कुछ तो हक
अदा हुआ
नागार्जुन |
मिथिला में नहीं काशी में दिसंबर 1931 में लिखी मैथिली कविता 'अंतिम प्रणाम' मैथिली में बहुचर्चित है। दुख के सागर को पार करने अर्थात बौद्ध दिशा में आगे बढ़ते हुए उनके मन में गहरा द्वंद्व रहा होगा। नागार्जुन विवाहित थे और बौद्ध दिशा में आगे बढ़ने में यह बाधक था। ऐसे अवसरों पर जन्मना महान लोगों के मन में तो नहीं लेकिन साधारण लोगों के मन में एक असाधारण द्वंद्व उत्पन्न होता है। यही द्वंद्व साधारण को असाधारण बनाता है। बहरहाल, 'अंतिम प्रणाम' की कुछ पंक्तियां इस प्रकार हैं – 'हे मातृभूमि, अंतिम प्रणाम / अहिवातक पातिल के फोड़ि-फाड़ि / पहिलुक परिचयकेँ तोड़ि-ताड़ि / पुरजन-परिजन सब छोड़ि-छाड़ि / हम जाय रहल छी आन ठाम / माँ मिथिले, ई अंतिम प्रणाम'। यह कविता नागार्जुन को समझने के लिए बहुत महत्त्व की है। यह तो सबको मालूम ही है कि अंतिम समय तक नागार्जुन का लगाव न सिर्फ मातृभूमि से बना रहा, बल्कि वैवाहिक शुभ-घट की मार्यादा को भी उन्होंने खूब निभाया। रवींद्रनाथ ठाकुर की कविता के शब्द 'युग-युग धावित यात्री' की प्रेरणा से मैथिली में अपना नाम न सिर्फ यात्री रखा बल्कि उसे सार्थक भी किया। कई घरों को अपना घर बनानेवाले नागार्जुन का अपना घर कभी पराया नहीं हुआ; वे घरों में रहते हुए कभी अपने घर को भूल नहीं पाये और न अपने घर में रहते हुए कभी घरों को भूल पाये। नागार्जुन छोड़कर नहीं साथ लेकर ही आगे बढ़ते थे। आगे बढ़ने के दौरान भले ही कुछ छूट जाए तो छुट जाए। महत्त्व आगे बढ़ने का रहा। इसलिए तत्काल को केंद्र में रखकर लिखी गई कविताएँ कालातीत हो जाती हैं, स्थान को लेकर लिखी कविताएँ स्थान की सीमाओं को अतिक्रमित कर जाती हैं, व्यक्ति को केंद्र में रखकर लिखी गई कविताएँ परा-वैयक्तिक हो जाती हैं, घटना के केंद्र में रखकर लिखी गई कविताएँ घटनातीत हो जाती हैं। नागार्जुन बचपन को छोड़कर यौवन में नहीं आते और अपने बुढ़ापे में भी बचपन और यौवन को बरकरार रखते हैं; यही कारण है कि नागार्जुन की कविताएँ हर पीढ़ी के सहमेल में होकर भी उससे कुछ भिन्न होती हैं। नागार्जुन की यात्रा बहुत टेढ़े-मेढ़े और उभर-खाबड़ रास्तों के तीखे मोड़ों को पार करते हुए जारी रहती है। नागार्जुन के सामने कविता का कोई राजपथ उपलब्ध नहीं था। स्वाभाविक है कि कई लोगों को उसमें भटकाव नजर आने लगता है, यह नागार्जुन का भटकाव नहीं बनाव है। इस बनाव को ध्यान में रखकर ही नागार्जुन की बाँग्ला कविताओं को समझा जा सकता है।
बाँग्ला नागार्जुन के लिए कोई अन्य भाषा नहीं
थी। नागार्जुन की मातृभाषा मैथिली और बाँग्ला में सामिप्य और समानता दोनों है।
मैथिली के कवि विद्यापति ठाकुर को बाँग्ला के आदि कवियों के साथ पढ़ा जाता है। एक
समय विद्यापति को बंग-संतान ही नहीं
रवींद्रनाथ ठाकुर की वंश-परंपरा के पूर्व-पुरुषों से जोड़कर
भी देखा जाता था। विद्यापति की पदावली अंत में ब्रज नारी को संबोधित करती है, लेकिन ब्रज की दिशा
में विद्यापति की पदावलियों का प्रसार मुश्किल ही बना रहा जबकि बंगाल समेत
पूर्वांचल में उसका सहज प्रसार हुआ। बंगाल और मिथिलांचल में खान-पान, रहन-सहन, आचार-आचरण, समुदाय-संघटन, रीति-रिवाज भाषिक संरचना
और लिपि के साम्य के सांस्कृतिक संकेतों को पढ़ना बहुत कठिन नहीं है। तात्पर्य यह
कि बाँग्ला और हिंदी नागार्जुन की कविता के लिए अपनी मातृभाषा मैथिली का ही
विस्तार है। हालाँकि, आरंभ में विद्या और ज्ञान की भाषा संस्कृत बनी। कविता की
शुरुआत भी संस्कृत में ही हुई थी। संस्कृत के लिखित साहित्य का अपना महत्त्व है।
लेकिन अगली रचनाशीलता की धुरी से संस्कृत के छिटक जाने की बात तो बहुत पहले सामने
आ गई थी। तथापि,
संस्कृत
भाषा के तत्त्व और कौशल के महत्त्व को भारत के बड़े कवियों ने अपने-अपने ढंग से बरता।
नागार्जुन ने भी संस्कृत के भाषिक तत्त्वों का खूब इस्तेमाल किया। संस्कृत में काव्यतीर्थ की परीक्षा के चलते
कोलकाता में रहना हुआ। इस बीच नागार्जुन का परिचय बँगला साहित्य से हुआ और यह
परिचय आजीवन बना रहा। कोलकाता को नागार्जुन अपना दूसरा घर मानते थे।
शोभाकांत बताते हैं मौलिक रूप से बाँग्ला लिखना फरवरी 1978 से शुरू किया। यह जानना दिलचस्प होगा कि बाँग्ला भाषा-साहित्य से भली-भाँति परिचित होने के बावजूद नागार्जुन ने 1978 के पहले बाँग्ला में कविता लिखने की बात क्यों नहीं सोची और 1978 में ऐसी क्या बात थी कि नागार्जुन ने बाँग्ला में मौलिक रूप से लिखना शुरू कर दिया। क्या नागार्जुन आपातकाल के बाद किसी नई शुरुआत की तैयारी कर रहे थे? यहाँ ठहरकर यह याद कर लेना जरूरी लग रहा है कि सी.पी.आई. ने 1975 में घोषित राजनीतिक आपातकाल का समर्थन ही किया था जबकि सी.पी.आई (एम) ने विरोध किया था। नागार्जुन ने भी इस राजनीतिक आपातकाल का पुरजोर विरोध किया था। नागार्जुन ने लगभग सत्तर की उम्र में बाँग्ला कविता लिखना शुरू किया था। सत्तर की उम्र तक पहुँचते-पहुँचते तो बहुत सारे महत्त्वपूर्ण लेखकों का लेखन स्वाभाविक रूप से स्थगन के दौर में प्रवेश कर जाता है, जबकि नागार्जुन की रचनाशीलता अपनी नई शुरुआत की ओर बढ़ने की कोशिश कर रही थी। जो भी हो नागार्जुन ने बाँग्ला में कई कविताएँ लिखी जिन में से कई छपी और चर्चित भी हुईं। इन तमाम बातों के बावजूद नागार्जुन मूल रूप से हिंदी के ही कवि हैं। उनका मन हिंदी में ही रमता था। इसके कारण हैं। बाँग्ला हो या मैथिली हिंदी की तुलना में ये सांस्कृतिक भाषाएँ अधिक है और इनकी तुलना में हिंदी राजनीतिक भाषा अधिक है। नागार्जुन अपने मूल रूप में राजनीतिक कवि हैं। नागार्जुन की बाँग्ला कविताओं का महत्त्व तो कई दृष्टियों से है लेकिन मुख्य बात यह है कि नागार्जुन के रचनाशील मिजाज को समझने में इन से कुछ मदद मिल सकती है।
शोभाकांत बताते हैं मौलिक रूप से बाँग्ला लिखना फरवरी 1978 से शुरू किया। यह जानना दिलचस्प होगा कि बाँग्ला भाषा-साहित्य से भली-भाँति परिचित होने के बावजूद नागार्जुन ने 1978 के पहले बाँग्ला में कविता लिखने की बात क्यों नहीं सोची और 1978 में ऐसी क्या बात थी कि नागार्जुन ने बाँग्ला में मौलिक रूप से लिखना शुरू कर दिया। क्या नागार्जुन आपातकाल के बाद किसी नई शुरुआत की तैयारी कर रहे थे? यहाँ ठहरकर यह याद कर लेना जरूरी लग रहा है कि सी.पी.आई. ने 1975 में घोषित राजनीतिक आपातकाल का समर्थन ही किया था जबकि सी.पी.आई (एम) ने विरोध किया था। नागार्जुन ने भी इस राजनीतिक आपातकाल का पुरजोर विरोध किया था। नागार्जुन ने लगभग सत्तर की उम्र में बाँग्ला कविता लिखना शुरू किया था। सत्तर की उम्र तक पहुँचते-पहुँचते तो बहुत सारे महत्त्वपूर्ण लेखकों का लेखन स्वाभाविक रूप से स्थगन के दौर में प्रवेश कर जाता है, जबकि नागार्जुन की रचनाशीलता अपनी नई शुरुआत की ओर बढ़ने की कोशिश कर रही थी। जो भी हो नागार्जुन ने बाँग्ला में कई कविताएँ लिखी जिन में से कई छपी और चर्चित भी हुईं। इन तमाम बातों के बावजूद नागार्जुन मूल रूप से हिंदी के ही कवि हैं। उनका मन हिंदी में ही रमता था। इसके कारण हैं। बाँग्ला हो या मैथिली हिंदी की तुलना में ये सांस्कृतिक भाषाएँ अधिक है और इनकी तुलना में हिंदी राजनीतिक भाषा अधिक है। नागार्जुन अपने मूल रूप में राजनीतिक कवि हैं। नागार्जुन की बाँग्ला कविताओं का महत्त्व तो कई दृष्टियों से है लेकिन मुख्य बात यह है कि नागार्जुन के रचनाशील मिजाज को समझने में इन से कुछ मदद मिल सकती है।
नागार्जुन की बाँग्ला कविताओं का देवनागरी
लिप्यंतर और और उनके हिंदी अनुवाद का संग्रह 1997 में 'मैं मिलिट्री का
बूढ़ा घोड़ा'
नाम से
छपा। नागार्जुन की कविताओं की खासियत व्यंग्य में झलकती है। नामवर सिंह ने तो
नागार्जुन के व्यंग्य पर बहुत सटीक टिप्पणी की है। नागार्जुन के व्यंग्य-बोध में आत्म-व्यंग्य के लिए भी
बहुत जगह है। बाँग्ला की दो कविताओं में नागार्जुन के गहरे आत्म-व्यंग्य को गंभीरता
से रेखांकित किया जा सकता है – एक कविता है 'भावना प्रवण यायावर' और दूसरी कविता है 'आमि मिलिटारिर बूड़ो
घोड़ा'। 'भावना प्रवण यायावर' की पंक्तियां हैं – 'भावना प्रवण यायावर / ओइ जे बुड़ो मानुष / आध पागला झानु / हयत मारा जाबेन एक
दिन /
ट्राम
लाइने धारे पड़े थाकबेन //
केउ
नेइ जे ओके बुझिए-सुझिए / कोथाओ बसिये राखबे..'। इसके साथ ही 'आमि मिलिटारिर बूड़ो
घोड़ा'
की इन
पंक्तियों को रखकर देखना चाहिए – 'आमि
/ मिलिटारिर बुड़ो
घोड़ा /
आमा के
ओरा कोरबे निलाम /
कोनो
चतुर ताँगावाला /
निये
जाबे आमाके /
बोसिये
देबे चोखेर धारे /
रंगीन
खोलश /
बलते
थाकबे :
/ सामने
चल बेटा /
सामने
चल /
सामने...'। कितने अकेलेपन और
कैसी नियति के सामने खड़ा है भावना प्रवण वृद्ध मनुष्य! विकल्प क्या है! संघर्षशील रचनाशीलता
और जन-विवेक से संपन्न
किंतु जीवन की भौतिक सुविधा से विपन्न कवि का प्रतीक सेना का बूढ़ा घोड़ा किसी
ताँगावाला के इशारे पर सामने चलने के लिए बाध्य होगा या फिर ट्राम लाइन के किनारे
किसी दिन मरा हुआ पाया जायेगा। इस ताँगेवाले की पहचान क्या सचमुच मुश्किल है! इन कविताओं साथ ही
छोटी-सी कविता 'विप्लव विलास' की
पंक्तियों को भी देखना जरूरी है,
क्योंकि
ये पंक्तियाँ उस भाषा में है जिस भाषा से जुड़े नागार्जुन की विचारधारा के लोगों
को जनता ने मुग्ध करते हुए अभी-अभी संसदीय-सत्ता सौंपी थी और
इसी के साथ ही विप्लव का नया रास्ता खुलनेवाला बताया जा रहा था। कविता 'विप्लव विलास' के संभव होने की
तारीख 20 अगस्त 1978 बताई गई है और
पंक्तियाँ हैं – 'कुंठित होइ कखनो एवं
कखनो हताश /
ओरा
कोरुक वितर्को,
आमि
फेल न कि पास /
थर थर
काँपिते छे,
दुर्बल
हाथेर ताश /
बुड़ो
वयसे खाप खाएनि विप्लव विलास'। कितना उद्दंड
साबित हुआ बूढ़े वयस में विप्लव से विलास का संयोग, इसे बिना किसी गहन विश्लेषण
के महसूस करना क्या आज भी कठिन है! इसी तरह एक कविता 5 नवंबर 1978 की है 'निर्लज्य नाटक' । 'निर्लज्य नाटक' की पंक्तियाँ हैं – 'राजनीति होयेछे
संप्रति निर्लज्ज नाटक /
आमिओ
कोरे छि यत्र-तत्र अनेक त्राटक / कोथाओ अध्यक्ष एवं
कोथाओ उद्घाटक /
खुले
दियेछि शत-शत महामुक्तिर फाटक'। नागार्जुन खुद को
भी कहीं किसी तरह की रियायत नहीं देते हैं।
नागार्जुन की एक खासियत यह भी है कि वे चाहे जिस
किसी भी भाव-मुद्रा में रहें
उनकी एक नजर युवाओं पर जरूर रहती है। नागार्जुन की एक कविता 24 जुलाई 1978 की है – 'ओइ माताल युवक' और पंक्तियाँ हैं – 'छत्रिश बछर वयसेर / ओइ माताल युवक / बेश भालइ लेखा पाड़ा
करतो /
ओर कवि
प्रतिभा एकदा /
आमा के
चमत्कृत कोरे छिलो //
एखन कि
ये हेएछे ओर //
आज
सकाले ओर बाबार /
संगे
देखा कोरते गियेछि /
उनि
बललेन – /
प्रभात
संप्रति दारूण माताल /
ओके
एखन आपनि /
किच्छु
बलवेन ना /
ओ एखन
एके बारेइ खाप छाड़ा'। किसी समाज में कवि
प्रतिभा संपन्न किसी युवा का बेलीक हो जाना कितनी बड़ी दुर्घटना है इसे नागार्जुन
की काव्य प्रतिभा भली-भाँति समझती है।
पश्चिम बंगाल में यह दारुण दृश्य बहुत आम रहा है। खास बाँग्ला में लिखे जाने के
कारण इन कविताओं के भावार्थ में एक अलग आयाम जुड़ता है। कहना न होगा कि नागार्जुन
इस अर्थ में भी बड़े राजनीतिक कवि हैं कि उनकी कविताएँ अपनी विचारधारा – शायद
विचारधाराओं कहना अधिक उचित है – की व्यावाहारिक राजनीति और सामाजिक चेतना के आगे
चलती हैं बिना इस बात की परवाह किये कि वे उन्हें फेल करेंगे या पास करेंगे। चाहे
हिंदी हो,
मैथिली
हो या बाँग्ला ही क्यों न हो नागार्जुन अपने जनकवि होने के दायित्व और जनशक्ति को
पहचानते हैं इसलिए पास-फेल की दुविधा में
कहीं भी हकलाते नहीं हैं। विचारधारा की प्रतिबद्धता नागार्जुन को राजनीतिक कवि तो
बनाती है किंतु विचारधारा से प्रतिबद्धता की जोरदार घोषणा करते हुए भी उनकी कविताएँ उन्हें राजनीतिक दल या दलों
का पिछलग्गू नहीं बनाती है।
3 फरवरी 1979 की एक बांग्ला कविता
है – 'कि दरकार नाम-टाम बलार'। इस कविता में
नागार्जुन अपने को नालंदा युग के बज्रयानियों के आदि पुरुष हिंदी के प्रथम कवि
सिद्ध सरहपा,
रजनीश
के वृद्ध प्रपितामह,
बूढ़े
हिप्पियों का आदि ब्रह्म बताते हुए जे.एन.यू. के निकट सम्यक
संबुद्ध होने की घोषणा करते हुए नये आर्य सत्य को प्रकट करते हैं इन शब्दों में – 'सम्यक संबुद्ध ! / भाषित होयेछे आमार
चित्त फलके /
सत्य-चतुष्ट्य एइ प्रथम-प्रथम / सुख सत्य / सुखेर आकांक्षा सत्य
/ सुख प्राप्तिर उपाय
सत्य /
एवं
सुख प्राप्तिर उद्भावना सत्य /
एइ
आर्ष सत्य चतुष्ट्य प्रथम-प्रथम / शुधु आमि जानते
पेरेछि /
ताइ
आमि ऐखोन परम ज्ञानी /
ताइ
आमि ऐखोन परम सुखी !!'
इसे
पढ़ते समय यह ध्यान में रखना जरूरी है कि बाँग्ला भाषा, साहित्य और समाज के
सांस्कृतिक रचाव में बौद्ध गान और दूहा (दोहा) का बुनियादी महत्त्व
है। बौद्धिकों और खासकर वाम बौद्धिकों के चमकते गढ़, जे.एन.यू. के सामने नागार्जुन को प्राप्त
होनेवाले इस नये आर्ष सत्य के बाँग्ला में प्रस्फुटन के राजनीतिक आशय को स्पष्ट
करने के लिए क्या किसी अतिरिक्त व्याख्या की जरूरत है!
नागार्जुन की बाँग्ला कविताओं का अपना महत्त्व
है। बाँग्ला भाषा साहित्य में इसका क्या महत्त्व आँका जाता है यह एक अलग विषय है।
परंतु इतना निश्चित है कि नागार्जुन को समझने के लिए इन कविताओं का महत्त्व कमतर
नहीं है। हिंदी में रेखांकित किये गये नागार्जुन के वैशिष्ट्य के अतिरिक्त उनकी
बाँग्ला कविताओं में भी उनका कुछ अपना वैशिष्ट्य है। नागार्जुन की बाँग्ला कविताओं
की विशेषताओं को ध्यान में रखने पर नागार्जुन की हिंदी कविताओं के अर्थ-गांभीर्य और उसमें
निहित गूढ़ संकेतों को पकड़ने में अधिक सफाई आ सकती है।
गाँवों के गुच्छा जैसा लगानेवाला कोलकाता शहर
नागार्जुन का प्रिय रहा है। बौद्ध
गान ओ दूहा की अनुगूँजों को अपने अंदर अनहद नाद की तरह महसूस करनेवाली, जयदेव, विद्यापति को समादृत
करनेवाली चैतन्य महाप्रभु,
रामकृष्ण-विवेकानंद, रवींद्रनाथ ठाकुर की
वाणी को मुखरित करनेवाली और 'आमार नाम, तोमार नाम, वियेतनाम, वियेतनाम' की घोषणा के साथ
साम्राज्यवाद विरोधी स्वर को बुलंद करनेवाली बाँग्ला भाषा भी 'युग-युग धावित यात्री' कवि नागार्जुन को
प्रिय थी। प्रिय का तो कुछ-न-कुछ हक भी बनता ही
है। हक कभी पूरा अदा नहीं होता। पूरा न सही, कुछ तो हक जरूर अदा
हुआ।
कृपया, निम्नलिखित लिंक भी देखें :
1. ग्लोबल का बल और राष्ट्रीयता
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1. ग्लोबल का बल और राष्ट्रीयता
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