कंठरोध

कंठरोध

नौजवान क्या कहें, हाँ नौजवान ही कहना होगा। बड़े बुजुर्ग कह गये हैं, जब समझदारी आती है — जवानी चली जाती है। हालाँकि इस से यह नहीं समझना चाहिए कि जिन में समझदारी नहीं होती है, वे जवान बने रहते हैं। बात बस समझाने के लिए बुजुर्ग कह गये हैं। समझाने के लिए कही बात को अधिक नमराना नहीं चाहिए ¾ या तो समझने के लिए उसे मान जाओ या फिर न मानो! मेरी मुश्किल यह है कि टेका, यह उस का पुकारे नाम है, शुरू ही हुआ था कुछ इस तरह : -

-      दादा! कुछ समझ में नहीं आ रहा। क्या करूँ? क्या न करूँ!

इतना बोलकर टेका चुप हो गया। वह काफी हताश दिख रहा था। उसका उत्साह सब से निचले स्तर पर था। आसपास किसी का कोई काम हो, किसी को कोई परेशानी हो, टेका हर किसी के पास खड़ा होता था। कोई भेद नहीं, अपना है, पराया है, किस ने उसके साथ कब क्या सलूक किया था पहले कभी ¾ उसके ध्यान में नहीं रहता है यह कुछ। वह सिर्फ आदमी और उसकी मुसीबत को समझता है, निदान की कोशिश करता है। उस ने मेरी भी मदद की है, खासकर करोना के समय। उसे पस्त हाल देखकर मेरा असहज होना लाजिमी है। उसकी समझ में क्या नहीं आ रहा और क्या समझना चाहता है, मैं उसे कितना समझा सकता हूँ ¾ यह मेरी समझ में नहीं आ रहा। फिर भी उसकी चुप्पी को समझने की पहल तो करनी होगी।

-      क्या हुआ टेका जरा खुलकर बोलो, तो कुछ समझ में आये। वह फिर भी चुप बना रहा।

इन दिनों, मुझे एक परेशानी यह हो गई है। गला एकदम जाम रहता है। आवाज ठीक से नहीं निकलती है। पत्नी को इससे काफी परेशानी होती है। जो बोलता हूँ, उसे ठीक से पकड़ नहीं पाती है। किसी बाबाजी से सुन रखा था ¾  मूक होय वाचाल। इसे बुदबुदा देती है, उलटकर वाचाल होय मूक। करुणाकर की कृपा से ही दोनों होता है। एक किताब है – मूक नायक। फिलहाल मेरे पास नहीं है। एक दिन तंग आ कर डाक्टर से मिला। डाक्टर ने इसे बहुत हलके से लिया। टालते हुए कहा कि उम्र के कारण है। गले में बलगम फँसा रह जाता है। जब भी बोलें गला खखार कर, साफ कर बोलें। डाक्टर को कुछ बताना चाहा तो उसने हँसकर कहा

-      निमाई बाबू ¾ डाक्टर हम हैं, बोल रहे हैं कि कुछ नहीं हुआ है, ऐसा होता है। यह कोई बीमारी नहीं है, न इसकी कोई दवा है। आप अब आइए – नेक्स्ट।

मैं जल्दी से बाहर आ गया। पत्नी के पूछने पर मैं ने बताया  ¾ बोला कंठरोध हो गया है, गुनगुना पानी में एक चुटकी सेंधा नमक मिलाकर गरारा करने से ठीक हो सकता है। पत्नी से झूठ बोला। उसे शांति मिली। मैं इस झूठ को जानता था। न कभी सेंधा नमक आया, न कभी न गुनगुना पानी से गरारा की नौबत। बात आई-गई हो गई। लेकिन कंठरोध को मैं जानता हूँ। मैं ने गला साफ करते हुए फिर पूछा:

-      क्या हुआ जरा खोलकर बोलो, तो कुछ समझ में आये। वह फिर भी चुप बना रहा।

-      क्या बोलूँ! कुछ समझ में नहीं आ रहा।

मुझे खुद ही समझना होगा कि आखिर टेका को हुआ क्या है। चारों तरफ जो माहौल है, कभी भी किसी के साथ कुछ भी हो सकता है। उस ने मेरी तरफ उड़ती नजर से देखा और उठकर चला गया, कहते हुए :

-      अभी आता हूँ।

उसे थके कदम से जाता हुआ देखता रहा। वह फिर आयेगा, यकीनन। मैं सोचने लगा कि आखिर उसे हुआ क्या है। फिर आये तो क्या कहूँगा! किसी नतीजे पर नहीं पहुँच पा रहा हूँ।

क्या आप के आसपास भी कोई टेका रहता है! बता सकते हैं कि टेका को हुआ क्या है, आखिर। सोचने पर कुछ मिले तो बताइयेगा, मेरी मदद होगी।

 

5 टिप्‍पणियां:

Sweta sinha ने कहा…

जी सर, मुझे तो महसूस हो रहा है एक "टेका" तो मैं स्वयं हूँ।
विचारणीय विश्लेषण।
सादर।
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जी नमस्ते,
आपकी लिखी रचना शुक्रवार ४ अगस्त २०२३ के लिए साझा की गयी है
पांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं।
सादर
धन्यवाद।

प्रफुल्ल कोलख्यान / Prafulla Kolkhyan ने कहा…

संवेदना के साझापन के लिए आभार श्वेता। समाज में टेकाओं की बढ़ती आबादी पर गौर करना, ऐसा कोई मिल जाये तो उसके साथ बेहतर मानवीय सलूक करना तो जरूरी है ही, उससे भी अधिक जरूरी है अपने और अपनों की आत्मा में टहल रहे टेका को पहचानना, और उसे हौसला देना। संवाद, निरंतर संवाद ही संवेदना के साझापन को संभव कर सकता है। शुक्रिया श्वेता।

Abhilasha ने कहा…

हृदय को स्पर्श करती आपकी रचना। संवाद ही बढ़ती दूरियों को मिटा सकता मन की भावनाओं को अभिव्यक्त करना आवश्यक है। संवेदना के मर्म तक संवाद से ही पहुंचा जा सकता है।

सुशील कुमार जोशी ने कहा…

हम खुदही हो जावे हैं टेका कई बार :) वाह

प्रफुल्ल कोलख्यान / Prafulla Kolkhyan ने कहा…

आभार अभिलाषा जी, इस पोस्ट पर टिप्पणी के लिए। कितनी सरल और तरल है आप की संवेदना - “हर पल को जीना और भरपूर जीना ही जिन्दगी है मौत का क्या वह तो बिन बुलाए चली आएगी। कल में नहीं बस पल में जिन्दगी है।” यही है जीने का सलीका। प्रेरक भी। अपनी संवेदना से सींचते रहिए। आभार, अभिलाषा।

आभार सुशील कुमार जोशी जी, इस पोस्ट पर टिप्पणी के लिए। आपकी बात अच्छी लगी – “ना कविता लिखता हूँ ना कोई छंद लिखता हूँ अपने आसपास पड़े हुऎ कुछ टाट पै पैबंद लिखता हूँ ना कवि हूँ ना लेखक हूँ ना अखबार हूँ ना ही कोई समाचार हूँ जो हो घट रहा होता है मेरे आस पास हर समय उस खबर की बक बक यहाँ पर देने को तैयार हूँ।” एक नागरिक और कर भी क्या सकता है हम सब, लगभग यही कर रहे हैं, वैसे अपने-अपने भ्रम हैं। भ्रम में सुख है। सुख की आकांक्षा हर किसी को है। सुख का हक भी। मुझे भी प्रेरित करते रहिए। आभार, सुशील।