संक्रमण की पीड़ा और अंतर्घात का आघात

संक्रमण की पीड़ा और अंतर्घात का आघात

अब लगभग तय हो चुका है कि इंडिया गठबंधन (I.N.D.I.A – इंडियन नेशनल डेवलेपमेंटल इनक्लुसिव अलायंस) अपना अर्थ खो चुका है या खोने के कगार तक पहुंच गया है। इस परिस्थिति के लिए जवाबदेही तय करने की जल्दबाजी में गंभीर लोग लगे हैं। जवाबदेह किसे ठहराया जाये? हमारी जानकारी में कोई अन्याय या अघटन होता है तो हममें से कुछ लोग जल्दबाजी में जवाबदेही तय करने लगते हैं। जवाबदेही तय करने की जल्दबाजी के मनोविज्ञान पर ध्यान देने से पता चलता है कि किसी मामले में किसी पर जवाबदेही तय हो जाने के बाद बाकी लोग एक तरह से मनोवैज्ञानिक और नैतिक दबाव से खुद को उस अन्याय और अघटन से मुक्त कर लेते हैं, जिसके लिए वे अन्यथा किसी भी प्रकार से जवाबदेह होते ही नहीं हैं।

किसी के साथ कहीं कोई अन्याय या अघटन की सूचना मिलने पर कुछ लोगों पर कोई असर नहीं पड़ता है – सबसे भले मूढ़ मति, जिन्हें  न व्यापे जगत गति! ऐसा इसलिए कि प्रकारांतर से अन्यायी के साथ ही खुद को जोड़ लेते हैं और जो हुआ है उसे अन्याय ही नहीं मानते, इसलिए दोष-बोध होने के किसी मनोवैज्ञानिक प्रभाव का कोई सवाल ही नहीं उठता है! लेकिन जो अन्याय को अन्याय मानते हैं और अन्यायी के साथ अपने को जोड़ नहीं पाते हैं, वे अपराध-बोध में पड़ जाते हैं।

इस तरह से, उन सब पर उस न्याय और अघटन का मनोवैज्ञानिक असर पड़ता है जो उसे अन्याय मानते हैं। ऐसे लोगों को दूर अचेतन मन संकेत देता है कि तुम्हारे रहते यह अन्याय और अघटन हुआ। अन्याय और अघटन की रोक-थाम के लिए तुमने तो कुछ किया ही नहीं या कर नहीं पाये, अतः तुम तुच्छ हो। इसलिए ऐसे लोगों में से कुछ लोग कुछ-न-कुछ करने लग जाते हैं – हजारों मिल दूर कोई सभा, कोई जुलूस आदि निकालने या उसमें अपने मन की शांति के लिए शामिल होते हैं। मन की शांति का अर्थ है, तुच्छता और अपराध-बोध के मनोवैज्ञानिक और नैतिक दबाव से बाहर निकल आना। इसी तरह से श्रेय-संग्रही मन भी काम करता है।

कहीं दूर कोई अच्छा काम हो रहा है तो जो लोग उस काम को अच्छा मानते हैं उस में शामिल होने के लिए मचल उठते हैं। हजारों मील दूर रहकर भी वे उसी की तरह का कोई काम करने लग जाते हैं। इस तरह से वे अच्छे काम के श्रेय के अंशीदार होने के मनोवैज्ञानिक प्रभाव का सुख बटोरते हैं।

नीतीश कुमार तो ऐसे नेता हैं जो दूसरे राजनीतिक दलों को भारतीय जनता पार्टी को सत्ता से बाहर करने के लिए विपक्षी गठबंधन से जोड़ने के लिए ‘अथक’ प्रयास कर रहे थे, और कहां अब खुद भारतीय जनता पार्टी से जा मिले! अब जबकि नीतीश कुमार मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा दे चुके हैं, यह मानने में कोई कठिनाई नहीं होनी चाहिए कि इंडिया गठबंधन (I.N.D.I.A – इंडियन नेशनल डेवलेपमेंटल इनक्लुसिव अलायंस) की चुनावी गतिविधि पर बड़ा और बुरा असर पड़ेगा। खुद नीतीश कुमार भारत के लोक और लोकतंत्र पर जिन खतरों की बात कर रहे थे उसका क्या होगा?

हवा में जोर-शोर से सवाल घूम रहा है – इस परिस्थिति के लिए दोषी कौन? निश्चित ही यह राजनीतिक अन्याय तो है ही। अन्याय किसके प्रति? देश और देश की जनता के प्रति, जिस के खतरे में होने की बात जनता दल (यु) सहित इंडिया गठबंधन (I.N.D.I.A – इंडियन नेशनल डेवलेपमेंटल इनक्लुसिव अलायंस) के सभी घटक दल शामिल रहे हैं। विपक्षी गठबंधन और उसके घटक दलों के प्रति जिसके लिए नीतीश कुमार ने गंभीर राजनीतिक प्रयास किया और जो उनकी बात मान कर विपक्षी गठबंधन में देर-सबेर शामिल हुए थे। अन्याय उन राजनीतिक महापुरुषों के प्रति जिनके असीम बलिदान और त्याग के प्रति जिनकी उत्तरजीविता (पूर्वजों से स्वतः प्राप्त) या उत्तराधिकार के रूप में देश के लोगों को संसदीय लोकतंत्र की व्यवस्था मिली है।

कुछ लोग इसके लिए कांग्रेस और उस से भी अधिक राहुल गांधी को दोष दे रहे हैं। कहा जा रहा है कि राहुल गांधी ने इंडिया गठबंधन (I.N.D.I.A – इंडियन नेशनल डेवलेपमेंटल इनक्लुसिव अलायंस) को बचाने के लिए कुछ नहीं किया। ऐसे लोग ये नहीं बताते हैं कि कौन-कौन काम नहीं किया। वे जरूर कुछ-कुछ बातें कह रहे हैं, लेकिन वे लोग भी जानते हैं कि उनकी बातें पर्याप्त नहीं हैं।

नीतीश कुमार जब राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) से बाहर निकल आये थे, उसके तुरत  पहले भारतीय जनता पार्टी के अध्यक्ष, जेपी नड्डा ने क्षेत्रीय दलों के अवसान के निकट होने की बात, बिहार की राजधानी, उसी पटना में कही थी जहां उनकी सरकार और दल की भी ‘राजधानी’ है। इतना ही नहीं राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) के अन्य घटक दल तो पहले से ही यह महसूस कर रहे थे। नीतीश कुमार जनता दल (यु) ‘अवसान’ से बचाने की बात कहते हुए वे बाहर आये थे और अब जो कहते हुए सुने जा रहे हैं उसका आशय यही है कि कांग्रेस क्षेत्रीय दलों को समाप्त करने की राजनीति करती है। ऐसा था तो कांग्रेस पार्टी को साथ लेकर इंडिया गठबंधन (I.N.D.I.A – इंडियन नेशनल डेवलेपमेंटल इनक्लुसिव अलायंस) के लिए क्यों इतने ‘प्रयत्नशील’ थे! कौन मानेगा इस बात को? हो सकता है, इस मामले में जारी तर्क-वितर्क से इतिहास  इसका दोषी राहुल गांधी को ठहरा दे – तर्क की अपनी शक्ति होती है और शक्ति का अपना तर्क होता है।

कुछ लोग इस के लिए राष्ट्रीय जनता दल और उसके नेता तेजस्वी यादव को भी दोषी ठहराने की कोशिश कर रहे हैं। लेकिन वे यह तो बिल्कुल ही नहीं कह पा रहे हैं कि वे दोषी हैं तो कैसे हैं! लेकिन राष्ट्रीय जनता दल को दोषी ठहराने का कोई तर्क थोड़ा भी आगे नहीं बढ़ पाता है। यहां, राष्ट्रीय जनता दल और तेजस्वी यादव के धैर्य और संयम की सराहना इस समय करनी होगी।  

कुछ लोग नीतीश कुमार को दोष दे रहे हैं। नीतीश कुमार को दोष देनेवालों के पक्ष में अधिक तर्क है। किसी भी तरह के अन्याय होने पर दोषी को ढूंढने के लिए सब से पहले यह पता करना होता है कि उस अन्याय के होने का लाभ किसे मिलता है। यह मानने में किसी को असुविधा नहीं होगी, इसके सबसे बड़े राजनीतिक लाभ-ग्राही नरेंद्र मोदी और नीतीश कुमार हैं, राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) और जनता दल (यु) हैं! इस बात को नहीं मानना बिल्कुल न्याय-संगत नहीं माना जायेगा, क्या पता मान भी लिया जाये।

असल में मानना और न मानना जनता के हाथ में है। लोकतंत्र में किसी भी राजनीतिक घटना के लिए अंततः जनता ही जिम्मेवार होती है। सारी उछल-कूद तो जनता के बल पड़ होती है – जनता का बल पाने के लिए होती है। सामान्यतः ऐसी उछल-कूद पर अपना फैसला देने के लिए प्रखर समाजवादी नेता और चिंतक डॉ. राममनोहर लोहिया के कहे का सहारा लें तो ‘जिंदा कौमें पांच साल तक सड़कों पर मारी-मारी फिरती हैं’ या फिर इंतजार करती हैं! अभी तो 2024 का आम चुनाव सामने है, जिसके लिए ये सारी उछल-कूद हो रही है। डॉ. राममनोहर लोहिया ने बहुत बड़ी बात कही थी, लेकिन तब ‘जिंदा कौम’ के माथे पर ‘पांच किलो’ की कृतज्ञता का बोझ नहीं था। देश के आम नागरिकों को देखना होगा कि ‘लोकतंत्र की शव-साधना’ में लगे लोगों के प्रति ‘पांच किलो’ की कृतज्ञता का बोझ लादे आम मतदाता क्या रुख-रवैया अपनाता है!

भारत निश्चित ही संक्रमण के कठिन दौर से गुजर रहा है और उसकी दुस्सह पीड़ा झेल रहा है। इस दौर में निश्चय ही इसे अंतर्घात और अंतरकलह को झेलना होगा। इस दौर और इस दौर की पीड़ा को ठीक से समझना होगा। संक्रमण के दौर में  अंतरकलह किसी एक केंद्र तक सीमित नहीं रहता है और न तो अंतर्घात किसी एक केंद्र में ही और न एक ही बार में होता है। सभी जमातों में अंतरकलह की तेज-मंद प्रक्रिया एक साथ चलती रहती है और अपने प्रभाव में शीघ्र ही दूसरे को भी ले लेती है। इसी तरह अंतर्घात की घटनाएं भी सभी जमातों में एक साथ होती रहती है और दूसरी जमातों में उन अंतर्घातों के उदाहरण बहुत ही संक्रामक प्रभाव डालते हैं। संक्रमण का दौर अभी लंबा चलेगा। अभी कई उछल-कूद की आशंकाओं से इनकार नहीं किया जा सकता है।

दोष किसी का नहीं, दोष हम जैसे लोगों का है जो कि इस देश के आम नागरिकों और मतदाताओं का ही राजनीतिक रूप से समान अंश हैं, व्यवहारिकता की न पूछिये तो ही बेहतर! डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर ने कहा था, ‘राजनीतिक लोकतंत्र’ को ‘सामाजिक लोकतंत्र’ में बदलना ही सामाजिक न्याय, आर्थिक न्याय आदि को हासिल करने का उपाय है। परिस्थिति ऐसी कि अब तो ‘राजनीतिक लोकतंत्र’ भी खतरा में पड़ता दिख रहा है।

लोग एक दूसरे का हाल-चाल जानने के लिए उनके रहन-सहन पर नजर रखते हैं। किसी को सहने की शर्त्त, कहीं रहने के लिए जरूरी होती है – लोगों को रहना है तो संक्रमण की पीड़ा की चाहे जो भी मात्रा हो सहना ही पड़ेगा, तभी रहन-सहन थोड़ा भी ठीक रह सकेगा। फिलहाल तो चलते रहिए, अलख को लखते रहिए, अलख जगाते रहिए! भारत जोड़ो न्याय यात्रा जारी है!

एक बात जरूर है कि नाव में सवार लोगों को इतनी उछल-कूद नहीं करनी चाहिए कि नाव में छेद ही हो जाये। ध्यान रहे जब डूबती है नैया तब डूबते वे भी हैं जिनके पैर में चमकदार जूते होते हैं, जब डूबता है देश कोई नहीं रह जाता है शेष! कौन गिनेगा किस के दोष, किस-किस के दोष। दुख जितनी पसरी हुई, बहुत लंबी कथा है – शिखर से सागर तक, यहां से वहां तक! जनता ही जनार्दन है, जो फैसला होगा, या हुआ बताया जायेगा, सब को सिर झुका कर मानना ही होगा, शिरोधार्य करना होगा। तब तक फैज अहमद फैज की पंक्तियों को पढ़िये साभार –

निसार मैं तिरी गलियों के ऐ वतन, कि जहां

चली है रस्म के: कोई न सर उठा के चले

जो कोई चाहनेवाला तवाफ़ (परिक्रमा) को निकले

नज़र चुरा के चले जिस्मो-जां बचा के चले”

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