राष्ट्रवाद का विकास पूँजीवाद के प्रसार और उसकी विश्वव्यापी औपनिवेशिक आकांक्षा से नाभिनालबद्ध रहा है। यह सच है कि युद्ध में प्रयुक्त शस्त्रों की अंतर्वस्तु एक ही होती है। राष्ट्रवाद,‘पूँजीवाद की साम्राज्यवादी आकांक्षा ने ‘राष्ट्रवाद’ नाम के ऐसे नुस्खे का आविष्कार किया था जो हर ‘मर्ज’ की दवा थी --- ‘राष्ट्रवाद’ के नाम पर राष्ट्र के अंदर के किसी भी विभेद, विषमता और असहमति को नजरअंदाज करते हुए पूँजी के प्रच्छन्न-हित में सभी राष्ट्रवासियों को जान देने तक के लिए ‘पूँजीवाद’ आसानी से प्रोत्साहित करता था। ‘राष्ट्रवाद’ मानवता से ऊँचा मूल्य बनकर शोषण और युद्ध की पीठिका तैयार करता था। ‘राष्ट्रवाद’ ऐसा दुधारी कटार था जिस से पूँजी देश के अंदर भी अपना हित साधता था और बाहर भी। ‘राष्ट्रवाद’ मनुष्य को अंधा बनाने का ही उपाय था। जो दूसरे को अंधा बनाने की ‘परियोजनाओं’ पर काम करता है, उसके खुद के अंधा बनते ही कितनी देर लगती है! युद्ध में प्रयुक्त शस्त्रों की अंतर्वस्तु एक ही होती है। राष्ट्रवाद की अंतर्वस्तु के इस्तेमाल में राष्ट्रों की मुक्ति के लिए किये जाने की भी गुंजाइशें थी। यह ध्यान में है कि राष्ट्रवाद का कोई एक ही स्तर नहीं था। उसके भीतर सामाजिक हित और व्यक्तिगत स्वार्थ की कई परस्पर अंतर्घाती अंतर्धराएँ सक्रिय थी। प्रेमचंद की यह मान्यता थी कि जातिभेद की जड़ में मट्ठा डाले बिना राष्ट्रवाद का असली तत्त्व नहीं पाया जा सकता है। राष्ट्रवाद का सामने मुख्य चुनौती थी अपने देश को पाने की। इस राष्ट्रवाद में आये भटकाव के कारण रवींद्रनाथ ठाकुर ने सावधान करते हुए कहा कि ‘भारत ने कभी भी सही अर्थों में राष्ट्रीयता हासिल नहीं की। मुझे बचपन से ही सिखाया गया कि राष्ट्र सर्वोच्च है, ईश्वर और मानवता से भी बढ़कर। आज मैं इस धारणा से मुक्त हो चुका हूँ और दृढ़ता से मानता हूँ कि मेरे देशवासी देश को मानवता से भी बड़ा बतानेवाली शिक्षा का विरोध करके ही सही अर्थों में अपने देश को हासिल कर पाएँगे।’
‘गोदान’ का प्रकाशन 1936 में हुआ। यही साल प्रेमचंद के जीवन का भी आखिरी साल साबित हुआ। प्रेमचंद अपने रचनाकाल के प्रारंभ से ही साहित्य के सामाजिक सरोकार के बारे में काफी सचेत थे। 1936 तक आते-आते साहित्य और समाज के बारे में प्रेमचंद का विचार बदलना शुरू हो गया था। राजनीतिक और सामाजिक क्षेत्र में परचलित कई लोकप्रिय धारणाओं और अवधारणाओं के बारे में प्रेमचंद के विचार में बदलाव भी आ रहा था। उस समय औपनिवेशिक वातावरण में विकसित हो रहा भारतीय राष्ट्रवाद अपने-आप में एक शक्तिशाली विचार होने के साथ ही विचारधाराओं का गोमुख भी बना हुआ था। राष्ट्रवाद का मुख्य आधार राजनीतिक तत्त्वों से बनता है। राजनीतिक तत्त्व में सामाजिक तत्त्वों की अनदेखी करने की प्रवृत्ति भी रहती है। प्रेमचंद की तीखी नजर से यह बात छिपी नहीं थी। 1936 में छपे ‘गोदान’ में प्रेमचंद राष्ट्रवाद के राजनीतिक ढाँचे में सामाजिक अंतर्वस्तु के अवहेलित होने को साफ-साफ लक्षित किया है। यह सब महात्मा गाँधी की राजनीतिक उपस्थिति में हो रहा था। ‘गोदान’ को बाहर-भीतर दोनों तरफ से समझना होगा। भारतीय राष्ट्रवाद के विकास एवं चरित्र को समझे बिना ‘गोदान’ को ठीक से समझना और महसूस करना मुष्किल है साथ ही ‘गोदान’ को समझे बिना भारतीय राष्ट्रवाद के विकास एवं चरित्र को भी पूरी तरह नहीं समझा जा सकता है --- दोनों को एक-दूसरे के परिप्रेक्ष्य से समझना होगा।
‘गोदान’ का पात्र जो लगभग विचारक की मुद्रा में गठित हुआ है और जिसके बारे में प्रेमचंद की टिप्पणी है कि ‘वह किसी प्रश्न पर अपना मत प्रकट करते थे, तो जैसी अपनी सारी आत्मा उसमें डाल देते थे।’ ऐसे मेहता के दो वक्तव्य गौर करने लायक हैं ---
---‘अगर आपकी धारणा है कि कृषकों के साथ रियायत होनी चाहिए, तो पहले आप खुद शुरू करें --- काश्तकारों को बगैर नजराने लिये पट्टे लिख दें, बेगार बंद कर दें, इजाफा लगान को तिलांजलि दे दें, चरावर की जमीन छोड़ दें। मुझे उन लोगों से जरा भी हमदर्दी नहीं है, जो बातें तो करते हैं कम्युनिस्टों की-सी, मगर जीवन है रइसों का-सा, उतना ही विलासमय, उतना ही स्वार्थ से भरा हुआ।’
--- ‘मानता हूँ, आपका अपने असामियों के साथ बहुत अच्छा बर्ताव है, मगर प्रश्न यह है कि उसमें स्वार्थ है या नहीं। इसका कारण क्या यह नहीं हो सकता कि है कि मद्धिम आँच में भोजन स्वादिष्ट पकता है ? गुड़ से मारनेवाला जहर से मारनेवाले की अपेक्षा कहीं सफल हो सकता है। मैं तो केवल इतना जानता हूँ, हम या तो साम्यवादी हैं या नहीं हैं। हैं तो उसका व्यवहार करें, नहीं हैं, तो बकना छोड़ दें। मैं नकली जिंदगी का विरोधी हूँ। अगर माँस खाना अच्छा समझते हो तो खुलकर खाओ। बुर समझते हो तो मत खाओ, यह तो मेरी समझ में आता है; लेकिन अच्छा समझना और छिपकर खाना, यह मेरी समझ में नहीं आता। मैं इसे कायरता समझता हूँ और धूर्त्तता भी, जो वास्तव में एक हैं।’
ये बातें राय साहब को कही गई हैं। राय साहब के व्यक्तित्व के बारे में प्रेमचंद कहते हैं कि ‘रायसाहब सभाचतुर आदमी थे। अपमान और आघात को धैर्य और उदारता से सहने का उन्हें अभ्यास था’ और उनकी गतिविधि पर प्रेमचंद की टिप्पणी है
--- ‘पिछले सत्याग्रह-संग्राम में रायसाहब ने बड़ा यश कमाया था। कौंसिल की मेंबरी छोड़कर जेल चले गए थे। तब से उनके इलाके के असामियों को उन से बड़ी श्रद्धा हो गई थी। यह नहीं कि उनके इलाके के असामियों के साथ कोई खास रियायत की जाती हो, या डाँड़ या बेगार की कड़ाई की कुछ कम हो; मगर यह सारी बदनामी मुख्तारों के सिर जाती थी। रायसाहब की कीर्त्ति पर कोई कलंक न लग सकता था। वह बेचारे भी तो उसी व्यवस्था के गुलाम थे। जाब्ते का काम तो जैसे होता चला आया है, वैसा ही होगा। रायसाहब की सज्जनता उस पर कोई असर नहीं डाल सकती थी, इसलिए आमदनी और अधिकार में जौ भर की भी कमी नहीं होने पर भी उनका यश मानो बढ़ गया था। असामियों से वह हँसकर बोल लेते थे। यही क्या कम है ? सिंह का काम तो शिकार करना है; अगर वह गरजने और गुर्राने के बदले मीठी बोली बोल सकता, तो उसे घर बैठे मनमाना शिकार मिल जाता। शिकार की खोज में जंगल में न भटकना पड़ता।
रायसाहब राष्ट्रवादी होने के पर भी हुक्काम से मेल-जोल बनाए रखते थे। उनकी नजरें ओर डालियाँ और कर्मचारियों की दस्तूरियाँ जैसी की तैसी चली आती थीं। साहित्य और संगीत के प्रेमी थे, ड्रामा के शौकीन, अच्छे वक्ता थे, अच्छे लेखक, अच्छे निशानेबाज।’
रायसाहब अपने बारे में होरी से कहते हैं ---
--- ‘ तुम हमें बड़ा आदमी समझते हो? हमारे नाम बड़े हैं, पर दर्शन छोटे। गरीबों में अगर ईर्ष्या या वैर है, तो स्वार्थ के लिए पेट के लिए। ऐसी ईर्ष्या और वैर को मैं क्षम्य समझता हूँ। ... मुफ्तखोरी ने हमें अपंग बना दिया है, हमें अपने पुरुषार्थ पर लेश मात्र भी विश्वास नहीं, केवल अफसरों के सामने दुम हिला-हिलाकर किसी तरह उनके कृपा पात्र बने रहना और उनकी सहायता से अपनी प्रजा पर आतंक जमाना ही हमारा उद्यम है।’
और मेहता से कहते हैं ---
--- ‘आपका विचार बिल्कुल ठीक है मेहता जी। आप जानते हैं, मैं आपकी साफगोई का कितना आदर करता हूँ, लेकिन आप यह भूल जाते हैं कि अन्य यात्राओं की भाँति विचारों की यात्रा में भी पड़ाव होते हैं, और आप एक पड़ाव को छोड़कर दूसरे पड़ाव तक नहीं जा सकते। मानव जीवन का इतिहास इसका प्रत्यक्ष प्रमाण है। मैं उस वातावरण मे पला हूँ जहाँ राजा ईश्वर है और जमींदार ईश्वर का मंत्री। मेरे स्वर्गवासी पिता असामियों पर इतनी दया करते थे कि पाले या सूखे में कभी आधा ओर कभी पूरा लगान माफ कर देते थे। अपने बखार से अनाज निकालकर असामियों को खिला देते थे। घर के गहने बेचकर कन्याओं के विवाह में मदद देते थे; मगर उसी वक्त तक, जब तक प्रजा उनको सरकार और धर्मावतार कहती रहे, उन्हें अपना देवता समझकर उनकी पूजा करती रहे। प्रजा का पालन उनका सनातन धर्म था, लेकिन अधिकार के नाम पर वह कौड़ी का एक दांत भी फोेड़कर देना न चाहते थे। मैं उसी वातावरण में पला हूँ और मुझे गर्व है कि मैं व्यवहार में चाहे जो करूँ विचारों में उनसे आगे बढ़ गया हूँ और यह मानने लगा हूँ कि जब तक किसानों को ये रियायतें अधिकार के रूप में न मिलेंगी, केवल सद्भावना के आधार पर उनकी दशा सुधर नहीं सकती। स्वेच्छा अगर अपना स्वार्थ छोड़ दे, तो अपवाद है। मैं खुद सद्भावना करते हुए भी स्वार्थ नहीं छोड़ सकता और चाहता हूँ कि हमारे वर्ग को शासन और नीति के बल से अपना स्वार्थ छोड़ने के लिए मजबूर कर दिया जाय। इसे आप कायरता कहेंगे, मैं इसे विवशता कहता हूँ। मैं इसे स्वीकार करता हूँ कि किसी को भी दूसरे के श्रम पर मोटे होने का अधिकार नहीं है। उपजीवी होना घोर लज्जा की बात है। कर्म करना प्राणिमात्र का धर्म है। समाज की ऐसी व्यवस्था, जिसमें कुछ लोग मौज करें और अधिक लोग पिसें और खपें, कभी सुखद नहीं हो सकती। पूँजी और शिक्षा, जिसे मैं पूँजी ही का एक रूप समझता हूँ, इनका किला जितनी जल्द टूट जाय, उतना ही अच्छा है। जिन्हें पेट की रोटी मय्यसर नहीं, उनके अफसर और नियोजक दस-दस पाँच-पाँच हजार फटकारें, यह हास्यास्पद है और लज्जास्पद भी। इस व्यवस्था ने हम जमींदारों में कितनी विलासिता, कितना दुराचार, कितनी पराधीनता और कितनी निर्लज्जता भर दी है, यह मैं खूब जानता हूँ, लेकिन मैं इन कारणों से इस व्यवस्था का विरोध नहीं करता। मेरा तो यह कहना है कि अपने स्वार्थ की दृष्टि से भी इसका अनुमोदन नहीं किया जा सकता। इस शान को निभाने के लिए हमें आपनी आत्मा की इतनी हत्या करनी पड़ती है। हम में आत्माभिमान का नाम भी नहीं रहा। हम अपने असामियों को लूटने के लिए मजबूर हैं। अगर हम अफसरों को कीमती-कीमती डालियाँ न दें तो बागी समझे जायँ; शान से न रहें, तो कंजूस कहलाएँ। प्रगति की जरा-सी आहट पाते ही हम काँप उठते हैं; और अफसरों के पास फरियाद लेकर दौड़ते हैं कि हमारी रक्षा कीजिए। हमें अपने ऊपर विश्वास नहीं रहा, न पुरुषार्थ ही रह गया। बस, हमारी दशा उन बच्चों की-सी है, जिन्हें चम्मच से दूध पिलाकर पाला जाता है, बाहर से मोटे, अंदर से दुर्बल, सत्वहीन और मोहताज।’
आगे कहते हैं ---
--- ‘बुद्धि अगर स्वार्थ से मुक्त हो, तो हमें उसकी प्रभुता मानने में कोई आपत्ति नहीं। समाजवाद का यही आदर्श है। हम साधु-महात्माओं के सामने इसलिए सिर झुकाते हैं कि उनमें त्याग का बल है। इसी तरह हम बुद्धि के हाथ में अधिकार भी देना चाहते हैं, सम्मान भी, नेतृत्व भी; लेकिन संपत्ति किसी तरह नहीं। बुद्धि का अधिकार और सम्मान व्यक्ति के साथ चला जाता है, लेकिन उसकी संपत्ति विष बोने के लिए, उसके बाद और भी प्रबल हो जाती है। बुद्धि के बगैर किसी समाज का संचालन नहीं हो सकता। हम केवल इस बिच्छू का डंक तोड़ देना चाहते हैं।’
इन संदर्भों को ध्यान में रखते हुए भारतीय राष्ट्रवाद के चारित्रिक विकास का विश्लेषण किया जा सकता है। रायसाहब पिछले ‘सत्याग्रह संग्राम’ में जेल गये थे। क्यों गये थे ? मि. तंखा मालती को एलेक्शन लड़ने के प्रोत्साहित करते हुए कहते हैं ---
--- ‘आपके खयाल में एलेक्शन महज रुपए से जीता जा सकता है ?’
उत्तर में जो मालती कहती है वह गौर करने लायक है ---
--- ‘जी नहीं, व्यक्ति भी एक चीज है। लेकिन मैंने एक बार जेल जाने के सिवा और क्या जन-सेवा की है ? और सच पूछिये तो उस बार भी मैं अपने मतलब से ही गई थी, उसी तरह जैसे रायसाहब और खन्ना गये थे। इस नई सभ्यता का आधार धन है। विद्या और सेवा और कुल और जाति सब धन के सामने हेच है। कभी-कभी इतिहास में ऐसे अवसर आ जाते हैं, जब धन को आंदोलन के सामने नीचा देखना पड़ता है; मगर इसे अपवाद समझिए। मैं अपनी ही बात कहती हूँ। कोई गरीब औरत दवाखाने में आ जाती है, तो घंटों उससे बोलती तक नहीं। पर कोई महिला कार पर आ गई, तो द्वार तक जाकर उसका स्वागत करती हूँ और उसकी ऐसी उपासना करती हूँ, मानो साक्षात देवी है। मेरा और रानी साहब का कोई मुकाबला नहीं है। जिस तरह के कौंसिल बन रहे हैं, उनके लिए रानी साहब ही ज्याद उपयुक्त हैं।’
राय साहब अपने जमींदार पिता के बारे में मेहता से कहते हैं कि ‘प्रजा का पालन उनका सनातन धर्म था, लेकिन अधिकार के नाम पर वह कौड़ी का एक दांत भी फोेड़कर देना न चाहते थे।’ यह चरित्र राय साहब के स्वर्गीय पिता के साथ खत्म नहीं हो गया; आजादी के लिए हुए संघर्ष का नेतृत्व इसी चरित्र के हाथ में था। अधिकार पाना ही आजादी है। हमारी बिडंबना यह कि आजादी के लिए हुए आंदोलन का नेतृत्व उन हाथों में था जो अधिकार के नाम पर कौड़ी का एक दांत भी फोेड़कर देना न चाहते थे। उपरोक्त उद्धरणों को देखने पर भारतीय राष्ट्रवाद के विकास और चरित्र का पता चलता है। समाज के ऊपरी तले पर राष्ट्रवाद को लेकर इस तरह की मन:स्थिति थी तो समाज के आधारभूत स्तर पर किस तरह की मन:स्थिति थी ? गाय के मर जाने के बाद दारोगा जी तहकीकाकात में आते हैं। गाय की हत्या के पीछे हीरा के होने की बात खुलते ही दारोगा जी घूस के लालच में हीरा के घर की तलाशी का प्रस्ताव रखते हैं। हीरा तो इस घटना के बाद इलाका छोड़ चुका है। हीरा की अनुपस्थिति में उसके घर की तलाशी होरी को गवारा नहीं है। वह घूस देकर इस बेइज्जती से बचना चाहता है। हालाँकि होरी की माली दशा देखकर एक बार गैंडा सिंह जैसे दारोगा का भी मन डोल जाता है लेकिन समाज के ठीकेदारों का लालच इतना बड़ा कि उनका दिल नहीं पसीजता है। धनिया घूस देने का विरोध करते हुए कहती है ---
--- जिसके रुपए हों, ले जाकर उसे दे दो। हमें किसी से उधार नहीं लेना है। और जो देना है, तो उसी से ले लेना। मैं दमड़ी भी न दूँगी, चाहे मुझे हाकिम के इजलास तक ही चढ़ना पड़े। हम बाकी चुकाने को पचीस रुपए माँगते थे, किसी ने न दिये। आज अँजुली-भर रुपए ठनाठन निकाल के दे दिये। मैं सब जानती हूँ। यहाँ तो बाँट-बखरा होनेवाला था, सभी के मुँह मीठे होते। ये हत्यारे गाँव के मुखिया हैं, गरीबों का खून चूसनेवाले! सूद-ब्याज, डेढ़ी-सवाई, नजर-नजराना, घूस-घास जैसे भी हो गरीबों को लूटो। उस पर सुराज चाहिए। जेल जाने से सुराज न मिलेगा। सुराज मिलेगा धरम से, न्याय से।’
सत्याग्रह तो गाँधी आंदोलन का रास्ता था। राय साहब और मालती जिन कारणों से जेल जाया करते थे या गये थे क्या ब्रिटिशि शासन को इसका ज्ञान नहीं रहा होगा ? राय साहब गाँधीवादी थे तो फिर मेहता मेहता उन्हें ‘कम्युनिस्टों जैसी बात करनेवाला’ क्यों मानते हैं? राय साहब भी अपने को गाँधीवादी नहीं बताते हैं और न गाँधीवाद के आदर्शों की ही बात करते हैं, बल्कि ‘समाजवाद’ के आदर्शों की बात करते हुए ‘बुद्धि के स्वार्थ से मुक्त’ होने की बात करते हैं। राय साहब इस सचाई को समझ गये थे कि ‘बुद्धि’ और ‘स्वार्थ’ के अपवित्र संश्रय के कारण कैसे ‘शिक्षा’ भी पूँजी का ही एक रूप बन कर रह जाती है। गाँधीवाद ‘स्वेच्छा’ के ‘स्वार्थ’ छोड़ देने पर विश्वास रखता है, राय साहब इसे अपवाद मानते हैं। वे अपने वर्ग को शासन और नीतियों के बल पर स्वार्थ छोड़ने पर मजबूर किये जाने को ही उपाय मानते हैं। हाकिमों से मेल-जोल रखना आजादी के आंदोलन का राजनीतिक चरित्र बन गया था। एलेक्शन में धन की भुमिका का महत्त्व सामने आ गया था। मालती यह कहती जरूर है कि ‘जी नहीं, व्यक्ति भी एक चीज है’ लेकिन वह भी जानती है कि ‘व्यक्ति’ बहुत छोटी चीज है। उस आंदोलन में ‘व्यक्ति’ का अर्थात उसका जेल जाना भी स्वार्थ से प्रेरित था, और उसका ही क्यों राय साहब का भी जेल जाना उतना ही स्वार्थ प्रेरित था। गरीबों का खून ‘चूसनेवालों, सूद-ब्याज, डेढ़ी-सवाई, नजर-नजराना, घूस-घास जैसे भी हो गरीबों को लूटनेवलों’ के हाथ में ‘सुराज’ का आंदोलन चला गया था। ऐसा माना जाता है कि आजादी के आंदोलन में देशी पूँजीपतियों की राष्ट्र-भिक्तपूर्ण भूमिका रही है, गाँधी जी के आंदोलन को उन से पर्याप्त आर्थिक सहयोग मिलता था। कुछ हद तक यह सच भी है। लेकिन सचाई यह है कि इनकी भूमिका राय साहब से जैसे लोगों से भिन्न नहीं थी। जो इस सचाई से असहमत हैं और जिन्हें यह लगता है कि ‘गोदान’ तो महज एक उपन्यास है और किसी उपन्यास को ऐतिहासिक साक्ष्य के रूप में स्वीकार करना और उसके आधार पर कोई निष्कर्ष निकालना ठीक नहीं है, उन्हें इतिहास में दर्ज ठाकुरदास को दी गई बिड़ला की सलाह पर गौर करना चाहिए ---
‘12 अप्रैल 1934 को बिड़ला ने ठाकुरदास को सलाह दी : ‘‘मैं चाहता हूँ कि आप भूलाभाई (देसाई) से संपर्क रखें। यदि स्वराज पार्टी को सफल होना है तो उन्हें नए चुनाव लड़ने के लिए धन की आवश्यकता पड़ेगी और मेरी सलाह है कि बंबई वह धन तबतक न दे जब तक वह इस बात के प्रति संतुष्ट न हो जाए कि सही लोगों को भेजा जा रहा है।’’ 3 अगस्त 1934 को बिड़ला ने पुन: लिखा : ‘‘वल्लभ भाई, राजाजी और राजेंद्र बाबू सभी कम्युनिज्म और समाजवाद के विरुद्ध संघर्ष कर रहे हैं। अत: यह आवश्यक है कि हम में से कुछ जो स्वस्थ पूँजीवाद के प्रतिनिधि हैं, यथासंभव गाँधीजी की सहायता करें और एक साझे लक्ष्य को लेकर कार्य करें’’ ---ठाकुरदास पेपर्स, फा.नं. 123.42[vi]।’
‘स्वस्थ पूँजीवाद के प्रतिनिधि’ अपने साझे लक्ष्य के अंतर्गत ब्रिटिश साम्राज्यवाद से लड़ने के लिए नहीं ‘कम्युनिज्म और समाजवाद’ के प्रसार को रोकने के लिए गाँधीजी की ‘सहायता’ करते थे और ‘मुख्यधारा की राजनीति’ को अर्थ उपलब्ध करवाते थे!
यह सच है कि 1857 का आर्थिक दृष्टिकोण बहुत साफ नहीं था। 1857 की मंशा सफल हो जाने पर भारत का वैसा विकास शायद संभव नहीं होता। लेकिन यह सब अनुमान का विषय है, और इस अनुमान के इस क्षेत्र में कल्पना के लिए खुलकर खेलने का अवसर है। अपने-अपने संतोष के लिए तब भी सुविधा के निष्कर्ष निकाले गये थे और आज भी निकाले जाते हैं। लेकिन 1857 के सकारकत्मक पक्ष को भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन की धारा ने पूरी तरह से विपथित कर दिया। इस विपथन में ‘नवजागरण’ के बड़े अंश का भी योगदान था। कहना न होगा कि हाकिमों से, अर्थात प्रभु-वर्ग से ‘मेल-जोल’ बनाये रखने की प्रवृत्ति गाँधी-विचार में भी सक्रिय थी और नवजागरण में भी सक्रिय ती। हिंदी प्रदेश में नवजागरण की वैसी लहर तो नहीं आई, करैले पर नीम यह कि 1857 के राजनीतिक संदेश को भी हिंदी प्रदेश अपनी सामाजिक अंतर्वस्तु के साथ मिला नहीं सका। इतना ही नहीं भिक्त आंदोलन के साथ सक्रिय लोकजागरण की चेतना का सारांश भी उसके सांस्कृतिक पटल से उतर गया। ऐसे में न सामाजिक सुधार का काम ढंग से शुरू हो सका न जन-राजनीतिक प्रक्रिया ही शुरू हो पाई। इस सांस्कृतिक, सामाजिक और राजनीतिक शून्यता के वातावरण में ‘कम्युनिज्म और समाजवाद’ के प्रसार को रोकनेवाले ‘कुत्सित राष्ट्रवाद’ को खुलकर अपना काम करने का मौका मिल गया। ‘कम्युनिज्म और समाजवाद’ आजादी को अधिकार और हक से जोड़ने में लगे थे। अधिकार की लड़ाई आज भी जारी है। क्योंकि‘ वर्त्तमान भूमंडलीय अर्थ-व्यवस्था की कार्य प्रणाली के अंदर गहराई में असंतुलनकारी तत्त्व सक्रिय हैं, यह नैतिक रूप से अस्वीकार्य और राजनीतिक रूप से अधार्य है। इन तत्त्वों का संबंध अर्थ-व्यवस्था, समाज और राजनीति के संबंधों में व्याप्त बुनियादी असंतुलन से है। अर्थ-व्यस्था धीरे-धीरे भूमंडलीय होती जा रही है, जबकि सामाजिक और राजनीतिक संस्थाएँ मोटे तौर पर स्थानीय, राष्ट्रीय अथवा क्षेत्रीय बनी रह जा रही हैं। इस समय की कोई भी भूमंडलीय संस्था विश्व-बाजार में जनतांत्रिक मूल्यों के लिए न तो कोई दृष्टि विकसित कर रही है और न तो देशों के अंदर और देशों के बीच बुनियादी असमानताओं को दूर करने का उपाय कर रही है।’ खतरनाक बात यह क़ि ‘आर्थिक और राजनीतिक व्यवस्था का असंतुलन जनतांत्रिक उत्तरदायित्व को क्षतिग्रस्त करता है।’ स्वाभावत: ‘अर्थ-व्यवस्था और समाज का असंतुलन’ सामाजिक न्याय को क्षतिग्रस्त करता है। इसलिए, ‘भूमंडलीकरण का वर्तमान तरीका जरूर बदलना चाहिए। बहुत थोड़े-से लोगों को इसका लाभ मिल रहा है। बहुत सारे लोगों का न तो इसके प्रारूप में कोई दखल है और न इसकी प्रक्रिया पर कोई प्रभाव है।’
तरीका जरूर बदलना चाहिए, लेकिन यह होगा कैसे? जनतांत्रिक मूल्यों में क्षरण का अर्थ अधिकारों के क्षरण के अतिरिक्त क्या हो सकता है? ‘गोदान’ अप्रत्यक्ष रूप से ‘कम्युनिज्म और समाजवाद’ के प्रसार को रोके जाने और प्रत्यक्ष रूप से ‘कुत्सित राष्ट्रवाद’ की कुत्सा के प्रसार का सामाजिक दस्तावेज है। ऐसा सामाजिक दस्तावेज जो समाज परिवर्त्तन का भी आधार बन सकता है। बिडंबना यह है कि जिस समाज के परिवर्त्तन का आधार बनने की संभावनाएँ हम उपन्यास में देखते हैं, वह समाज न सिर्फ ‘कुत्सित राष्ट्रवाद’ से प्रेरित राजनीति को जरूरत से ज्यादा महत्त्व देता है, बल्कि जन-राजनीति और जन-साहित्य के प्रति भी उदासीन बना हुआ है। ऐसी उदासी जो किसी भी तरह से टूटती ही नहीं है! तो क्या समाज को दोष देकर अपना पल्ला झाड़ने का आसान विकल्प अपना लिया जाये ? साहित्यकारों को, खासकर समकालीन साहित्यकारों --- जो दबे स्वर में ही सही साहित्य का समाज से, समाज के सुख-दुख से, हास-परिहास से, जीवन-दशा से किसी तरह का संबंध स्वीकारते हैं --- को निर्मम आत्मसाक्षात्कार की प्रक्रिया से गुजरना होगा। जिस तरह वर्त्तमान को इतिहास प्रभावित करता है उसी तरह वर्त्तमान भी इतिहास को प्रभावित करता है। वर्त्तमान की अक्षमता से धरोहर धूमिल और अर्थहीन हो जाता है। साहित्य के अपने अंतर्निहित उद्देश्यों को छोड़कर, पद, प्रतिष्ठा, पुरस्कार सब के लिए साहित्य का इस्तेमाल किया जा रहा है। समकालीन साहित्यकरों की इस अवस्था का असर समूची साहित्यिक परंपरा पर पड़ रहा है।
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