प्रफुल्ल कोलख्यान Prafulla Kolkhyan
मेरे हमराज! रंग और गंध में अब वह असर कहाँ
हुस्न की नरम परछाइयों में अब मेरा बसर कहाँ
हाँ रहते थे आगे-पीछे सदा अब आते नजर कहाँ
तिल-मिलाहट यह कि समझ न आये कसर कहाँ
मेरे हमराज! रंग और गंध में अब वह असर कहाँ
हुस्न की नरम परछाइयों में अब मेरा बसर कहाँ
हाँ रहते थे आगे-पीछे सदा अब आते नजर कहाँ
तिल-मिलाहट यह कि समझ न आये कसर कहाँ
उनकी आमद से रौनक! अब वह शाम सहर कहाँ
मसान में ढूढ़ो रात, सुबह, शाम कि दोपहर कहाँ
अमराइयों के एकांत को चीरने वाली कुहर कहाँ
ढूढ़ते क्या झुकी रीढ़ को मयस्सर गुलमोहर कहाँ
पानी ही सूख गया तो फिक्र क्यों, कि दहर कहाँ
जिंदगी में ही नहीं बची बातों में अब बहर कहाँ
मसान में ढूढ़ो रात, सुबह, शाम कि दोपहर कहाँ
अमराइयों के एकांत को चीरने वाली कुहर कहाँ
ढूढ़ते क्या झुकी रीढ़ को मयस्सर गुलमोहर कहाँ
पानी ही सूख गया तो फिक्र क्यों, कि दहर कहाँ
जिंदगी में ही नहीं बची बातों में अब बहर कहाँ
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