अंतिम इच्छा
- प्रफुल्ल कोलख्यान
अंतिम इच्छा मौत की सजा पानेवाले के मुँह से सुनने का रिवाज है। मौत की सजा माने तयशुदा तारीख पर निश्चित किया गया जीवन का अंत। तारीख भले ही पता न हो, लेकिन अंत तो हर जीवन का निश्चित ही होता है। होश सम्हालते ही हर आदमी इस तथ्य को जान जाता है। यह अलग बात है अपने इस जाने हुए को आदमी कभी ठीक से मान नहीं पाता है। यही तो कहा था न, धर्मराज ने यक्ष से! शुरू से ही आदमी की अंतिम इच्छा का एक सिरा उसके दिमाग में अटका रहता है। जैसे-जैसे दिन बीतते हैं, अंत नजदीक आता है। जैसे-जैसे अंत नजदीक आता है, वैसे-वैसे अंतिम इच्छा का यह सिरा अधिकाधिक जीवंत होता जाता है। अधिक संवेदनशील। शंपा की भी एक अंतिम इच्छा है। पिछले कुछ दिनों से शंपा की यह इच्छा अधिक संवेदनशील हो गई है। इच्छा चाहे कोई हो अकेले कभी पूरी नहीं होती है। शंपा भी इसे अकेले पूरी नहीं कर सकती है। उसे एक साथी चाहिए। यह ठीक है कि उसकी हैसियत कुछ भी नहीं। लेकिन हैसियत ही तो सब कुछ नहीं होती है जीवन में। जीवन में कइयों का साथ दिया। लेकिन कोई उसके साथ बना नहीं रह सका। महेश जरूर कुछ अधिक दिनों तक उसके साथ-साथ बना रह सका है। शंपा जब पलटकर देखती है तो उसे लगता है कि उसने भी कइयों का साथ भले दिया हो, लेकिन हकीकत में वह भी किसी के साथ नहीं हो सकी। महेश की बात अलग है। महेश उसके साथ बना रह सका है। शायद इसलिए कि वह भी उसके साथ बनी रह सकी है। महेश उसके लिए एक तरह का आश्वासन बन गया है। और वह खुद? महेश के लिए एक अंतरंग ठिकाना है! इसलिए उसने महेश से ही अपनी अंतिम इच्छा की बात कही। शंपा यह भी जानती है कि महेश में उसकी अंतिम इच्छा पूरी करने का कौशल भी है। महेश जी जान से शंपा की अंतिम इच्छा पूरी करने में लगा हुआ है। हर बार कोई न कोई कमी रह जाती है। इस कमी को दूर करने के लिए वह हर बार लगभग शुरू से शुरू हो जाता है। इस बार वह काफी उम्मीद से था। उम्मीद कि शंपा को अंतत: उसका काम पसंद आयेगा। इस उम्मीद से लबालब वह शंपा के पास पहुँचा था। लेकिन शंपा का बौखलाया हुआ, हिकारत से भरा जवाब सुनते ही उसके उम्मीद का कटोरा छलक कर आधे से अधिक ही खाली हो गया। मन के जिस जगह को उम्मीद खाली कर देती है उस जगह को हताशा भर देती है। स्वाभाविक रूप से महेश के मन की उम्मीद से खाली जगह में हताशा भर गई थी। एक लंबी साँस लेकर भारी मन से उसने कहा -
- तो तुम्हें कोई शीर्षक पसंद नहीं है!
शंपा ने तो जीवन भर उम्मीद से खाली अपने छोटे-से मन को समय के टूटे हुए वजूद से भरने की कोशिश की है। महेश के खाली मन की पीड़ा की थाह लेने में उसे कोई दिक्कत नहीं हुई। बीच भँवर में डोलती नैया की तरह महेश के डोलते हुए मन को सम्हालने के लिए उसने कहा -
- अरे यार तुम भी न! कितनी अच्छी बात बनाते हो। साहित्यकार हो। कहानी लिखते हो। अच्छी-अच्छी कहानियाँ लिखते हो। इसलिए तो तुम से कहा है। तुम्हारी यह कहानी भी अच्छी है। बस जरा शीर्षक देख लो।
- तो तुम्हें कोई शीर्षक पसंद नहीं!
- कोई और शीर्षक नहीं हो सकता है? कोई और! जरा सोचो। आखिर यह किसी की अंतिम इच्छा का शीर्षक है अंतिम इच्छा का।
अंतिम इच्छा का प्रसंग आते ही महेश का मन उद्विग्न हो जाता है। उसे लगता है कि शंपा की अंतिम इच्छा को पूरा करना सबसे पवित्र काम है। इतनी अधिक कोशिश उसे किसी कहानी के लिए कभी नहीं करनी पड़ी। लेकिन यह तो सचमुच अंतिम इच्छा का सवाल है। कभी वह हताश भी हो जाता है। क्या कभी कोई इच्छा भी अंतिम हो सकती है! अंत तो जीवन का होता है। इच्छाओं का नहीं! कहीं यह कहानी भी उसकी अंतिम कहानी बनकर न रह जये ! फिर शीर्षक पर इतना जोर क्यों -
- शीर्षक से क्या होता है ...
- शाीर्षक से बहुत कुछ होता है, महेश ... शीर्षक ही तो चेहरा होता है .... हम किसी को उसके चेहरे से ही पहचानते हैं ... इसलिए कहती हूँ शीर्षक पर फिर से सोचो ... फिर से ... एक बार...
महेश ने महसूस किया कि एक-एक शीर्षक के ध्वन्यर्थ की व्याप्ति से शंपा को अवगत कराना जरूरी है। उसे इन बारीकियों का क्या ज्ञान! उसकी लिखी कहानियों के शीर्षक तो सदा पसंद किये गये हैं। सराहे गये हैं। और इस कहानी के जो चार शीर्षक उसने सोचे हैं, वे तो एक से बढ़कर एक हैं। लेकिन यह कहानी तो शंपा की है। शीर्षक भी उसी का होना चाहिए। उसकी रजामंदी जरूरी है। यह काम उसे आहत किये बिना ही हो सकता है -
- सुनो शंपो। तुम कहो तो एक नहीं हजार बार शीर्षकों पर विचार किया जा सकता है ... हजार बार। लेकिन एक बार तुम इस शीर्षक को तो देख लो ...
इस प्रेमिल स्पर्श से पोर-पोर पुलकित हो गई शंपा। महेश के अंदर यह जो कुदरती चीज है। लाजवाब है। कोई महेश से सीखे। कब किस तरह और कितना प्यार पगाना चाहिए। कितना और किस तरह जताना चाहिए। हजारों लोगों के साथ उसे घंटा-दो-घंटा के लिए प्यार का नाटक रचाना पड़ा है, इस छोटे-से जीवन में। नाटक तो झूठ होता है। लेकिन यह झूठ नाटक के बाहर होता है। नाटक के भीतर तो सबसे बड़ा सच नाटक ही होता है। सच के सिवा कुछ भी नहीं। हाँ, कुछ भी नहीं ! जिन लोगों के साथ उसने प्यारा का नाटक रचाया, घंटे-दो-घंटे के लिए ही सही, वह तो उस समय सच ही होता था। यह अलग बात है कि उस सच का बड़ा टुकड़ा उनलोगों की ही मुटि्ठयों में होता था। मानवी है वह। पत्थर नहीं! लोगों की मुटि्ठयों में भिंचा हुआ सच जब बादल बनकर बरसते थे तो फुहार उसके तन पर ही नहीं मन पर भी पड़ती ही थी! वह भी तो भीगती ही थी। हाँ कभी-कभी यह बरसात चिलचिलाती हुई धूप के बीच होनेवाली बिन बादल बारिश की तरह होती थी। ऐसी बारिश तो छत के नीचे खड़े रहकर देखने पर स्वर्णकिरण की वर्षा जैसी लगती है। लेकिन इस तरह की बारिश में भी जिनके हिस्से में धूप आती है उनका मन तो भरे बाजार में खाली जेब की तरह तड़पता है! इस तरह से भीगना उसे कभी अच्छा नहीं लगा था। कुदरत में भी इस तरह की बात का होना कुदरती नहीं है।
महेश जब पहली बार उसके पास आया था तो उसके आने में कुछ भी नया नहीं था। इसी तरह सभी आते थे। कुछ नया था तो उसके जाने में। जिस तरह वह गया था, उसके पास आकर उस तरह कोई नहीं गया था। दो घंटे तक वह उसके साथ था। उसके पास। जिस्म के पास भी और जिस्म के धड़कते हुए उस हिस्से के पास भी जिसे दिल कहते हैं। कभी बालों को सहलाता। कभी होठों को चूमता। कभी हाथ को अपनी हथेलियों में लेता। प्रेम ओर आवेग से भरपूर। उसकी हरकत में कहीं भी ग्राहकी तेजी नहीं थी। अपनापे की मंथर लय थी। वह अपनी हथेलियों के बारे में सोचती रही। क्या ये हथेलियाँ ऐसी हैं! इन हथेलियों के बीच आकर तो दुनिया की हर अच्छी चीज अपना गुण धर्म खो देती है। वे कोई और ही हथेलियाँ होंगी! लेकिन तब क्यों इस बुदबुदाहट से अपने अंदर कुछ बदलने की आहट उसे सुनाई दे रही थी, साफ-साफ। कितने दिनों के बाद नहीं, पहली बार अपने अंदर होते हुए ऐसे किसी बदलाव को महसूस कर रही थी। जैसे धरती के नीचे दबी किसी चट्टान में गति आई हो! भीतर-ही-भीतर काँप रही हो धरती की परतें। ऐसी अंतरंग कंपन जिसकी तरंग ऊपरी सतह पर भी महसूस की जाती है। जिसमें विध्वंस का कोई आशय नहीं होता है! सृजन का स्पंद होता है! बहुत साहस करने के बाद ही पूछ पाई थी शंपा कि वह उसके साथ क्या कह रहा है। उसके कहे का क्या अर्थ है!
सभी लौट जाते हैं। महेश भी लौट गया था। जाते-जाते कह गया था, फिर आऊँगा। वह फिर आया कई बार। वह नरम और गरम दुनिया सिर्फ महेश की होकर नहीं रह सकी। ऐसा न उसने चाहा था, न महेश ने। कई बार दूसरे के साथ व्यस्त रहने पर वह लौट गया। बिना कोई मान किये। कोई शिकायत न तो उसके मुँह में कभी थी। न मन में। सालों से वह आता रहा है। इस तरह से आनेवाले कई लोग अपने आवेग में उसे आजाद कराने की बात कह जाते थे। शंपा ने शुरू में सोचा था कि वह भी उसे आजाद कराने की बात करेगा। लेकिन जब उसने बहुत दिनों तक इस तरह की कोई बात नहीं कही तो एक दिन शंपा ने ही साहस करके पूछा था कि वह कभी उसे आजाद कराने की बात नहीं सोचता है। शंपा को अच्छी तरह याद है कि उसके इस प्रश्न से बहुत विचलित हो गया था महेश। तभी महेश ने पहली बार उसका नाम पूछा था। अपना नाम बताने पर महेश ने भी अपना नाम बताया था। प्यार से कहा था कि शंपा तुम आजाद ही हो। महसूस तो करो! इससे अधिक आजादी कहाँ है! फिर सुधारते हुए उसने कहा था कि आजादी बाहर भी नहीं है! क्या तुम यह नहीं जानती! बहुत विचलित हो गया था शंपा का मन। क्या सचमुच वह आजाद होने का अर्थ नहीं समझता है। वह महेश के बारे में सोचते हुए घरैतिन होने के सपने में कई बार खो गई थी। उसे लगा था सपने की बहती नदी में उसकी इच्छा की नाव किसी पहाड़ से टकराकर चूर-चूर हो गई है। ओर वह, अब डूबी कि तब डूबी। तभी उसकी उखड़ती साँस को थाम लिया था महेश ने। विह्वल होकर पूछा था महेश ने, इस जीवन से तुम्हें क्या शिकायत है शंपा ! यही न कि लोग तुम्हारे काम को घृणा की नजर से देखते हैं। लोगों का क्या! सही बात तो यह है कि हमारे समाज में काम को ही घृणा की नजर से देखा जाता रहा है। अगर ऐसा नहीं होता तो सबसे कम काम करनेवाला सबसे अधिक सम्मान की नजर से कैसे देखा जाता! लेकिन बिना काम के काम नहीं चल सकता है। अब धीरे-धीरे समाज का नजरिया बदल रहा है। पहले लोग रिक्शावालों, कुली, कामगारों के काम को भी अच्छी नजर से नहीं देखते थे। भद्र लोगों के परिवार के लोग तो इस तरह के काम में आने की बात भी नहीं सोचते थे। अब स्थिति धीरे-धीरे बदल रही है। बहुत भावुक हो गया था महेश। आजादी भागकर दूसरी जगह चले जाने से कभी हासिल नहीं होती है शंपा। सच तो यह है शंपा कि न तो भागना आसान है और न बदलना! सच है कि तुम लोगों के तरह-तरह के शोषण होते हैं। एक शोषक व्यवस्था में किसका शोषण नहीं होता है! पीढ़ी-दर-पीढ़ी शोषण चक्र में पिसते हुए लोगों के बारे में सोचो शंपा। आजादी चाहती हो! वह अपने काम को छोड़कर नहीं मिला करती है। इस काम को लोगों की घृणाचक्र से बाहर निकालना होगा। उसकी ठोरी को ऊपर उठाते हुए महेश ने उसके गले में पड़ी चेन के लॉकेट को हाथ में लेकर देखता रहा था महेश। लंबी साँस छोड़ते हुए उसने कहा था जानती हो शंपा, हम ने तो सुना है, राम ने पत्थर बनी अहिल्या को अपने चरण स्पर्श से मानवी बना दिया था। लेकिन तुम्हारे गले में जिस राम का लॉकेट है, आज तो उस राम को ही पत्थर का बना दिया गया है। यह राम तुम्हारे किसी काम के नहीं हैं। इन्हें प्रणाम करो। पूजा करो इनकी। लेकिन, इन पर भरोसा मत करो ! लजाती हुई बोली थी शंपा अभी तो तुमने इसका एक ही पहलू देखा है। महेश ने लॉकेट को पलटकर देखा। फारसी में कुछ लिखा हुआ था। महेश उस इबारत को पढ़ नहीं पाया। पूछने पर बताया था शंपा ने पढ़ तो वह भी नहीं पाई कभी इस इबारत को। जैसे कई बार हम पढ़ नहीं पाते हैं दर्द की इबारत को! मगर उसके होने के एहसास को दूसरे पहलू के अनिवार्य अस्तित्व की तरह वह महसूस कर सकती है! हँसते हुए कहा था शंपा ने कि यहाँ राम भी आते हैं और रहीम भी। यहाँ आकर न कोई राम रहता है न रहीम। यहाँ आते ही एक आदिम गंध में नहाकर वह उसकी नजर में वैसे ही उतरता है जैसे माँ के गर्भ से धाय की नजर में उतरता है कोई शिशु।
शंपा को तो महेश ने आजादी की इच्छा का तोड़ बता दिया था लेकिन वह अपने को ही उस तोड़ से पूरी तरह सहमत नहीं कर पाया था। उसके मन में बार-बार सवाल उठते रहे। आदमी का विश्वास रहा है कि आजादी हर खतरे से लड़ने का कारगर हथियार है। यह विश्वास अब हिल रहा है। आज तो जिस ढंग से और जिस ढंग की आजादी की बात की जा रही है उससे तो आजादी ही खतरा बन गई है। बहुत भारी होती है आजादी की गठरी।
मछलियों को पानी से, भौंरों को फूलों से, जीवन को नैतिकता से, श्रम को पूँजी से और तंत्र को लोक से आजाद करानेवाले कितने दर्शन और दार्शनिक नाना वेश धर कर इस धरा-धाम में विचर रहे हैं आजकल। कितनी तरह की गुलामी बढ़ गई है! मगज-गुलाम और धन-गुलाम जैसी बातें तो बस नमूना भर है! हद है कि गुलाम बनानेवाले आजादी का परचून बाँटने में सबसे अव्वल हैं! लेकिन वह इतनी बातें शंपा को कैसे बतायेगा! आजादी की बात सोचते ही कैसी आभा फैल गई थी उसके चेहरे पर जैसे किसी पाखी ने अपना पंख फैलाकर आकाश को नाप लिया हो। उसी दिन शंपा ने महेश से अपनी अंतिम इच्छा की बात कही थी। यह भी कि समय आने पर, वह उसे बतायेगी। क्या वह, उसे पूरा करेगा! वह आश्वासन चाहती थी। महेश ने आधा आश्वसन दिया था, यह कहते हुए कि वह कोशिश करूँगा। महेश अंतिम इच्छावाली बात से बहुत बेचैन हो गया था। यदि वह आजादी की बात को फिर उठाती है, तो वह उसे कैसे समझा पायेगा! और बात तो उठेगी ही। आजादी की बात अगर एक बार मन में उठ जाये तो वह बहुत मुश्कि से ही कुछ समय तक के लिए दबाई जा सकती है। और आजादी तो उसका हक है! हक के खिलाफ कुछ कहना गुनाह है। यह गुनाह वह कैसे कर पायेगा। महेश ने तय किया वह इतना कहेगा कि और कहेगा कि आजाद होने की आकांक्षा हर हाल में मनुष्य की नैतिक जरूरत के रूप में ही स्वीकार्य होनी चाहिए।
वह ऐसा कुछ नहीं करेगा। अंतिम इच्छा के रूप में आजादी का सवाल आते ही वह हाथ खड़े कर देगा। स्वीकर लेगा अपनी कायरता। कह देगा कि मैं उसकी इच्छा क्या पूरी करूँगा! मैं तो खुद ही गुलाम हूँ! पूरी तैयारी के बाद महेश शंपा के पास पहुँचा था। लेकिन शंपा से मुलाकात होते ही फिर वही द्वंद्व।
शंपा ने तीखी नजर महेश पर डाली।
महेश मेरी अंतिम इच्छा आजादी नहीं है। मेरा अंत नजदीक आता लग रहा है। इस अंत पर खड़े जीवन की अंतिम इच्छा आजादी नहीं है। उम्र के हर पड़ाव पर आजादी का अर्थ बदल जाता है। मेरे लिए इस समय आजादी का जो अर्थ है, उसे आजादी नहीं कहा जाता है।
अपनी अंतिम इच्छा का कोई खाका साफ नहीं था शंपा के मन में। जब शंपा को पता चला कि महेश कहानी लिखता है तब से इस अंतिम इच्छा ने भी अपना रूप लेना शुरू कर दिया है। कई बार उसे महेश की कहानी की पहली पाठिका बनने का संयोग भी सुलभ हुआ। उसकी लिखी कहानी को वह सच मानती है। कई बार उसकी कहानियों को पढ़कर वह असहमत भी हुई, तो कई बार रोई भी। विचलित भी हुई। कई बार उसे वे कहानियाँ अपनी जिंदगी का आईना भी लगीं। तो कई बार उन कहानियों में उसे अपनी जिंदगी का सच भी और झूठ भी खोता हुआ नजर आया है। अपने को भी खोती हुई उसने पाया है, उन कहानियों में। और कई बार अपनी लोथ जिंदगी का सच गल-गल कर खून के थक्के के रूप में उसकी कहानियों में उतरता हुआ भी लगा है। इसी लगने से उसकी अंतिम इच्छा का भी संबंध है। एक महीना पहले उसने महेश से कहा कि अंतिम इच्छा को पूरी होते देखने का समय आ गया है। वह चाहती है कि उसकी पूरी कहानी लिखी जाये। ऐसी कहानी जिसमें उसकी जिंदगी का सच लोथ न हो। ऐसी कहानी जिसमें खून के थक्के न बन गये हों। ऐसी कहानी जिसमें सच के पंख नहीं हों तो कोई बात नहीं मगर पाँव जरूर हों। उतरती हुई साँझ की तरह चुप्पी की चोटी से उतरते हुए महेश ने उससे कहा, यह कहानी तुम्हारी नहीं, तुम्हारी जिंदगी की होगी। अपनी जिंदगी में सिर्फ हम ही नहीं होते हैं। वह भी होता है जो हम हो जाना चाहते थे पर हो नहीं सके। वह भी होता है जिसे कभी हमने अपनी जिंदगी में होने नहीं दिया। वह भी होता है जो हमारे लाख नहीं चाहने पर भी हो गया होता है। वह भी होता है जो हमारी इजाजत की परवाह किये बिना रूप बदल-बदलकर हमारी जिंदगी के किसी कोने में अपना बसेरा बनाये रहता है। जिसे हम पहचान भी नहीं सकते हैं। जिसे तुम अपनी जिंदगी कहती हो उसमें भी सिर्फ तुम्हीं नहीं हो। इसलिए इस कहानी में बहुत कुछ ऐसा भी हो सकता है जिसे तुम पहचान नहीं सको। जिसे अपना हिस्सा न मान सको। लेकिन उन सब को आदर देना होगा। बिना इसके कहानी पूरी नहीं होगी। इस कहानी में आई अपनी जिंदगी को तुम्हें फिर से पहचानना होगा। उसे अपनाना होगा। क्या तुम इसके लिए तैयार हो। शंपा को ये बात कुछ समझ में तो नहीं आई। इतना जरूर समझ पाई कि महेश उसकी अंतिम इच्छा को पूरा करने क रास्ते पर ही निकल पड़ा है। वह आगे बढ़ने के लिए रास्ता टटोल रहा है। उसने हामी भर दी थी। इस एक महीना में महेश ने कम-से-कम सात बार उसको कहानी के अंदर उसको ओर उसके अंदर कहानी को उतारने की कोशिश कर चुका है! अपनी धुन में लगा महेश, कई बार खुश भी हुआ है और कई बार आहत भी। इस कोशिश से शंपा कई बार आहत भी हुई ओर कई बार मुग्ध भी। कई बार महेश को उलझाने में उसे मजा भी आया ओर कई बार खुद उलझ जाने पर पीड़ा भी हुई।
उसे जानने की कोशिश तो करनी ही चाहिए। समझना उसका फर्ज है। आखिर यह कहानी उसकी है।
- देखो बिना तुम्हारे मुँह से सुने .... बिना तुम से जाने मैं ने तुमहारी यह कहानी लिखी है ... कहानी पर तुम्हें कोई एतराज नहीं है ... शीर्षक पर है
बहुत हँसी थी शंपा। हँसते-हँसते दोहरा हो गई थी। हँसी थमने पर कहा -
- हाँ महेश। मेरी कहानी लिखने के लिए उसे मेरे मुँह से सुनना क्या जरूरी है! यह दुनिया पुरुषों की है। इस दुनिया की कहानी भी पुरुषों की ही बनाई हुई है। तुम्हीं ने तो बनाई है मेरी कहानी। मैं तो इसे सिर्फ अपना नाम देना चाहती हूँ। यही है मेरी अंतिम इच्छा ...
महेश को अपने गाँव की वह रात याद आ गई, जिस रात के अँधेरे ने उसके जीवन के अर्थ को ही बदल दिया था। रोजगार के अकाल की भयंकर चपेट में था महेश। एक मोटी समझ बन रही थी दुनियादारी की। बादल अभी-अभी गरज-तरजकर बरस चुका था। लेकिन मेघ जरा भी खाली नहीं हुआ था। आसमान के कोर-कोर में मेघ समाया हुआ था। इतनी बारिश के बावजूद वातावरण धुला-धुला नहीं लग रहा था। महेश अपनी गति से चल रहा था। आसमान में लदबदाये मेघ को देखकर भी उसकी चाल में न तो कोई तेजी थी, न मन में भीग जाने का डर। मन में डर नहीं था, गाँठें थीं। विचारों में कई उलझनें थीं। गाँठों और उलझनों को मन में लिये वह आगे बढ़ता जा रहा था। चाल में हारी हुई होड़ से लौटते हुए बंदों की बेचारगी नहीं थी, न किसी होड़ में शामिल होने की तेजी ही थी। तभी ऊभ-चूभ अन्हरी तालाब को देखकर उसका ध्यान दूसरी तरफ गया। इसी तालाब की मछली को लेकर पिछले साल कितना बड़ा कुकांड हो गया था। पूरा कांड उसकी आँख के सामने नाच गया। आँख के सामने था नाचता हुआ कांड तो मन के भीतर थी टीसती हुई गाँठें और उलझती हुई उलझनें। मन के कपाट को बंदकर वह गाँव में घुसा था।
गाँव की गलियों में कीचड़ भरा हुआ था। घरों से धुआँ उठ रहे थे। जैसे कीचड़ में आग लगी हो। नीम अँधेरे में ऐसा लग रहा था जैसे कीचड़ गाँव की गलियों में ही नहीं गाँव के आसमान में भी पसर गया है। घर के पास पहुँचते ही उसे आवाज सुनाई दी -
- नैं, महेश नैं लौटा है ... सबेरे का गया है... बोल गया है ... कब लौटेगा ... कुछ ठीक नहीं ...
यह रूपा की आवाज थी। अवाज में कचोट थी। कौन उसे पूछने आया था? दोस्त या दुश्मन? इसका अंदाजा उसे नहीं था। पूरा गाँव दो भाग में साफ-साफ बँट गया था। ऐसा ऊपर से लगता था। हकीकत कुछ और थी। दोस्त न पूरी तरह से दोस्त थे, न दुश्मन पूरी तरह से दुश्मन। उसके मन में आया जोर से चिल्लाकर कहे
--- मैं यहाँ हूँ रूपा। मैं तो कहीं गया ही नहीं। मैं तुम्हारे पास ही हूँ।
अँधेरे में आस-पास नहीं दीखता। लेकिन आवाज तो अँधेरे में भी सुनाई देती है। अँधेरे में आवाज ही वजूद का एहसास देती है। लेकिन कंठ से आवाज ही नहीं निकली। तो क्या उसका वजूद ही नहीं है? नहीं-नहीं ऐसा नहीं हो सकता। बहुत सारी जिंदगियाँ अपनी उम्र के अधिकांश में बेआवाज होती हैं, तो क्या वे बेवजूद होती हैं? पता नहीं। लेकिन उसकी जिंदगी बेआवाज नहीं कटेगी अब। आवाज निकलेगी। अँधेरी रात को वह बाँसुरी की तरह बजायेगा।
अँधेरे में पसरे हुए सन्नाटे के बीच महेश ने दुआरी पर पैर रखा था। बेआवाज। चूल्हे में फूँक मारती रुपा को देखता रहा चुपचाप। बरसात के पानी से भींग जाने के बाद सूखी पत्ती को भी लहकाना कितना मुश्किल हो जाता है। लेकिन रूपा भी कहाँ हार माननेवाली थी। और अंत में पत्तियाँ लहक उठीं। धधक एकदम बेकाबू। एक बारगी तो लगा कि छप्पर को चूम लेगी। इस धधक में एक बार चमक उठा रूपा का चेहरा। अग्नि-स्नान से लाल टुह चेहरा। उस लाल टुह-टुह चेहरा पर मगर फिर उस धधक के साथ ही बुझ भी गया। अदृश्य हो गया एक संसार। पिघलकर अँधेरे में तब्दील हो गई हो रूपा। उस अँधेरी दुनिया से उलटे पाँव लौट आया महेश। एक ऐसी दुनिया में जहाँ न रौशनी थी, न अँधेरा था। रौशनी पूरी तरह से देखने नहीं देती थी। अँधेरा पूरी तरह से छुपने नहीं देता था। रौशनी और अँधेरे की इस तनी हुई डोर पर महेश की आँखों के सामने लटकता रहता है रूपा का बुझा हुआ चेहरा। कितना कष्टकर होता है किसी औरत का बुझा हुआ चेहरा देखना! महेश ने पहली बार महसूस किया। माँ हो या बेटी, पत्नी हो या प्रेमिका या फिर कोई शंपा ही क्यो न हो; औरत का चेहरा देखना बहुत ही मुश्किल होता है। औरत को हमेशा कई-कई पर्दों के बीच रहना पड़ता है। शंपा पर्दा के बाहर निकलने के लिए छटपटा रही है। पर्दा की प्रथा इस कठोर दुनिया से निकलकर कहानी की नर्म दुनिया में बसेरा करना चाहती है। पूरी तरह से कहानी में समा जाना चाहती है। नहीं शंपा! नहीं! कहानी की दुनिया में कोई बसेरा नहीं कर सकता है। वहाँ आ-जा सकता है मगर वहाँ की नागरिकता हासिल नहीं कर सकता है। कहानी के अंदर कोई अपना बसेरा बना ले जाये भी तो क्या? कहानी तो रहेगी दुनिया के अंदर ही! बदलना तो दुनिया को ही होगा! हमारी दुनिया होती ही कितनी बड़ी है। हम अपनी-अपनी दुनिया को बेहतर करने की कोशिश करें तो शायद एक दिन दुनिया बेहतर हो जाये! यही तो हो सकती है आदमी की अंतिम इच्छा! अजनबी दुनिया में पहुँच गया था महेश। आजादी में गुलामी और गुलामी में आजादी के होने की दुनिया। ऐसी दुनिया जहाँ शंपा रूपा हो गई थी और रूपा! रूपा शंपा हुई जा रही थी!
महेश के चेहरे को अपने वजूद में समेटते हुए भाव विह्वल हो गई शंपा -
- कहाँ हो महेश। मेरे अनंत में विचरते हुए मेरे कितने नजदीक हो और मुझ से कितने दूर। हाँ यही तो है। यही तो है मेरी अंतिम इच्छा। और कहानी का शीर्षक भी।
अंतिम इच्छा के पंख पर सवार शंपा और महेश उड़ते रहे हैं एक दूसरे के अनंत में।
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