चुनावी घोषणापत्रों को त्रिपक्षीय करार का दर्जा दिया जाये

चुनावी घोषणापत्रों को त्रिपक्षीय करार का दर्जा दिया जाये

पूरब से पश्चिम की ओर राहुल गांधी की भारत जोड़ो न्याय यात्रा चल रही है। यात्रा अभी असम में चल रही है। भारत जोड़ो न्याय यात्रा को असम में संतोषजनक जनसमर्थन मिल रहा है। इससे पता चलता है कि राहुल गांधी का संदेश असम के लोगों तक पहुंच रहा है, और ठीक से संप्रेषित भी हो रहा है। ऐसा नहीं होता तो असम में भारतीय जनता पार्टी की सरकार के मुख्यमंत्री के मन में इतनी बौखलाहट नहीं होती।

बौखलाहट में प्राथमिकी (FIR) दर्ज हो गई है। प्राथमिकी (FIR) का जो भी कारण हो, मूल बात है कि वह सरकार की इच्छा से दर्ज हुई है। गिरफ्तारी की भी बात कही गई है। सावधानी यह भी बरती गई है कि गिरफ्तारी चुनाव के बाद की जायेगी। जाहिर है, जो हुआ है सरकार की मर्जी से हुआ है और आगे भी जो होगा सरकार की मर्जी से ही होगा।

यहां, थोड़ा ठहरकर ध्यान से इसे समझने की कोशिश जरूरी है। पुलिस के काम में सरकार के खुलमखुल्ला हस्तक्षेप या दखलंदाजी को उचित कहा जा सकता है? पुलिस कब प्राथमिकी (FIR) दर्ज करेगी, उस पर कब कार्रवाई करेगी, क्या कार्रवाई करेगी, कौन-कौन-सी धाराएं लगायेगी, गिरफ्तारी के बाद और क्या सलूक करेगी सब सरकार खुद ही तय करेगी?

यह विरल मामला नहीं है। यह आम अनुभव में है कि बड़े-बड़े राजनीतिक मामलों में ही नहीं, नागरिकों के मामलों में भी अपने शरणागतों को बचाने और शत्रुओं को सताने के लिए विभिन्न विभागों के कामकाज में सरकार सीधे दखल देती है। क्या यह अन्याय नहीं है? बिल्कुल अन्याय है।

अन्याय का वातावरण बहुत भयानक है। इस तरह के भय और अन्याय को दूर करने तथा भयमुक्त, स्वच्छ एवं स्वतंत्र न्याय को सुनिश्चित करने के लिए ही तो भारत जोड़ो न्याय यात्रा को त्रस्त जनता का समर्थन मिल रहा है। भारत जोड़ो न्याय यात्रा को मिल रहा जनसमर्थन इस यात्रा की विघ्न-बाधाओं को तो दूर करती रहेगी, लेकिन सवाल उससे बड़ा है। लोकतंत्र में चुनाव का महत्व होता है। जनसमर्थन की असली अभिव्यक्ति तो चुनाव नतीजों में ही होती है।

2024 का आम चुनाव बहुत महत्त्वपूर्ण है। केंद्रीय चुनाव आयोग का केंद्रीय दायित्व है कि भयमुक्त, स्वच्छ एवं स्वतंत्र वातावरण में यह चुनाव संपन्न हो। आम नागरिकों को साफ तौर पर केंद्रीय चुनाव आयोग का पलड़ा सरकारी दल की तरफ झुकता हुआ या झुका हुआ नजर आ रहा है। ऐसे में अन्य विभागों से भी और खासकर सुप्रीम कोर्ट को आम नागरिक उम्मीद की नजर से देख रहा है।

केंद्रीय चुनाव आयोग के आयुक्तों की नियुक्ति में भले सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश की भूमिका सीमित या समाप्त कर दी गई है। चुनाव प्रक्रिया संबंधी कई मामलों को न्यायिक समीक्षा से बाहर निकाल लिया गया है। फिर भी उम्मीद तो सुप्रीम कोर्ट से है ही। आम नागरिकों की तरफ से यह कहने की जरूरत नहीं है सुप्रीम कोर्ट अपनी बची हुई भूमिका के बारे में सतत सचेष्ट रहना चाहिए।

लोकतंत्र नागरिक स्वतंत्रता की बुनियाद है। चुनाव आयोग भले ही चुनाव व्यय की कोई भी सीमा तय कर रखी हो सभी जानते हैं कि इसका कोई वास्तविक मतलब बचा नहीं है। चुनाव में धन की भूमिका खतरनाक ढंग से बढ़ गई है। खासकर सरकारी दल के द्वारा किये जानेवाले चुनावी व्यय की तो कोई सीमा ही नहीं, न कोई निगरानी है, न कोई नियंत्रण है।

चुनावों में खर्च किया जानेवाला धन राजनीतिक दलों के पास कहां से आता है। आम नागरिकों की जानकारी में यह होना ही चाहिए कि कितना आता है, किस-किस के पास आता है, इस आने में ‘इसके बदले वह (क्विड प्रो क्वो)’ का कोई नाजायज और गैर-कानूनी प्रसंग तो नहीं है। धन का इस्तेमाल नागरिक स्वतंत्रता की गुणवत्ता के क्षरण और लोकतांत्रिक मूल्यों के अपहरण के लिए नहीं किया जा सकता है।

धन स्वतंत्रता का एवजी नहीं हो सकता है, लेकिन मनुष्य के जीवन में धन के महत्त्व से कौन इनकार कर सकता है। समाज को भारी उथपुथल या अंतर्ध्वंस से बचाने के लिए धन गुलामों की धन लिप्सा और धन क्षुधा को नियंत्रित, नियमित करना लोकतांत्रिक सत्ता का काम है। मुश्किल यह है कि लोकतांत्रिक सत्ता पर काबिज लोगों की अपनी ही धन लिप्सा और धन क्षुधा काबू में नहीं है, वे निरंतर धन गुलाम होते जा रहे हैं, दूसरों को भी धन गुलाम बनाने में लगे रहते हैं।

मनुष्य को विभिन्न विरुद्धों की एकमयता में जीने का अभ्यास रहा है, इस अभ्यास को अधिक तत्परता से जारी रखने की जरूरत है। इसलिए सब कुछ के बाद भी आशा तो लोकतांत्रिक सत्ता, संस्थानों और प्रक्रिया से है। दुहराव के जोखिम पर भी बार-बार कहने की जरूरत है, लोकतांत्रिक सत्ता के बनने में भयमुक्त, स्वच्छ एवं स्वतंत्र चुनाव का अपना महत्त्व है।

धन के प्रवाह धन के आने-जाने का तौर-तरीका किसी के भी व्यक्तित्व के चरित का आईना होता है, सामाजिक और राजनीतिक व्यक्तित्व का भी। राजनीतिक दलों के चाल-चरित्र-चेहरा के बारे में जानने का हक नागरिकों को होना चाहिए।

खासकर तब जब, देश के नागरिकों की आमदनी के स्रोत को जांचने-परखने एवं उसकी वैधता पर विचार का अधिकार विभिन्न विभागों के माध्यम से सरकार है। आय के घोषित स्रोत के अनुपात में अधिक संपत्ति पर कानूनी कार्रवाइयों का अधिकार भी विभिन्न विभागों के माध्यम से सरकार को है। नागरिकों के बारे में यह सब जानने का अधिकार सरकार को संविधान के अंतर्गत विभिन्न प्रावधानों से मिला है।

संविधान को ‘भारत के लोगों’ ने पूरी निष्ठा के साथ आत्मार्पित किया है, अपने पर लागू किया है, यही इसकी ताकत है, यही इसकी वैधता है। राजनीतिक दलों ने चुनाव में कितना धन खर्च किया यह जानने और उसे नियमित करने का अधिकार भारत के केंद्रीय चुनाव आयोग को है। राजनीतिक दलों को मिलनेवाले ‘धन का स्रोत और मात्रा’ बताने में सरकार के समक्ष कोई कानूनी अड़चन हो या खुद सरकार ही आना-कानी कर रही हो तो उसे दूर करने का प्रयास किया जाना चाहिए।

यह बात ध्यान में होना ही चाहिए कि राजनीतिक दल सदस्यों का होता है। सरकार देश के लोगों का होता है। इस फर्क को बनाये रखने का संवैधानिक दायित्व सरकार एवं सरकारी संस्थाओं का है। लोकतांत्रिक तरीके से देश के शासन का सत्ता-अधिकार प्राप्त करनेवाले राजनीतिक दल और सरकार के बीच का फर्क कम हो जाये, या मिट ही जाये तो, देश के लोगों की एवं लोकतंत्र की भी मुश्किलें बढ़ जाती है। लोकतांत्रिक शासन के प्रमुख ‘राजनीतिक आका’ की तरह व्यवहार करने लगे हैं।

ऐसे में, तैतत (तैनाती, तबादला, तरक्की) साधना और लाभ-लोभ में फंसे ‘प्रतिबद्ध नौकरशाह’ के ‘राजनीतिक कार्यकर्ता’ बनते क्या देर लगती है! सत्ता-अधिकार प्राप्त राजनीतिक दल और सरकार के फर्क के कम होने या मिटने से कौन रोके! लाभ-लोभ के चक्कर में पड़े नौकरशाहों का लगभग पूरा ही तंत्र सत्ता-अधिकार प्राप्त राजनीतिक जत्था के नजरिया से तर्क और उसका परिप्रेक्ष्य गढ़ने लगता है। समझना होगा कि मुश्किल अदालतों के समक्ष भी कम नहीं है, फिर भी उम्मीद तो उस से है।

आम चुनाव में राजनीतिक घोषणापत्र का बड़ा महत्त्व होता है। उसे देख समझकर ही किसी राजनीतिक दल को आम नागरिकों का समर्थन मिलता है। मतदान में मतदाताओं का रुझान बहुत कुछ घोषणापत्र से तय होता है। सच है, मतदान को प्रभावित और प्रेरित करनेवाले और भी बहुत सारे प्रत्यक्ष, अप्रत्यक्ष कारक होते हैं।

चुनाव घोषणापत्र कानूनी दस्तावेज नहीं होता है। घोषणापत्र, संकल्पपत्र या वादा राजनीतिक दलों का होता है, सरकार का नहीं। घोषणापत्र तैयार करनेवालों और सरकार चलानेवालों में फर्क होता है। सरकार भले ही इन्हें लागू न करे, लेकिन आम नागरिकों को हक है कि वह इन्हें तैयार करनेवालों से इसे लागू न किये जाने के बाबत जवाब-तलब करे। हक से पूछ सके कि घोषणापत्र के वायदे पूरे क्यों नहीं किये गये! इसमें पांच साल लग जाते हैं।

समाजवादी चिंतक और नेहरू युग में विपक्ष के प्रखर नेता डॉ. राम मनोहर लोहिया कहा करते थे, जिंदा कौमें पांच साल तक इंतजार नहीं करतीं। जनता अपनी मांग और जरूरतों के अनुसार आंदोलन करती रहती है। लोकतंत्र में अहिंसक और अनुशासित आंदोलन अपनी मांग मनवाने का प्रमुख औजार होता है।

आंदोलन का अधिकार लोकतंत्र के होने का बुनियादी लक्षण है। आंदोलन का अनादर सीधे सरल शब्दों में कहा जाये तो, लोकतंत्र का अनादर होता है। आंदोलनकारी को आंदोलनजीवी कहना लोकतंत्र का मजाक उड़ाना है। आंदोलनों को कई बार सत्ता अवैध ठहरा देती है।

राजनीतिक दल जिस घोषणापत्र के सहारे बहुमत और सत्ता-अधिकार हासिल करते हैं उस घोषणापत्र के हवा-हवाई ठहरने या उसे लागू न किये जाने पर समय-बद्ध से विचार जरूरी होना चाहिए। आवश्यक हो तो ऐसे घोषणापत्र को अवैध और जनता से धोखाधड़ी घोषित किया जाना चाहिए।

थोड़ा मुश्किल है, लेकिन दलीय और निर्दलीय घोषणापत्रों का राजनीतिक दलों, केंद्रीय चुनाव आयोग और आम नागरिकों के बीच के त्रिपक्षीय (टीपीए) करार का दर्जा दिया जाना जरूरी है। भारत का सुप्रीम कोर्ट इस करार के गवाह के रूप में किसी नागरिक समूह या समिति को प्राधिकार सौंप सकता है।

नागरिक जमात को कहना चाहिए- चुनावी घोषणापत्रों को त्रिपक्षीय (टीपीए) करार का दर्जा दिया जाये।

बहुत बलिदान और संघर्ष के बाद भारत आजाद हुआ। आजादी के बाद इसके जीवन में लोकतंत्र और हाथ में संविधान आया। लोकतंत्र में प्रजा उन्नत होकर नागरिक बना। नागरिक संप्रभु हुआ। विपन्न नागरिक भी अधिकार संपन्न हुआ। नागरिक को राजनीतिक समानता का अधिकार और सामाजिक समानता का आश्वासन मिला।

यह सब आम नागरिकों के द्वारा आत्मार्पित संविधान की सर्वोच्चता के तहत हुआ। आज राजनीतिक दल नागरिकों के पास सेवा और शासन का अधिकार पाने के लिए अर्जी लगाते हैं। आम नागरिक मतदाताओं से प्राप्त बहुमत के आधार पर उन्हें सेवा और शासन का जनादेश मिलता है। बहुमत को बहुसंख्यकवाद में बदलने की इजाजत संविधान नहीं देता है, ऐसा होता है तो जनमत सत्ता-अधिकार तक सीमित रह जाता है।

इधर, हमारे राजनीतिक नेताओं में राजा बनने की इच्छा कुछ अधिक ही जोर मारने लगी है; जो जितना बड़ा नेता वह अपने को उतना ही बड़ा राजा मानकर चलता है। आम नागरिकों का ही नहीं, विशिष्ट नागरिकों का भी बड़ा अंश लोकतांत्रिक नेताओं की इस राजतांत्रिक इच्छा को सलाम करता है।

राजा के मन में सवाल-जवाब के लिए कोई सम्मान नहीं होता है। मीडिया और प्रेस का कारोबार तो सवाल-जवाब से ही चलता है, जनता के सवाल और शासक के जवाब। चूंकि, सवाल-जवाब के लिए कोई जगह नहीं तो मीडिया या प्रेस को अपने आस-पास फटकने नहीं दिया जाता है। मीडिया को तब भी नहीं फटकने दिया जब वह इमर्सिव होकर पूरी तरह से काबू में है।

दिलचस्प होगा जानना कि आम नागरिकों के जानने के हक, लोकतांत्रिक दुरवस्था, सामाजिक, आर्थिक न्याय, राजनीतिक, संवैधानिक न्याय पर कौन क्या रुख अपनाता है। याद करें गालिब की स्थिति को, हाल वही है, रोकने और खींचने की कशिश—

ईमाँ मुझे रोके है, तो खींचे है मुझे कुफ़्र

काबा मेरे पीछे है, कलीसा मेरे आगे”

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