सांस्कृतिक अराजकता

सांस्कृतिक अराजकतावाद:

विश्वास है, साहित्य संभव होता रहेगा — हुस्न का मय्यार बदलकर भी बरकरार रहेगा!

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यों ही नहीं जीतता कछुआ खरगोश से ...

उसकी चाल धीमी थी पर

लगातार थी...!!!

आज सुबह एक मित्र ने व्यक्तिगत रूप से यह खुशनुमा संदेश भेजा। अच्छा लगा। सोचा, कहानी पुरानी है। संदेश नया है। इस में मेरे काम करने की धीमी गति का इशारा किया गया है, मेरी जीत, यानी अंतिम जीत, में भरोसा जताया है। थोड़ी देर तक, अच्छा लगता रहा! मन उछलता रहा मित्र के भरोसे पर। मन अटका रहा अपनी धीमी गति पर। धीमी गति से दुख भी हो रहा था। तेज से तेज रफ्तार होती जा रही इस दुनिया में धीमी गति! गति बढ़ाने के क्या उपाय हो सकते हैं। भला जीत का प्रलोभन किसे नहीं होता है! जीत के लिए ही तो बार-बार कीलिंग इंस्टिक्ट की दुहाई दी जाती है। कीलिंग इंस्टिक्ट — यानी जीत के लिए प्रतिद्वंद्वी मार डालने पर आमादा होने की हद तक की मनोवृत्ति! भयानक है यह सब। किसी भी कीमत पर जीत! किस की जीत? जीत व्यक्ति की। व्यक्ति की जीत का दु:स्वप्न ही तो व्यक्ति को युयुत्सा के मनोभाव के गिरफ्त में फँसाकर अकेला करने का मूलमंत्र है। यहीं भूत है। व्यक्ति की जीत का दु:स्वप्न ही वह प्रेत है, जिसके पाँव के निशान दिखते तो आगे जाते हुए हैं, लेकिन जा पीछे रहे होते हैं, बहुत पीछे आदिम काल तक — यही तो है आदि पुरुष के प्रति जादुई खिंचाव और फिर से वैसा ही कुछ बनने की जानलेवा ललक का रहस्य! जी, इसी सरसों में भूत के होने का अंदेशा नहीं, विश्वास बढ़ता गाया।

कल की ही तो बात है। महेश मिश्र जी ने जॉर्ज ऑरवेल की किताब — फासिज्म एंड डेमोक्रेसी — के एक लेख के हवाले से इस दौर में साहित्य की किसी संभावना के पूरा खत्म नहीं भी तो, संभावना के कम-से-कमतर होने की बात पर चिंता जतायी थी। इस लेख में व्यक्ति की स्वायत्तता के अभाव — उस की व्यक्तिगत भावनाओं, इच्छाओं, प्रज्ञाओं, कर्मठताओं, प्रसन्नताओं, संतोषों का किसी अन्य के अधीनस्थ हो जाने के हाहाकर — की चिंता थी। व्यक्ति की स्वायत्तता की एक सीमा होती है, उस सीमा से बाहर व्यक्ति की स्वायत्तता के उच्छृंखलता में बदलते कितनी देर लगती है! किसी हद तक उच्छृंखलता और अराजकता पूँजीवाद की वैचारिकी के अनुकूल होती है। उसे मानव संगठन के किसी भी रूप से परेशानी होती है — सिविल सोसाइटी और अहिंसा प्रतिश्रुत संगठन से भी। परेशानी होती है, क्योंकि संगठित होने की कुछ बुनियादी शर्तें होती हैं, कुछ अनुशासन होता है, संगठन से कुछ-न-कुछ तो शक्ति बनती ही है। इस परेशानी को दूर करने का पूँजीवाद की वैचारिकी के पास एक उपाय होता है — संगठन से उत्पन्न शक्ति को वह व्यक्ति की शक्ति होने का, संगठन की जीत के व्यक्ति के जीत होने का सामाजिक भ्रम बनाता है। ऐसे में, हमारा सचेत कवि भी कह उठता है — है जिधर अन्याय, है उधर शक्ति! या यह कि उपन्यासकार दर्ज करता है कि लोगों के बिखर जाने का उतना डर नहीं है, जितना संगठित होने से, क्योंकि संगठन में शक्ति है और शक्ति अनिवार्यत: अन्याय करती है।

थोड़ा, जीत और हार पर भी बात कर लेते हैं, यहाँ संक्षेप में विस्तार से फिर कभी, फिर कहीं! यदि धोनी की जीत जिसे कहा जाता है, वह अगर सिर्फ धोनी की जीत हो तो वह हमारी खुशी का कारण कैसे हो सकता है! हम क्यों खुशी से मतवाले या बावरे हो जाते हैं। चलिए, ध्यान दिलाएँ — खेल की अपनी राजनीति होती है, राजनीति का अपना खेल। ऐसा मानते हैं तो इसे दोनों जगह लागू हो सकने की संभावना पर विचार करना आप की भी जिम्मेवारी है।

कल जब मैं ने महेश मिश्र के वाल पर गाँधियन नैतिकता और मार्क्सीय दृष्टि के महत्व का इशारा किया तो मेरे मन में क्या बात थी, इसे थोड़ा-सा साफ करना जरूरी है। गाँधियन नैतिकता का आशय व्यक्ति की व्यक्तिगत भावनाओं, इच्छाओं, प्रज्ञाओं, कर्मठताओं, प्रसन्नताओं, संतोषों के स्वत्वों के स्व अधीन और मार्क्सीय दृष्टि का आशय स्वत्वों के स्व अधीन होने की सांगठनिक संभावनाओं को हासिल करने — स्व के स्वत्व और संगठन की शक्ति के रसायन के सामाजिक अंतर्लयन का आशय है! थोड़ा कठिन है। असंभव नहीं। क्योंकि इस कनवर्जेंस (Convergence) के अलावा संगठन से उत्पन्न शक्ति को व्यक्ति की शक्ति होने का, संगठन की जीत के व्यक्ति के जीत होने का सामाजिक भ्रम बनाने के पूँजीवाद की विषाक्त-हितैषिता से बच निकलने का फिलहाल न कोई कौशल है, न कोई कारगर उपाय दिखता है। जय पराजय की शब्दावली में नहीं, सह-अस्तित्व में ही अस्तित्व के सुरक्षित होने की समझ के रूप में पढ़ा जाये — कीलिंग इंस्टिक्ट से तत्काल मुक्त होने की आपात-धर्मिता एवं सर्वाइवल इंस्टिक्ट की दीर्घकालिक जरूरत और महत्व को डिकोड करने और समझने का प्रयास किया जाये। रोजी-रोटी सहित जीवन के सारे उपक्रम सामूहिक और सांगठनिक उद्यमों और उद्यमिताओं से हासिल होते हैं! और हाँ, इसे मेरा व्यक्तिगत निष्कर्ष न मानकर सामाजिक स्वीकृति का प्रस्ताव मानना उचित होगा — यही प्रार्थना है। विश्वास है, साहित्य संभव होता रहेगा — हुस्न का मय्यार बदलकर भी बरकरार रहेगा!

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