कविता और विज्ञान

कविता और विज्ञान

कुछ कहियेगा जरूर सहमति-असहमति  परवाह किये बिना — बेबाक और बेलाग! न सुनने के संसदीय सिंड्रोम की चपेट में फँसे होने के बावजूद, मैं सुनने की कोशिश जरूर करूँगा, क्योंकि इससे मुझे किक (क्विक) मिलती है। समझने-समझाने के लिए युनिवर्सीटी की सुविधा हासिल करने की योग्यता तो है नहीं, यह लिहाजन फेसबुक ही मेरी अदब शाला है और मैं यहाँ, बाअदब होशियार रहता हूँ!

आदरणीय मित्र महेश मिश्र सर, यानी @Mahesh ने 09 जुलाई 2023 को मेरी एक बात

—‘कविता रोटी नहीं देती। रोटी को बाँटकर खाने की तमीज़ देती है’ — को यहीं फेसबुक पर कोट-पोस्ट किया था। इस पर कुछ मित्रों की राय सामने आयी। दिगंबर यानी @Digember सर, ने कहा ‘असली सवाल उत्पादन का नहीं, वितरण का है ... Kavita अगर यह तमीज दे तो फिर क्या कहने ...’। हालाँकि, उत्पादन का सवाल भी महत्त्वपूर्ण है और वितरण का सवाल भी महत्त्वपूर्ण है। लेकिन, इस पर मेरा कहना था —

‘वितरण के लिए ज्ञान+विवेक=बोध चाहिए। बोध, यानी अयं निजः, परोवेति गणना लघुचेतसाम को समझते समझाते उस से ऊपर उठते उठाते उदार चरितानाम के रास्ते वसुधैव कुटुम्बकम तक पहुँचने का हौसला। इस तरह रोटी (इस में सारी माँग शामिल है) को बाँटने (वितरण) का  बोध (तमीज) देती है। उत्पादन के लिए ज्ञान काफी होता है, उस काम में कविता दूसरे पायदान पर खड़ी होकर सहयोग करती है — ध्यान में होना चाहिए धनरोपनी से लेकर हर काम में मजदूरों के गीत। हालांकि, जब से श्रम के आनंद का सत्य और सौंदर्य विलुप्त हुआ शिव-तत्त्व का क्षरण हुआ। विज्ञान दूसरे पायदान पर खड़े रहकर बाँटने का औजार यानी साधन देता है — निर्माण (वेल्यू एडिशन) अर्थशास्त्र या परिवहन, परिसेवा आदि के साधन। कविता और विज्ञान साथ मिलकर काम करते हैं। मोटे तौर पर, पहले कविता शुरू हुई। विज्ञान बाद में शुरू होकर आगे निकल गया। कविता संस्कृति का अंग बनकर पीछे की तरफ उन्मुख होती गई और विज्ञान आगे बढ़ता गया। कविता और विज्ञान में जड़ (रूट) और तने का संबंध है — वृक्ष की जड़ नीचे की ओर जाती है और तना ऊपर की ओर, दोनों में विरोध नहीं होता है, विरुद्धों का सामंजस्य होता है (युनिटी आफ अपोजिट्स)।

इजाजत हो तो, एक स्वतंत्र पोस्ट डालूंगा। आप के सवालों से बहुत सारी बातें याद आई कहें तो किक (क्विक), आभार।

जो बहुत सारी बातें याद आई, उस में से एक प्रसंग — वे दिन थे, जब नौकरी के सिलसिले में कलकत्ता, अब कोलकाता, रह रहा था। मनोज दुबे @Manoj से नया-नया परिचय हुआ था, बड़े इत्तिफाक से और नाटकीय अंदाज में। इस पर फिर कभी। हम राष्ट्रीय पुस्तकालय में थे। मनोज ने श्री हरेराम चतुर्वेदी यानी @Hareram से परिचय करवाया। हम तीन लोग रापु (बतर्ज दपू)  यानी राष्ट्रीय पुस्तकालय के कैंटीन में आये। शाम का वक्त, दो ही समोसे बचे थे। मनोज ने दोनों समोसे को सामने रख दिया — अब शोले के गब्बर सिंह का वही सवाल उठ खड़ा हुआ, कितने समोसे थे, कितने आदमी थे! मनोज ने कहा कि अब इस दो का तीन में बँटवारा कैसे हो। हरेराम ने कहा — भई इस में क्या है! जिसको जितनी भूख हो, ले ले! मैं ने पूछा — यह पता कैसे चलेगा कि किस को कितनी भूख है? इस पर हरेराम जी ने बहुत सारे जवाब दिये जो अपनी बनक में दार्शनिक किस्म के थे। मैं उनके जवाब से असंतुष्ट हुआ। उन दिनों जवानी थी, तो सहज-स्वभाव थोड़ा उग्र टाइप का था। मैं ने हनकते हुए कहा — आप जिस स्कूल से बोल रहे हैं, मैं उसका हेडमास्टर हूँ। आप को समझ में नहीं आ रहा मैं वेरिफाइबलेटी ऑफ ट्रूथ, सत्य के सत्यापन के सिद्धांत की बात कर रहा हूँ। अपनी हनक पर आज मुझे अफसोस है, बेहद अफसोस है, खासकर खुद को हेडमास्टर घोषित करने की बात पर। शहर उनका था, मैं नया था। आजकल की स्थिति में बिना लपकी-झपकी के  इतिवार्त्ता तक पहुँचना असंभव ही लगता है। खैर, हरेराम जी की उदारता थी, वैसा कुछ अप्रीतिकर नहीं हुआ। तब तो नहीं, लेकिन इसके लिए आज मैं उनका कृतज्ञ हूँ। हालाँकि, उन दिनों के मित्रों से बातचीत में वही तेवर, वही मिजाज लौट आता है, बिना किसी कैफियत के इसे यहीं छोड़ता हूँ।

अभी पाँच-सात दिन पहले हरेराम जी का फोन आया। यहाँ जो प्रासंगिक है उसे सामने रखता हूँ। उन्होंने कहा — प्रेमचंद ने साहित्य को राजनीति के आगे चलनेवाली मशाल कहा था। आज राजनीति कहाँ है, और साहित्य कहाँ है? मैं ने कहा — प्रेमचंद ने साहित्य को राजनीति के ही नहीं राजनीति और देश भक्ति के आगे चलनेवाली मशाल कहा था। प्रेमचंद ने साहित्य और राजनीति (क्या आप राजनीचि शब्द का इस्तेमाल करना चाहेंगे, मैं तो ऐसा करना नहीं चाहूँगा) के बारे में कहा था, साहित्यकार को राजनेता के आगे चलनेवाला मशालची नहीं कहा था। लौटते हैं, फिर उसी बात पर कि साहित्य राजनीति के आगे चलता है या नहीं! मैं ने महात्मा गाँधी पर सत्य हरिश्चंद्र के प्रभाव की बात कही। मैं ने आज के संदर्भ में तुलसीदास कबीरदास की बात कही। मेरे मन भारतीय संविधान की नीति निर्देशक सिद्धांत में भक्ति साहित्य, खासकर संत परंपरा के निर्गुन साहित्य की मूल्य श्रृँखला की बात कही। उस समय वे मेरी बात से संतुष्ट हुए या नहीं, पता नहीं। पता हो भी कैसे! खूब कहने और बिल्कुल नहीं सुनने के संसदीय सिंड्रोम की चपेट में फँस जाने के मामले में मैं भी कोई कम थोड़े हूँ! संतुष्ट न हुए हों तो कोई बात नहीं, रुष्ट हुए हों तो हरेराम जी को मना लेंगे, सुजन हैं, बिना किसी गाँठ के मान जायेंगे, विश्वास है। एक बात बताऊँ! न बताना अपराध होगा। हरेराम जी की बात से मुझे एक किक (क्विक) (प्रेरणा या सूझ, अंतर्सूझ पुरानी शब्दावली है) मिली तो मैं ने एक कविता लिखी और फेसबुक पर डाली — सवाल है तो सवाल कर खुद से, याद नहीं तो क्यों याद नहीं। उस में हसरत मोहानी का प्रसंग है। हसरत मोहानी संविधान सभा के एक मात्र सदस्य थे, जिन्होंने संविधान के अंतिम पाठ पर हस्ताक्षर करने से मना कर दिया था और नहीं किया था। कारण कि उनके अनुसार मजदूरों और शायद किसानों के भी हितों की सम्यक रक्षा का कोई कारगर प्रावधान शामिल नहीं था। किसे याद है! रात दिन आँसू बहाना याद है, उन्हीं का लिखा है। छोड़िये से भी फिलहाल। इन्कलाब जिंदाबाद तो याद है न, या यह भी याद नहीं! यह भी हसरत मोहानी की शायरी से आया है, जिसे दुहराकर शहीद भगत सिंह ने अपने साथ-साथ अमर कर दिया! मानियेगा अब भी कि साहित्य राजनीति से आगे चलनेवाली मशाल है और वह हुस्न का मय्यार बदल देता है! एक बात और कुछ कहियेगा जरूर सहमति-असहमति  परवाह किये बिना — बेबाक और बेलाग! संसदीय सिंड्रोम की चपेट में फँसे होने के बावजूद, मैं सुनने की कोशिश जरूर करूँगा, क्योंकि इससे मुझे किक (क्विक) मिलती है। समझने-समझाने के लिए युनिवर्सीटी की सुविधा हासिल करने की योग्यता तो है नहीं, यह लिहाजन फेसबुक ही मेरी अदब शाला है और मैं यहाँ, बाअदब होशियार रहता हूँ!


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