जनतंत्र की जय


जनतंत्र की जय

हमारा देश दुनिया का सबसे बड़ा संसदीय जनतंत्र है। इसका बड़प्पन सिर्फ आकार से ही नहीं प्रकार से भी मान्य है। हमारे जनतंत्र की गुणवत्ता उच्च दर्जे की है। ऐसा नहीं कि हमारे जनतंत्र में सारे गुण ही गुण हैं, दोष है ही नहीं। गुण भी हैं और दोष भी हैं। कहने को कहा ही जा सकता है कि हमारे जनतंत्र की जड़ें बहुत गहरी हैं, फल बहुत ऊँचे लगते हैं। हमारा जनतंत्र बहुत बड़ा है; संतों की वाणी का सहारा लें तो इतना बड़ा कि पंथी को छाया नहीं, फल लागै अति दूर!’  लेकिन, तमाम खामियों के बावजूद हमें अपने जनतंत्र पर गर्व होना चाहिए। आम-चुनाव किसी भी जनतंत्र का सबसे बड़ा पर्व होता है। जनतंत्र का सबसे बड़ा उत्सव। हमारे देश में जनतंत्र का यह उत्सव चलता रहता है। इस उत्सव से निकले जनादेश का अर्थ सभी स्तर पर निकाला जाता है। लोग हार के कारणों और जीत के व्याकरणों को थिर होकर समझने, इतराने और उबरने की काशिश करते रहते हैं। कुछ दिव्य लोग समझ में भँवर और भटकाव के लिए भी सचेष्ट और अभिशप्त रहा करते हैं।

वैसे तो, नित्य-यात्री होने के कारण रेल का सफर हमारे लिए नित्य का व्यवहार और अनुभव है। लेकिन, गैर-हिंदी प्रदेश में रहने के कारण हिंदी प्रदेशों से गुजरना या वहाँ जाना हमारे लिए अपनी स्मृतियों और वर्तमान के तनाव पूर्ण रेशों के संवेदनशील संस्पर्श का एक सहज अवसर भी होता है। वैसे यह सहज ही लक्षित किया जा सकता है कि अब साधारण रेल यात्री सफर के दौरान किन्हीं सार्वजनिक मुद्दों पर उतना मुँह नहीं खोलते हैं। ऐसा होने के ढेर-सारे कारण हैं। लेकिन अभी भी लोग बोलते हैं, चाहे कम ही सही। एक बार आम-चुनाव के माहौल में रेल से लंबी दूरी की यात्रा कुछ अधिक ही करनी पड़ी थी। ऐसे ही एक सफर में एक सहयात्री जनतंत्र की धज्जियाँ उड़ा रहे थे। यह कोई वोट है! आशय यह कि वे निर्वाचन कर्मचारी के रूप में तैनात थे। उनके बूथ पर कुछ लोग आये और वोट डालकर चलते बने। मेरे यह पूछने पर कि ऐसा होने पर आपने क्या किया उन्होंने वीरोचित दंभ के साथ जो कहा उसका आशय यह था कि वे बेवकूफ नहीं हैं, जो प्रतिवाद करते। वे काफी उत्तेजित भी थे। उनकी उत्तेजना से मैं आशंकित हुआ कि आजादी के लिए जान देनेवालों का नाम लेने पर अपनी उत्तेजना में वे अपमानजनक भी कुछ कह सकते हैं। अपमान की आशंका से किसी स्वतंत्रता सेनानी का नाम मैंने नहीं लिया। लेकिन समाप्त होती संभावनाओं को यथाशक्ति सहेजने के उद्देश्य से इतना जरूर कहा कि जनतंत्र के लिए थोड़े-से साहस की भी जरूरत होती है। जीने के लिए जितने साहस की जरूरत होती है कम-से-कम उतना साहस तो जनतंत्र को सहेजने के लिए भी जरूरी ही होता है।

कहते हैं, संसार में कुछ भी ऐसा नहीं है जिसमें सिर्फ गुण ही गुण या दोष ही दोष हो। तुलसीदास ने इसी सत्य का साक्षात्कार करते हुए कहा होगा, गुण-दोषमय विश्व कीन्ह करतार। गुण-दोष विवेचन सतत जारी सांस्कृतिक प्रक्रिया है। पाश्चात्य दर्शन में शुभाशुभपर गहन मनन हुआ है। इस गहन मनन की जटिलताओं का प्रमुख कारण संभवत: यह मानना रहा कि सारे गुण’ ‘शुभहोते हैं और सारे दोष’ ‘अशुभ शुभ और अशुभ, ज्ञान और अज्ञान, गुण और दोष के अंतर्लयन की सामासिक दृष्टिबिंदु से विकसित होती है भारतीय दर्शन में विरुद्धों के सामंजस्यकी शक्ति और प्रवृत्ति। विरुद्धों में सामंजस्यकी सामासिक शक्ति और प्रवृत्ति का उद्भव भारतीय जनतंत्र को भी अनुपम बनाता है। इसी अनुपम भावबोध का नाम शिवहै। शिवभारतीय चित्त की मुख्य बिंदु, अर्थात चिदबिंदु है। इसलिए, यह शिव-तत्त्वभारतीय मानस की विशेषता है। भारतीय मानस की यह विशेषता भारतीय जनतंत्र के सार में संन्यस्त है। हमारे जनतंत्र में कुछ दोष हो सकते हैं, लेकिन इन दोषों के बावजूद यह हमारे प्राण का आधार है। जनतंत्र साधारण जन के जीवन का शिव-तत्त्व है। जनतंत्र के गुण-दोष के विवेक-सम्मत विवेचन का उद्देश्य इसके इस शिव-तत्त्व का साक्षत्कार ही हो सकता है।

सच है कि भारतीय आबादी का बहुत बड़ा हिस्सा अपने मनुष्य होने के अधिकार से सदियों से वंचित है। अद्भुत प्रेम-राग का सुदीर्घ आलाप लगानेवाले इस देश में घृणा की कर्कश आवाज से भी जीवन कम आक्रांत नहीं है। इसे कैसे समझा जाए! चुनौती यह कि इस कर्कश आवाज को कोमल बनाने के लिए जनतंत्र की अपरिमित संभावनाओं का सफल विनियोग कैसे हो! भारतीय समाज में जड़ जमाये मनुष्य-विरोधी रुझान के ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य को ठीक से समझना होगा। सभ्यताओं के इतिहास से यह साफ है कि प्रत्येक सभ्यता के अंदर हमऔर वेके नाना समूह बनते-बिगड़ते रहते हैं। इन में से कुछ समूहों की परिधि रेखाएँ अपेक्षाकृत अधिक स्थायी और अपरिवर्त्तनीय होती हैं। इन से बनते हैं, स्थायी और अपरिवर्त्तनीय समूह। धर्म और जाति कुछ ऐसे ही स्थायी और अपरिवर्त्तनीय समूह हैं। कदाचित राजनीतिक-राष्ट्र भी! राष्ट्र आधुनिक समूह है। धर्म और जाति पूर्व-आधुनिक समूह हैं। उत्तर-आधुनिकता पूर्व-आधुनिक बोध के सहारे आधुनिक भावबोध का व्यवच्छेदन करते हुए मानववाद के विलोमी बाजारवाद के हितसाधन में अनुरक्त है। यहीं पर, पूर्व-आधुनिकता और आधुनिकता में अंतर्निहित आकांक्षाओं के टकरावों को ध्यान में रखने से धर्म या जाति को राष्ट्र का विशेषण बनाने के आत्मघाती छल को समझना जरूरी हो जाता है। राष्ट्रबोध के अनिवार्यत: धर्म निरपेक्ष होने के कारणों का भी खुलासा होता है।

आधुनिकता के भारतीय संस्करण को अलग से समझे जाने की जरूरत के महत्त्व को कम किये बिना भी यह मानने में संकोच नहीं होना चाहिए कि ब्रिटिश उपनिवेश के कायम होने के साथ ही, भारत में आधुनिकता की परियोजनाओं का भी प्रारंभ होता है। इसी परियोजना का एक सूत्र राजनीतिक राष्ट्रवाद के रूप में भी विकसित होता है। ब्रिटिश उपनिवेश के कर्ता-धर्ता इस बात को जानते थे कि राजनीतिक राष्ट्रवाद के विकसित हो जाने की स्थिति में उनके पाँव उखड़ जाएँगें। राजनीतिक राष्ट्रवाद की जगह धार्मिक राष्ट्रवाद उनके अधिक मुफीद होगा। सुविधा की इसी जगह से हमारे यहाँ द्विराष्ट्रीयता के सिद्धांत का जन्म होता है। ब्रिटिश हुकूमत इसका एक मात्र कारण है कि नहीं इस बात पर भिन्न मत हो सकते हैं, लेकिन उसने इसे पाला-पोसा और वैधता प्रदान करने की पुरजोर कोशिश उसने की यह तो निर्विवाद ही है। जाति और धर्म से भी समूह निर्माण की आधार भूमि बनती है। इसलिए जाति और वर्ण के आधार पर भी राष्ट्रबोध पनपाने की बहुत कोशिश की गई। यह तो वृहत्तर भारतीय जनता की सराहनीय सहनशीलता और महात्मा गाँधी एवं डॉ आंबेदकर जैसे महान समावेशी नेताओं का राजनीतिक प्रभाव और प्रताप था कि इस दिशा में बहुत कामयाबी नहीं मिली।

समूहों की मजबूती के लिए जरूरी होता है कि समूह के सदस्यों के हितों की अधिकतम रक्षा हो, उनके बीच पारस्परिक प्रेम और सद्भाव बना रहे। समूह के बाहर के लोगों से दूरी बनाये रखना और उनके प्रति मन में घृणा संचित करना भी इस परियोजना का अभिन्न हिस्सा होता है! सामान्यतः, राजनीति समूह निर्माण की एक सकारात्मक प्रक्रिया है। सामान्यतः इसलिए कि आजकल राजनीति में समूह निर्माण की नकारात्मक प्रक्रिया को अपनाने की खेदजनक प्रवृत्ति तेजी से पनप रही है। समूह निर्माण की सकारात्मक प्रक्रिया के अर्थ में जनतांत्रिक राजनीति घृणा को न्यूनतम स्तर पर ले जाने के लिए मन-प्राण से संघर्षशील रहती है। संघर्षशीलता की इसी बिंदु पर जनतांत्रिक राजनीति की शक्ति और साहित्य की संवेदना का सेतुबंधन होता है। सकरात्मक राजनीति में निर्मित समूह की परिधि-रेखाएँ कठोर और अपरिवर्त्तनीय नहीं होती हैं। बल्कि इन परिधि-रेखाओं के केंद्र भी कई हुआ करते हैं। इनकी परिधि रेखाओं में कटान के नहीं, मिलान के बिंदु विकसित होते हैं। इसलिए बहुकेंद्रीयता जनतांत्रिक-राजनीति के बिखराव का नहीं बहुआयामी होने का आधार रचती है। नकारात्मक राजनीति बहुआयामी समूह बनाकर इतर आधार पर बने किसी बंद समूह को इकहरी राजनीतिक समूह में बदलने की कोशिश करती है। यही कोशिश राजनीति को जनतांत्रिक उज्ज्वलता की मानवीय संभावनाओं से विच्युत करते हुए उसे सांप्रदायिक कुत्सा से जोड़ देती है। कहना होगा कि हमारी जनतांत्रिक गुणवत्ता की उच्चता ने मानवीय संभावनाओं की उज्ज्वलता को प्राणवंत बनाया है; हर बार के आम-चुनाव के नतीजों का एक पाठ यही होना बांछनीय है। अन्य पाठ यह कि जनतंत्र हमारी रक्षा कर सकता है, बशर्त्ते कि हम जनतंत्र की रक्षा कर सकें। अब तक जनतंत्र हमारी रक्षा करता आया है। आगे यह देखना है कि हम जनतंत्र की रक्षा करने में कितने सफल रहते हैं। फिलहाल तो यह कि हर हाल में हमें खुले मन से जनतंत्र की जय में शामिल होने की उत्सुकता अपने अंदर जिलाये रखने की कोशिश करनी चाहिए!

2 टिप्‍पणियां:

mahesh mishra ने कहा…

" सकरात्मक राजनीति में निर्मित समूह की परिधि-रेखाएँ कठोर और अपरिवर्त्तनीय नहीं होती हैं। बल्कि इन परिधि-रेखाओं के केंद्र भी कई हुआ करते हैं। इनकी परिधि रेखाओं में कटान के नहीं, मिलान के बिंदु विकसित होते हैं। इसलिए बहुकेंद्रीयता जनतांत्रिक-राजनीति के बिखराव का नहीं बहुआयामी होने का आधार रचती है। नकारात्मक राजनीति बहुआयामी समूह न बनाकर इतर आधार पर बने किसी बंद समूह को इकहरी राजनीतिक समूह में बदलने की कोशिश करती है। यही कोशिश राजनीति को जनतांत्रिक उज्ज्वलता की मानवीय संभावनाओं से विच्युत करते हुए उसे सांप्रदायिक कुत्सा से जोड़ देती है। कहना न होगा कि हमारी जनतांत्रिक गुणवत्ता की उच्चता ने मानवीय संभावनाओं की उज्ज्वलता को प्राणवंत बनाया है; हर बार के आम-चुनाव के नतीजों का एक पाठ यही होना बांछनीय है।"

सकारात्मक और नकारात्मक राजनीति के जिन अभिलक्षणों की आप चर्चा कर रहे हैं उस आधार पर हमारे जनतंत्र में नकारात्मक राजनीतिक अभिलक्षण ही हावी क्यों दिख रहे हैं मुझे? क्षेत्रीय, जातीय और साम्प्रदायिक आधार पर ध्रुवीकरण दीखता है. जनतंत्र की संभावनाओं के बारे में और उसको बचाने के लिए जिस अपेक्षा की जरुरत आप बता रहे हैं, वह निस्संदेह सही है. आप किन उज्ज्वलताओं को प्राणवंत बनाने की बात कर रहे हैं, स्पष्ट करेंगे तो अच्छा होगा.

एक बेहद बेहतरीन आलेख के लिए बहुत-बहुत आभार.

प्रफुल्ल कोलख्यान / Prafulla Kolkhyan ने कहा…

आदरणीय महेश जी, बेहद उत्साहबर्द्धक टिप्पणी के लिए आभार। क्षेत्रीय, जातीय और साम्प्रदायिक आधार पर ध्रुवीकरण के कई कारण हैं । इतिहास लेखन और इतिहास को एक ही मानकर चलने, अपने इतिहास की सही जानकारी के न होने, सच्चे राष्ट्रबोध की जगह अभी भी स्थानापन्न राष्ट्रबोध के हमारे मानस में सक्रिय रहने और राजनीतिक दलों के चुनाव जीतने की तात्कालिकता में फँसे रहने जैसे कई कारणों की पहचान की जा सकती है। राजनीति को जनतांत्रिक उज्ज्वलता की मानवीय संभावनाओं से जोड़ने के लिए जरूरी है कि जन-ध्रुवीकरण को मानवीय और नागरिक आधिकार को प्रभावी बनाया जाये और इसमें नागरिक जमात की गहरी भूमिका को रेखांकित करते हुए विवेक-संगत कार्रवाई की संभावनाओं को व्यवहार में परखा जाये।
मैं उन उज्ज्वलताओं को प्राणवंत बनाने की बात कर रहा हूँ जिनके बल पर गहन अंधकार को छाँटकर हमारा जनतंत्र हमारी रक्षा करता आया है। लोग हार के कारणों और जीत के व्याकरणों को थिर होकर समझने, इतराने और उबरने की काशिश करते रहते हैं। जो कुछ दिव्य लोग समझ में भँवर और भटकाव के लिए कोशिश करते हैं उनकी कोशिश को बौद्धिक रूप से नाकाम करते हुए चुनावों से संपुष्ट जनादेश की जनहितकारी व्याख्याएँ की जाये। महेश जी यह सच है कि खुद पूँजीवाद के रवैये में आये बदलाव के कारण पूँजीवादी जनतंत्र मुश्किल में है लेकिन सच यह भी है कि विश्वमानवादी जनतंत्र के विकसित होने का आधार भी उभर रहा है। बहुत सीमित अर्थ में ही सही जी-गवर्नेंन्स को देखने की जरूरत है -- हर छल के नैपथ्य में ... छिपे शुभ को सामने लाने की कोशिश का थोड़ा-सा ही सही अवसर देना इस जनतंत्र की उज्ज्वलता का प्राणवंत अंश है.. आपका बहुत-बहुत आभार...