मुग्ध
तो मैं भी हूँ। आशा की किरण भी
दिख रही है। न मानूँ तो झूठ
बोलूँगा। लेकिन इस 'आप-मुग्धता'
के
पोखर में ऊभ-चूभ
नहीं कर रहा हूँ। मन करता है
कि मैं भी आशा के भव्य आलोक
में किसी नये सत्य का चेहरा
देखने की कोशिश करूँ,
पर
कर नहीं पाता,
क्यों?
इसके
कारण हैं। हमारा अनुभव है कि
मुहब्बत और देश प्रेम के बेहद
मार्मिक और दिलकश तराने लिखना/ गाना अनिवार्य रूप से लिखने/गानेवालों
के दिल में मुहब्बत और देश
प्रेम के होने का सबूत नहीं
होता है। मुहब्बत और देश प्रेम
के नाम पर जिनकी जिंदगी दाँव
पर लग गई उनमें से अधिकतर ने
अपनी जिंदगी में कभी उस तरह
का मार्मिक और दिलकश तराने न तो लिखा ही होता है और न दिलकश अंदाज में गाया ही होता है।।
आम आदमी पार्टी का सत्ता-समूह के रूप में उभार अचरज में डालता है। इस अचरज की द्वाभा से बाहर निकलने पर यह साफ होने लगता है कि ऊपर
से यह भारतीय जनता पार्टी और
काँग्रेस पार्टी को बेदखल
करती हुई दिखती है,
लेकिन
असल में यह प्रथमतः वाम-राजनीति और अंततः जन-राजनीति को बे-दखल करनेवाली पद्धति है।
अपनी अवस्थानगत (Postionalties)
और
अवधारणागत जड़ताओं के कारण
भारतीय जनता पार्टी और काँग्रेस
पार्टी में मिलने या मिलकर
काम करने की गुंजाइश के अभाव
से आम आदमी पार्टी के उद्भव
को जोड़कर देखा जाना चाहिए। यह
अद्भुत राजनीतिक परिस्थिति
है कि वाम-राजनीति
की जगह कम होती जा रही है और वाम-वस्तु
का प्रभाव बढ़ता जा रहा है--
कंटेनर
टूटता गया है और कंटेंट बढ़ता
गया है। काँग्रेस पार्टी के साथ
ही भारतीय जनता पार्टी समेत विभिन्न अस्मिताओं से जुड़ी
राजनीतिक पार्टियों के
अविश्वसनीय और अग्राह्य होते
जाने के बाद वाम-वस्तु,
लेफ्ट
कंटेट्स, अगर लेफ्ट कंटेनर पा
जाता तो यह देशी और विदेशी
पूँजी के लिए लाभकर नहीं होता, बल्कि घातक होता।
देशी और विदेशी पूँजी के अपने
अंतर्विरोध (अंतरर्विरोध
भी)
से
जोड़कर भी आम आदमी पार्टी के
उद्भव को देखा जाना चाहिए।
पश्चिम
बंगाल में वाम-राजनीति
का उभार और उसकी ताकत का
'अक्षय-स्रोत'
संगठित
नागरिक (यकीन
मानिये मजदूर भी नागरिक ही
होते हैं!) जमात
ही
था। पश्चिम बंगाल में (केरल
और त्रिपुरा पर अलग से बात
करनी चाहिए।)
वाम-फ्रंट
के सत्ता में आने और लंबे समय
तक सत्ता में बने रहने का असर
भारत में वाम-राजनीति
के खिलने-मुरझाने पर कैसा पड़ा इसका अध्ययन किया
जाना चाहिए। लेकिन,
यहाँ
इतना ध्यान दिलाना जरूरी है
कि संगठित नागरिक समूह के
संगठित सत्ता-समूह
में बदल जाने ने वाम-राजनीति
को धीरे-धीरे पश्चिम बंगाल में एवं अंततः पूरे भारत में नकारा बना दिया। वाम-राजनीति
अपने इस नकारेपन से उबरने के
लिए काँग्रेस और भारतीय जनता पार्टी समेत अस्मिताओं
की राजनीति करनेवाले दलों के
नकारेपन में ही अपनी जमीन
तलाशती रही,
उसके
बाहर निकलना उसके लिए संभव
नहीं हुआ। और अब इस जमीन को इतिहास और विचार के दबाव प्रभाव से परम मुक्त आम
आदमी पार्टी अपने कब्जे में
ले चुकी है और तेजी से ले रही
है। जेपी
आंदोलन के ताप से बनी जनता
पार्टी के प्रयोग के विफल हो
जाने के बाद खाली जमीन को फिर
से अर्जित कर लेने को काँग्रेस
ने संभव किया तो शायद इसलिए
भी कि वाम-राजनीति
ने उस खाली जमीन को अर्जित
करने की राजनीतिक तैयारी नहीं
की थी। वाम-राजनीति
से मोहभंग के बाद खाली जमीन
के दखल के बाद चल रही राजनीति
से सीख लेते हुए,
आम
आदमी पार्टी से मोहभंग के बाद
जो राजनीतिक जमीन खाली होगी
उसे भरने की तैयारी वाम-राजनीति
को करनी चाहिए। इसमें मुश्किलें
बहुत हैं पर लगता है रास्ता
यही है।
अपरिपक्व सामाजिक आंदोलन के राजनीतिक आंदोलन में बदल जाने के अपने
खतरे होते हैं। पश्चिम बंगाल में वाम-राजनीति के चढ़ाव-उतार को देखने से सहमत हुआ जा सकता है कि संगठित नागरिक
समूह के भी संगठित सत्ता-समूह
में बदल जाने का कितना गहरा खतरा होता है।
आम आदमी पार्टी के माध्यम से
तो अ-संगठित
नागरिक समूह संगठित सत्ता-समूह
में बदला है, इसके नतीजों में
छिपे राहत और आफत तो बाद में
प्रकट होंगे। आम आदमी पार्टी
के सत्ता में आ जाने के बाद
नागरिक जमात की भूमिका का अब क्या
होगा!
क्या
नागरिक जमात के विभिन्न स्तर परस्पर टकराव और डकराव के
भयानक परिसर में नहीं पहुँचेंगे!
यह
टकराव और डकराव किसी हद तक जा
सकती है,
जी
किसी भी हद तक,
गृह-युद्ध!
गृह-युद्ध
तो बहुत भारी शब्द है!
आम
आदमी पार्टी का नया वोट बैंक
है,
तो
इस वोटबैंक की भी राजनीति
होगी। तो क्या फिर जनतंत्र
की प्रक्रिया को सत्ता हासिल करने से सीमित कर दिया गया है?
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