है। गीता की याद आती है। गीता में संजय उद्विग्न राज्य-संप्रभु धृतराष्ट्र को बताते हैं :

‘अपर्याप्तं तदस्माकं बलं भीष्माभिरक्षितम्⁠। 

पर्याप्तं त्विदमेतेषां बलं भीमाभिरक्षितम्⁠।⁠।’ 

संस्कृत में पर्याप्त का अर्थ है, न कम न ज्यादा, जरूरत भर यानी अंग्रेजी का एनफ और अपर्याप्त का अर्थ है जरूरत से भी ज्यादा (मोर देन एनफ)। संजय राज्य प्रमुख को खुफिया सूचना (इंटिजिलेंस नोट्स) — भीष्म पितामह की शक्ति और समर्थन से हमारी सेना सुरक्षित है। उनकी सेना को जरूरत भर भीम के साथ और शक्ति पर भरोसा है। यह खुफिया सूचना यथा-तथ्य थी इस में कोई त्रुटि (एरर) थी यह अलग से विवेचनीय है। यहाँ इतना भर बताना है कि जब युयुत्स शक्तियाँ आमने-सामने हो तो राज्य-संप्रभु को इस तरह की रिपोर्ट की जरूरत होती है। मिथकीय रूपकों की सीमा से बाहर निकलकर सोचना होगा। संविधान रक्षित भारत में जनगण ही राज्य-संप्रभु है। राज्य-संप्रभु को रिपोर्ट देने का काम मीडिया का होता है। संजय-सिंड्रोमग्रस्त मीडिया का हाल तो साफ-साफ दिख रहा है।

क्षेत्रीय अस्मिता, संघीय ढाँचा के सम्मान आदि की कूटनीतिक ओट में निजी महत्त्वाकांक्षाओं और अपने एकल परिवार के हित-साधन के प्रयास को सामुदायिक हितों को अदा करने, लोकतंत्र के मूल्यों की रक्षा करने का प्रयास बताया जो रहा है — इस क्रम में सामुदायिक हित और लोकतंत्रीय मूल्य दोनों के साथ छल हो रहा है। इसमें सहायक विषाक्त हितैषिता से बने औजारों के रहस्यों को उजागर करने में किसी की दिलचस्पी नहीं है। क्षेत्रीय, आंचलिक दलों में यह साफ-साफ दिख जाता है। राष्ट्रीय दलों के अंदर सक्रिय विषाक्त हितैषिता को सहज ही लक्षित कर पाना और उजागर करना थोड़ा मुश्किल होता है। ऐसी विषाक्त हितैषिता से मुक्त राष्ट्रीय नेता भी नहीं होते हैं। अगर हों भी तो ऐसे राष्ट्रीय नेताओं के परिमार्जक कदम (करेक्टिव मेजर्स) से राष्ट्रीय दलों के टूटकर क्षेत्रीय दल बन जाते हैं। उदाहरण कई हैं। उदाहरणों पर अभी बात करना जरूरी नहीं है। उदाहरणों पर चर्चा से आरोप-प्रत्यारोप में फँसकर रह जाने और मुख्य मुद्दों से विचलन और भटकाव की भरपूर आशंकाएँ हैं। यह स्थिति राहुल गाँधी के रास्ते का सब-से बड़ा रोड़ा है। यह रोड़ा उनके रास्ते का अनुल्लंघ्य पहाड़ होगा यदि उन में सत्ता की कोई निजी महत्त्वाकांक्षा हो। चूँकि इस समय मुझे राहुल गाँधी के अंदर सत्ता की ऐसी कोई निजी महत्त्वाकांक्षा नहीं दिख रही है, इसलिए उम्मीद है कि वे इस रोड़ा को पार कर सकते हैं। लोकलुभावन राजनीति के बोए काँटों की चुभन को बरदाश्त करने और मतदाता समूहों लोक लुभावन फाँस से बाहर ले आने की बड़ी चुनौती है। लोक लुभावन राजनीति के वायदे निष्फल होने के लिए बाध्य होते हैं। लोक लुभावन राजनीति के निष्फल वायदों और साँठ-गाँठ के नतीजों को बौद्धिक, भावनात्मक, और राजनीतिक स्तर पर उजागर करके मतदाता समूहों लोक लुभावन फाँस से बाहर निकाला जा सकता है। यहाँ मीडिया की जरूरत हो सकती है। संजय-सिंड्रोमग्रस्त मीडिया से कोई उम्मीद बेकार है। फिर विकल्प क्या है? विकल्प है। पहला विकल्प है समानांतर मीडिया जिसमें सोशल मीडिया समेत संवाद और सूचना के कई घटक हो सकते हैं। दूसरा विकल्प है मीडिया के सिंड्रोम को तोड़ना। मुख्य धारा की मीडिया पूँजी-हितों से न सिर्फ परिचालित है बल्कि उससे बँधी हुई भी है। पूँजी प्रभुओं के मन में यह बात बैठा देना कि साधारण जन के पोषण सहित शोषण, अर्थात राज्य संप्रभु के पोषण सहित शोषण में ही वास्तविक पूँजी हित संभव और सुरक्षित है। पूँजी प्रभु जानते हैं कि अपेक्षाकृत टिकाऊ शांति एवं निरंतर जारी कानून व्यवस्था की निरंध्र स्थिति पूँजी हित के लिए मुफीद होती है। विकसित पूँजीवाद की राज्य व्यवस्था के कई उदाहरण उनके सामने हैं। कॉरपोरेट के सामाजिक दायित्व की संकल्पना के सामने आने और लागू होने का इतिहास भूगोल उनके सामने होगा। पूँजी के आवारा चरित्र का दौर लगभग समाप्ति के कगार पर है और पूँजी के राष्ट्रीय चरित्र का दौर फिर लौटनेवाला है। ऐसे में अपेक्षाकृत टिकाऊ शांति एवं निरंतर जारी कानून व्यवस्था की निरंध्र स्थिति के लिए अन्यत्र भटकने से बेहतर अपने देश में ऐसी स्थिति के बहाल होने पर ध्यान केंद्रित करने का रास्ता ही निरापद है। अपेक्षाकृत टिकाऊ शांति एवं निरंतर जारी कानून व्यवस्था की निरंध्र स्थिति  सच्चा लोकतंत्र इस रूप में पूँजीवाद का प्राण कवच है। अविकसित फूल सूखकर काँटा बन जाता है। काँटा से बचना हो फूल के विकास के पर्यावरण, पारिस्थितिकी, इको सिस्टम को दुरुस्त करना होगा। यह हो गया तो मुहब्बत की दुकान में रौनक आ जायेगी — फूल के बिना मुहब्बत की कोई भी कहानी ठीक से सँवर नहीं पाती है। राहुल गाँधी यह कर सकते हैं। महात्मा गाँधी तो इतिहास पुरुष, प्रणम्य और अतुलनीय हैं। फिर भी राहुल गाँधी यह कर सकते हैं, वे भारतीय राजनीति की ऐसी अमोल संभावना हैं जिसका मनोभाव और जीवन शैली प्रसिद्ध अर्थशास्त्री ज्याँ द्रेज तात्त्विक आकर्षण का आदर करता है। 


जानता हूँ, मुझ में ज्ञान और अनुभव के अभाव के कारण कई त्रुटियाँ हैं, उपयोगी न हो तो कृपया, इसकी अनदेखी करें।



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