उत्तीर्ण! और उऋण?

उत्तीर्ण! और उऋण?
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गाँठ बाँध लीजिए। क्लास नोट के बल पर अच्छे अंक से पास हुआ जा सकता है — तैरकर पार, उत्तीर्ण हुआ जा सकता है,  उऋण नहीं हुआ जा सकता है। क्लास नोट से बाहर निकलकर और मझधार में टिके रहकर ही उऋण हुआ जा सकता है। इस समय उत्तीर्ण होना जरूरी है और शायद उऋण होना भी जरूरी है। कैसे होगा,एक साथ उत्तीर्ण भी और उऋण भी। भारतीय संस्कृति बताती है, रुपये पैसे के अलावे और भी ऋण होते हैं — पितृ देव ऋषि ऋण आदि और जोर लिजिए उपकार ऋण आदि भी।
क्लास रूम तो जीवन निर्वाही सैलरी की शर्त है। सार्थक अध्यापक कभी क्लास रूम से सीमित नहीं होता, वह अपने छात्रों के हृदय के विस्तार में टहलते हुए उनके दिमाग की अंतर्यात्रा करते हुए अपने और छात्रों के चित्त को व्यापक और अंतःकरण को उदात्त बनाता हुआ है उत्तीर्ण और उऋण होने की कोशिश में लगा रहता है — अपनी धुन में किसी भी हद तक। इस ऐसा अध्यापक नहीं मिलते हैं? मिलते हैं। ऐसे दो चार अध्यापकों को तो मैं ने देखा भी है, खोजें तो कई दिख जाएंगे — अतीत में भी और वर्तमान में भी। ऐसे अध्यापक का सान्निध्य मुझे नहीं मिला यह और बात है। जो मुझे नहीं मिला वह होता नहीं यह मानने को मैं तैयार नहीं। अपना-अपना नसीब — यही उचारकर तो लोग जिंदा रहते हैं, मैं भी हूँ तो क्या अजब……!

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