तीन कविताएँ


रात की अंतिम गाड़ी के पीछे

सिर्फ घड़ी के भरोसे नहीं
चाहे कोई कितनी भी सावधानी बरते
बार-बार देखे घड़ी की ओर
पहलू बदले बार-बार
लेकिन कुछ औपचारिकताएँ तो ऐसी होती ही हैं कि
आदमी चाहकर भी समय का पाबंद नहीं रह पाता है
कभी इस भरोसे में कि
आखिर गाड़ियाँ भी तो चला ही करती है लेट-लतीफ
कभी इस चक्कर में कि
वह शायद इसी तरह से अपने को संजीदा साबित कर सके

रात की अंतिम गाड़ी के पीछे की भुकभुकाती लाल बत्ती जब धीरे-धीरे
पुतलियों से ओझल होती जा रही हो 
ठीक उस समय कितना असहाय होता है
प्लेटफॉर्म पर खड़ा यात्री, स्तब्ध, बेचैन और घबराया हुआ -- हक्का-बक्का
फिर आहिस्ते-आहिस्ते नीहारना शुरू करता है आस-पास की चीजों को
झाड़ियों और दरख्तों को कुत्तों को भीखमंगों को खाली पड़े खोखों को
केला के छिलकों को चाय के मृदभांड को 
लहराने के बाद थककर सो गये पताकों को
मरी-मरी-सी बिखरी हुई रोशनी में जड़ हो चुके स्टेशन के नामपट्ट को
हर उस चीज को जिससे पहले कभी इस रूप में मिला ही हो तब
जब गंतव्य तक ले जानेवाली गाड़ियों के आने का
और बावजूद भीड़ के उस पर चढ़ सकने का भरोसा बाकी हो

थोड़ी देर से ही सही लेकिन अंतत: हारकर शुरू होती है तलाश
अपने ही तरह के छुटे हुए यात्रियों की
विश्वास और अविश्वास के बीच झूलते हुए
अपने अकेलेपन से लड़ता हुआ प्लेटफॉर्म पर छुटा हुआ  यात्री
छुटी हुई दुनिया को परिचय के वृत्त में लेने की व्याकुलता से गुजरता है
बढ़ती जाती है व्याकुलता जितनी तेज रफ्तार
उतनी ही तेजी से आदमी रचने लगता है अपने लिए सुरक्षा का नया विस्तार
चाहे जिस सूरत से भी हो --
प्रतीक्षा की घड़ी बिताने के लिए 
अगली यात्रा की सुरक्षा के लिए 
आदमी सिर्फ घड़ी के भरोसे बैठा नहीं रहता है
भरोसा चाहे धरती की ही तरह क्यों फैला हो उसके आस-पास

एक दुर्लभ दृश्य   

सचमुच एक दुर्लभ दृश्य है स्तनपान कराती हुई माता को देखना
जब मैंने आर्टगैलरी में एक ऐसी ही पेंटिंग पर मुग्ध
होते विदेशी को देखा तो महसूस किया

ऐसे दुर्लभ दृश्य आर्टगैलरी में ही दीखते हैं अब
मैंने याद करना चाहा पिछली बार
स्तनपान कराती हुई किसी माँ को मैंने कब देखा था--
मैं शर्मिंदा हूँ महाशय कि मुझे कुछ भी याद नहीं
मैं लौटकर फिर पेंटिंग के पास गया और गौर से देखा उस माँ का चेहरा
काली, मटमैली, फटी हुई साड़ी, पसीने से सराबोर 
दमकती हुई आभा के बीच
माँ का खिला हुआ  चेहरा
अद्भुत है कि 
-- सच को कितने करीब से और रंगे हाथ पकड़ा है पेंटर ने
-- सजी-धजी माँ  की गोद से कैसे बचाया इस नौनिहाल को पेंटर ने
उस प्रणम्य पेंटर के बारे में जानना चाहा तो 
सिर्फ इतना ही पता चल पाया कि
इस पेंटर की जननी माँ भागलपुर के दंगे में मारी गयी थी
उसके साथ बलात्कार हुआ था
घर से दस लग्गे की दूरी पर उसकी लाश पड़ी मिली थी
पास में ही यह पेंटर नवजात पड़ा मिला था
बस इतना ही और वह भी किंवदंती
क्योंकि सरकारी रिकार्ड से इसकी पुष्टि कभी नहीं हो पायी
अतिरिक्त रूप से यह बताया गया कि बाबूजी यह फिलहाल बिकाऊ नहीं है
वह रहमदिल अमेरिकी सैलानी इसे किसी भी कीमत पर खरीदना चाहता है
उसके पास सरकारी कागज है, उसकी खरीद से होनेवाली आय कर-मुक्त है
फिर भी यह दृश्य कम-से-कम इस समय बिकाऊ नहीं है
इससे अधिक कुछ जानना हो तो
ईश्वर जिसके नाम पर दंगे हुए थे वह या
खुद यह पेंटिंग ही आपकी कुछ मदद करे तो करे

हमें जिंदा रहना है
       दुख पर काबू पाने के लिए

रात के दस बजे हैं
मैं दाल में नमक की स्थिति पर आत्म-संघर्ष कर रहा हूँ
दूरदर्शन पर थ्रिलर एट टेन रहा है
फोन की घंटी बजने लगती है
यथासंभव अन्य घरेलू आवाज को थामकर
फोन उठाता हूँ
हलो, मदन कश्यप पटना से। बहुत बुरी खबर है।
मैनेजर पांडेय के इकलौते पुत्र आनंद की हत्या कर दी गयी है
पुलिस ने ही गोली मार दी है.... बिल्कुल नजदीक से

दिन भर की थकान और मुसकान को किनारे कर सोने की तैयारी कर रहा हूँ
शायद कोई सपना जाये जिंदगी के ताप से छनकर ---
हलो..... प्रफुल्ल जी
रविभूषण राँची से। बहुत बुरी खबर है। अशोक सिन्हा नहीं रहे....
कैसे? कब?
हर्ट अटैक से। कल।

तारीखें अलग-अलग हैं पर पसरी हुई एक ही त्रासदी है
यहाँ से वहाँ तक जिंदगी दुख की एक बहती हुई नदी है

मेरी बेटी निरंतर अपने दाग से जूझती हुई
बाज दफा हारने भी लगती है अपनी दाग-दाग जिंदगी से
मैं उसे कविता की घूंटी पिलाकर बचाना चाहता हूँ
मैं उसके लिए बाज दफा कविता लिखने का वादा करता हूँ

मुसीबत यह है कि कविता कैसे लिखूँ आज की रात
जब घने बादल में पानी की एक भी बूँद हो और बिजलियाँ
आसमान  में लिट्टेई सुरंग की तरह बिछीं हों.......

...नींद खुली है, रात के सपने की हल्की सी परछाई मन पर बची रह गयी है
परछाई को पकड़कर आज की सुबह उठना चाहता हूँ
परछाई में मैनेजर पांडेय मुक्तिबोध की कविता से अंधेरे में जिरह कर रहे हैं
सरोज स्मृति से निराला को हासिल कर रहे हैं
मैनेजर पांडेय कबीर का पीछा करते-करते बाजार से लड़ रहे हैं
मैनेजर पांडेय गोरख को हाँक लगा रहे हैं
मैनेजर पांडेय सिवान के युवा कवियों से आगे के रास्ते पर बतिया रहे हैं
मैनेजर पांडेय आँसू  की बूँदों को फाड़कर मुस्कुरा रहे हैं
वाह मैनेजर पांडेय वाह

रविभूषण की बात सही है
मृत्यु के कई कारण होते हैं लेकिन वे जीवन के कारण से बड़े नहीं होते हैं
युद्ध के कई कारण होते हैं लेकिन वे शांति के कारणों से बड़े नहीं होते हैं
रविभूषण गुससे में हैं, रविभूषण दुख में हैं,  रविभूषण आवेश में हैं
मृत्यु रविभूषण के  आस-पास  नाच रही है
रविभूषण हैं-- जैसे ब्यूह में अभिमन्यु, जैसे दुख में मैनेजर पांडेय
जैसे संकट में जीवन, जैसे क्षुब्ध सागर में लवण
जैसे क्रोध में करूणा
वाह रविभूषण वाह
हमें जिंदा रहना है दुख पर काबू पाने के लिए

मेरी बच्ची सुबह-सुबह मेरे लिए चाय बना रही है
बावजूद दुख के इससे अधिक खुशगवार सुबह मेरे लिए हो नहीं सकती
एक ऐसी सुबह जहाँ से अंधेरे के खिलाफ मद्धम-मद्धम आवाज आती हो
और चाय के खौलते पानी के साथ मेरी बेटी गीत गाती हो
सच इससे अधिक खुशगवार सुबह मेरे लिए हो नहीं सकती

1 टिप्पणी:

mahesh mishra ने कहा…

बेहतरीन कवितायेँ-मार्मिक, गझिन अर्थ-युक्त, बहु-स्तरीय, मानवीय, आशावादी...