बाघ और बानर के अश्लील विकल्पों के बीच
जब व्यवस्था बाजार के हवाले हो जाये
और बाजार, बाजीगर का अखाड़ा
तब आदमी बाघ और बानर के अश्लील विकल्पों के बीच
औंधे मुँह गिरा होता है
चारों ओर अपनी समस्त विद्रूपताओं के साथ
उगने लगता है जंगल
जंगल जो दीखता नहीं है मगर होता है
इतिहास अपनी मौत के एलान पर
पगलाये कुत्ते की तरह रोता है
सभ्यता और संस्कृति फटी कमीज की तरह
अंतत: एक दिन खूँटी से भी गायब हो जाती है
जिसका कुर्त्ता जितना झक्क होता है
मुँह चुराती नैतिकता के संविधान में छिपे रहने पर
उसे उतना ही शक होता है
आस्था का आधार, जब बन जाता है बाजार
आदमी के दिमाग में न-दर्शन बचता है
न-दल, न-संवेदना बचती है, न-सोचने का बल
शब्द मरने लग जाते हैं, बिखरने लग जाते हैं अर्थ
और सूखे हुए घाव के बड़े निशान
ताजा खरोंचों की करुण डोर पकड़
रक्त-संचार की जड़ में टूटे हुए जहाज की तरह,
बैठने लग जाते हैं
लाभ और लोभ तोष और क्षोभ
बटखरे की तरह इस्तेमाल होने लग जाते हैं
परदु:ख-कातरता धर्म-काँटा की नोक पर
आदिमजात के अंतिम अश्रुकण की तरह
पथरायी रह जाती है
2 टिप्पणियां:
" सपना और साहस
जब रात का सन्नाटा तारी हो
पेट भरा हो
तब अपने भीतर के शोर और सवाल को
होशियार लोग
पाँव से निकाले गये मौजे की तरह
अपने कीमती जूते में घुसेड़ कर
किसी बहुराष्ट्रीय सपने में घुसने की तैयारी करते हैं"
कहने का अभिप्राय है कि बहुराष्ट्रीय स्वप्नों में पलने वाली दुनिया को अंतर्द्वद्व से नहीं गुजरना पड़ता है?
'सभ्यता के कायदे से जूता पहनकर
सपनों में टहलना गुनाह है'
अर्थात इस अंतर्द्वंद्व रहित जीवन को जीना मानवता के बड़े सपने के प्रति द्रोह है?
'सपनों को शोर पसंद नहीं
सपनों को सवाल पसंद नहीं'
बहुराष्ट्रीय सपनों को प्रश्न पसंद नहीं...चुनौती पसंद नहीं...कभी है भी तो 'अविरुद्धों में असामंजस्य' की भांति?
और निष्कर्ष की पंक्तियाँ तो बेहतरीन हैं ही-
"सपना विहीन जीवन व्यर्थ है
और साहस विहीन सपना ऐय्याशी"
मुझे सही अर्थ की ओर आप ही ले चलिए. साग्रह.
बहुराष्ट्रीय चुनौती/प्रश्न रहित सपने मानवता के बड़े सपने के साथ द्रोह- है न इन पंक्तियों में?
"सभ्यता के कायदे से जूता पहनकर
सपनों में टहलना गुनाह है"
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