जन हित का लगातार राजनीतिक सत्ता की महत्त्वाकांक्षाओं की बेझिझक बलि चढ़ते जाना, असामान्य रूप से राजनीतिक सत्ताओं और प्रशासनिक प्रभुताओं का पक्षपाती होते चला जाना, नागरिक जमात की संभावनाओं का लगातार व्यक्तिगत सुविधाओं की शिकार बनते जाना, सामान्य शिक्षण संस्थानों की बात ही क्या आइ आइ टी जैसे उच्च शिक्षण संस्थानों से छात्रों का बाहर निकल जाना, नागरिक जीवन में विभिन्न प्रकार की लंपटताओं का बढ़ता हुआ वर्चस्व और संगठित शक्तियों की बेरोकटोक गिरोही कार्रवाइयों का बढ़ते जाना, बढ़ती हुई बेलगाम महंगाई के ऊपर से बेरोजगारी तथा अर्द्धरोजगारी के जाल का फैलते जाना, जेंडर आधारित अत्याचार का भयावह होते जाना, निर्विशिष्ट नागरिक व्यक्ति के लिए सार्वजनिक क्षेत्र में जगह कम होते जाना, ग्राह्यता और स्वीकार्यता का जाति, मजहब, सांप्रदायिक, संपर्क तथा शक्ति से तय होने की प्रवृत्ति की वैधता का बढ़ते जाना संकेत है कि समग्रतः स्थिति ठीक नहीं है।
जो देश से अधिक दल में रहते हैं, उनकी बात और है लेकिन जो दल में नहीं देश में रहते हैं उनकी बात और है। सरकार दल की नहीं देश की होती है। सरकार का घिरते जाना किसी दल का नहीं देश का घिरते जाना है। सामान्य नागरिक के रूप में यह एहसास बहुत दुखद है कि हम घिर गए हैं। व्यक्तियों और दलों के बीच ही नहीं महत्वपूर्ण संस्थाओं के बीच भी टकराव निरंतर बढ़ रहा है। संघात सांत (Conflict Management) के उपक्रम या तो हैं ही नहीं या फिर निष्क्रिय और निष्प्रभावी हैं। यहाँ साफ साफ कहना जरूरी है कि यह मेरा व्यक्तिगत मामला नहीं है, लेकिन जिसे मैं अपना व्यक्तिगत मामला मानता हूँ वह इन मामलों से जुड़ा हुआ है और इसके नित्य प्रभाव में है; हाँ दोस्त अपनी बात आप जानें।
मैं जो दल में नहीं, देश में रहता हूं; बहुत परेशान हूं कि स्थिति ठीक नहीं!
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