गजल की नई जमीन और नई तमीज
कुछ लोगों के ध्यान में आज भी होगा कि राजेंद्र यादव के संपादन में निकलनेवाली हिंदी की महत्त्वपूर्ण पत्रिका 'हंस' के शुरुआती अंकों में लघु कथाएँ और गजलें नहीं छपती थी। 'हंस' हिंदी साहित्य की नहीं हिंदी कहानी की पत्रिका के रूप में संकल्पित थी। जाहिर है इसमें अन्य विधाओं के लिए कोई खास जगह नहीं थी, सम्मान भी नहीं था। कविताएँ भी एक अंक में किसी एक कवि की ही छपती थी। 'हंस' के शुरुआती अंकों में लघु कथा और गजल छपती तो नहीं ही थी, इस मुत्तलिक एक घोषणा छपती थी जिसका आशय होता था 'हंस' में छपने के लिए गजल और लघुकथाएँ न भेजी जाये। फिर एक अंक में महत्त्वपूर्ण हिंदी कवि मंगलेश डबराल की बेहतरीन टिप्पणी के साथ अदम गोंडवी की कई बेहतरीन गजलें छपीं जो काफी सराही गईं और लोकप्रिय हुईं। जाहिर है हिंदी के उत्साही गजलकारों ने 'हंस' में छपने के लिए विचारार्थ अपनी गजलें भेजनी शुरू कर दी होंगी। राजेंद्र यादव ने अपने संपादकीय में बहुत ही तीखे ढंग से लिखा कि दुष्यंत कुमार और अदम गोंडवी की गजलें क्या लोकप्रिय हुईं, जिसे देखो वही गजल पेल रहा है! इस तीखे मंतव्य की तीखी प्रतिक्रिया हुई। नरेन, नूर मुहम्मद नूर और मेरे मन में भी राजेंद्र यादव के संपादकीय में दर्ज इस मंतव्य की तीखी प्रतिक्रिया हुई, हमने भी एक तीखा पत्र 'हंस' को लिखा और पूछा कि दुष्यंत कुमार के बाद यदि अदम गोंडवी की गजलें महत्त्वपूर्ण हो सकती हैं तो अदम गोंडवी की गजलों के बाद किसी और की गजलों के लोकप्रिय होने की संभावनाओं पर शंका क्यों! शंका, और वह भी इस तरह से व्यक्त कि जिसे देखो वही गजल पेल रहा है, अबांछनीय है। राजेंद्र यादव ने 'अपना मोर्चा' में इस पत्र को छापा। न सिर्फ, इस पत्र को छापा, बल्कि गजलों को 'हंस' में छापे जाने की जरूरत को अपने ढंग से समझा और 'हंस' में गजलें छपने लगीं। हिंदी के कई गजलकारो के साथ-साथ नूर मुहम्मद नूर की भी गजलें 'हंस' समेत विभिन्न पत्रिकाओं में प्रमुखता से छपती रही हैं। एक बात माननी ही होगी हिंदी साहित्य के संपादकों, आलोचकों, संस्थाओं आदि ने विधाओं के बीच सम्मान का संतुलन बनाये रखने में भारी चूक की है। लेकिन नाटक, गजल और गीत की तो भारी उपेक्षा हुई है। जब हम भारत की गंगा-जमुनी संस्कृति की बात करते हैं, तो यह क्यों भूल जाते हैं कि जयदेव गीत लिख रहे थे, विद्यापति के गीत ही अमर हैं, कबीर भी यही कहते थे कि तुम जनि जानो गीत है-- यह निज ब्रह्मविचार, रवींद्रनाथ ठाकुर को गीतों ने ही विश्व कवि बनाया है और मीर, गालिब, फैज की परंपरा के मिलान से भी भारत की गंगा-जमुनी संस्कृति का गहरा लगाव है। इस पर फिर कभी, अभी तो यह कि 'सफर कठिन है' नाम से नूर मुहम्मद नूर की गजलों का एक संग्रह आ रहा है। पहले ही आना चाहिए था। नहीं आ पाया। क्यों नहीं आ पाया! अलग से क्या कहूँ, बस इतना ही समझ लीजिये कि सफर कठिन रहा है, नूर मुहम्मद नूर की जिंदगी का भी और इन गजलों का भी।
नूर मुहम्मद नूर हिंदी गजल का एक जाना-पहचना नाम है। जिन कुछ गजलकारों ने हिंदी गजल को नई जमीन और नई तमीज दी है उन में नूर मुहम्मद नूर की अपनी खास पहचान है। उर्दू गजल के कहन की परंपरा और उसके व्याकरण से भली-भाँति अवगत नूर ने हिंदी गजल के सामाजिक सरोकारों के पाट को चौड़ा किया है। अपनी बात कहने का उनके पास अपना सलीका है।
नूर पिछले चार दशक से लगातार गजल कह रहे हैं। 'सफर कठिन है', को उनकी गजलों का प्रतिनिधि संग्रह कहा जा सकता है। प्रतिनिधि इस अर्थ में कि इस संग्रह से नूर की गजलों का हर मिजाज पाठकों के सामने खुलता है। यह सच है कि गजल लिखी नहीं कही जाती है और गजल पढ़ी नहीं सुनी जाती है फिर भी, इन गजलों को पढ़ना अपने समय की जरूरी आवाज को एक भिन्न तेवर के साथ सुनना है। बारिशों में जले मकान की जलन नूर की गजल में है, तो गंभीर पीड़ाओं के साथ जंगल-बस्ती में घूमने का एहसास भी है। एक ओर जो सम्हाल कर रखा था, गाँठ में उसे भी रहनुमाई और बंदानवाजी के जरिये लुट जाने की हाय-हाय इन गजलों में है, तो दूसरी ओर शब्द से सुंदर पहचान की नहीं, सुंदर हिंदुस्तान की तमन्ना भी इन गजलों में है। इन गजलों में एक ओर मिट्टी के उड़ान पर होने का सच भी समाहित है, अपनी जमीन का ख्वाब, अपनी मिट्टी की आन होने का गहरा एहसास भी है, तो दूसरी ओर किसी आसमान की खबर से पल्ला झाड़ सकने का साहस भी है। योजनाओं की बहक से देश के गड़हे में पड़ते जाने और राजधानी के ताड़ पर चढ़ते जाने से वाकिफ ये गजलें आप से दर्द में दर्द की दवा की तरह मिलेंगी, आप इन से गुफ्तगू कीजियेगा। ये गजलें आपसे हवा की तरह लिपट कर मिलेंगी। कहीं आग तो, कहीं पानी के लिबास में हासिल ये गजलें सिर्फ गजल नहीं जमाने से जामने के रद्दोबदल को कहने का सलीका भी है।
जिंदगी को गजल कहने के हुनर की तलाश में खपा देनेवाले के लिए कितना कठिन है यह मानना कि गजल से कुछ न होगा! लेकिन, फिर भी इसी के माकूल होने के विश्वास को टिकाये रखना नूर की गजलों का अपना हुनर है, जो असल में जिंदगी निरर्थकता में सार्थकता की तलाश का हुनर है। नूर मुहम्मद नूर की गजलों को पढ़ना हिंदुस्तान के समकालीन सफर को पढ़ना है। हिंदुस्तान का समकालीन सफर बहुत कठिन रहा है और इन गजलों का सफर भी। 'सफर कठिन है' की गजलों को पढ़ते हुए कई बार हम सफर में पेश आई अपनी कठिनाईयों को भी पहचानने का हौसला हासिल करते हैं और यही नूर की इन गजलों की खासियत है।
कुछ लोगों के ध्यान में आज भी होगा कि राजेंद्र यादव के संपादन में निकलनेवाली हिंदी की महत्त्वपूर्ण पत्रिका 'हंस' के शुरुआती अंकों में लघु कथाएँ और गजलें नहीं छपती थी। 'हंस' हिंदी साहित्य की नहीं हिंदी कहानी की पत्रिका के रूप में संकल्पित थी। जाहिर है इसमें अन्य विधाओं के लिए कोई खास जगह नहीं थी, सम्मान भी नहीं था। कविताएँ भी एक अंक में किसी एक कवि की ही छपती थी। 'हंस' के शुरुआती अंकों में लघु कथा और गजल छपती तो नहीं ही थी, इस मुत्तलिक एक घोषणा छपती थी जिसका आशय होता था 'हंस' में छपने के लिए गजल और लघुकथाएँ न भेजी जाये। फिर एक अंक में महत्त्वपूर्ण हिंदी कवि मंगलेश डबराल की बेहतरीन टिप्पणी के साथ अदम गोंडवी की कई बेहतरीन गजलें छपीं जो काफी सराही गईं और लोकप्रिय हुईं। जाहिर है हिंदी के उत्साही गजलकारों ने 'हंस' में छपने के लिए विचारार्थ अपनी गजलें भेजनी शुरू कर दी होंगी। राजेंद्र यादव ने अपने संपादकीय में बहुत ही तीखे ढंग से लिखा कि दुष्यंत कुमार और अदम गोंडवी की गजलें क्या लोकप्रिय हुईं, जिसे देखो वही गजल पेल रहा है! इस तीखे मंतव्य की तीखी प्रतिक्रिया हुई। नरेन, नूर मुहम्मद नूर और मेरे मन में भी राजेंद्र यादव के संपादकीय में दर्ज इस मंतव्य की तीखी प्रतिक्रिया हुई, हमने भी एक तीखा पत्र 'हंस' को लिखा और पूछा कि दुष्यंत कुमार के बाद यदि अदम गोंडवी की गजलें महत्त्वपूर्ण हो सकती हैं तो अदम गोंडवी की गजलों के बाद किसी और की गजलों के लोकप्रिय होने की संभावनाओं पर शंका क्यों! शंका, और वह भी इस तरह से व्यक्त कि जिसे देखो वही गजल पेल रहा है, अबांछनीय है। राजेंद्र यादव ने 'अपना मोर्चा' में इस पत्र को छापा। न सिर्फ, इस पत्र को छापा, बल्कि गजलों को 'हंस' में छापे जाने की जरूरत को अपने ढंग से समझा और 'हंस' में गजलें छपने लगीं। हिंदी के कई गजलकारो के साथ-साथ नूर मुहम्मद नूर की भी गजलें 'हंस' समेत विभिन्न पत्रिकाओं में प्रमुखता से छपती रही हैं। एक बात माननी ही होगी हिंदी साहित्य के संपादकों, आलोचकों, संस्थाओं आदि ने विधाओं के बीच सम्मान का संतुलन बनाये रखने में भारी चूक की है। लेकिन नाटक, गजल और गीत की तो भारी उपेक्षा हुई है। जब हम भारत की गंगा-जमुनी संस्कृति की बात करते हैं, तो यह क्यों भूल जाते हैं कि जयदेव गीत लिख रहे थे, विद्यापति के गीत ही अमर हैं, कबीर भी यही कहते थे कि तुम जनि जानो गीत है-- यह निज ब्रह्मविचार, रवींद्रनाथ ठाकुर को गीतों ने ही विश्व कवि बनाया है और मीर, गालिब, फैज की परंपरा के मिलान से भी भारत की गंगा-जमुनी संस्कृति का गहरा लगाव है। इस पर फिर कभी, अभी तो यह कि 'सफर कठिन है' नाम से नूर मुहम्मद नूर की गजलों का एक संग्रह आ रहा है। पहले ही आना चाहिए था। नहीं आ पाया। क्यों नहीं आ पाया! अलग से क्या कहूँ, बस इतना ही समझ लीजिये कि सफर कठिन रहा है, नूर मुहम्मद नूर की जिंदगी का भी और इन गजलों का भी।
नूर मुहम्मद नूर हिंदी गजल का एक जाना-पहचना नाम है। जिन कुछ गजलकारों ने हिंदी गजल को नई जमीन और नई तमीज दी है उन में नूर मुहम्मद नूर की अपनी खास पहचान है। उर्दू गजल के कहन की परंपरा और उसके व्याकरण से भली-भाँति अवगत नूर ने हिंदी गजल के सामाजिक सरोकारों के पाट को चौड़ा किया है। अपनी बात कहने का उनके पास अपना सलीका है।
नूर पिछले चार दशक से लगातार गजल कह रहे हैं। 'सफर कठिन है', को उनकी गजलों का प्रतिनिधि संग्रह कहा जा सकता है। प्रतिनिधि इस अर्थ में कि इस संग्रह से नूर की गजलों का हर मिजाज पाठकों के सामने खुलता है। यह सच है कि गजल लिखी नहीं कही जाती है और गजल पढ़ी नहीं सुनी जाती है फिर भी, इन गजलों को पढ़ना अपने समय की जरूरी आवाज को एक भिन्न तेवर के साथ सुनना है। बारिशों में जले मकान की जलन नूर की गजल में है, तो गंभीर पीड़ाओं के साथ जंगल-बस्ती में घूमने का एहसास भी है। एक ओर जो सम्हाल कर रखा था, गाँठ में उसे भी रहनुमाई और बंदानवाजी के जरिये लुट जाने की हाय-हाय इन गजलों में है, तो दूसरी ओर शब्द से सुंदर पहचान की नहीं, सुंदर हिंदुस्तान की तमन्ना भी इन गजलों में है। इन गजलों में एक ओर मिट्टी के उड़ान पर होने का सच भी समाहित है, अपनी जमीन का ख्वाब, अपनी मिट्टी की आन होने का गहरा एहसास भी है, तो दूसरी ओर किसी आसमान की खबर से पल्ला झाड़ सकने का साहस भी है। योजनाओं की बहक से देश के गड़हे में पड़ते जाने और राजधानी के ताड़ पर चढ़ते जाने से वाकिफ ये गजलें आप से दर्द में दर्द की दवा की तरह मिलेंगी, आप इन से गुफ्तगू कीजियेगा। ये गजलें आपसे हवा की तरह लिपट कर मिलेंगी। कहीं आग तो, कहीं पानी के लिबास में हासिल ये गजलें सिर्फ गजल नहीं जमाने से जामने के रद्दोबदल को कहने का सलीका भी है।
जिंदगी को गजल कहने के हुनर की तलाश में खपा देनेवाले के लिए कितना कठिन है यह मानना कि गजल से कुछ न होगा! लेकिन, फिर भी इसी के माकूल होने के विश्वास को टिकाये रखना नूर की गजलों का अपना हुनर है, जो असल में जिंदगी निरर्थकता में सार्थकता की तलाश का हुनर है। नूर मुहम्मद नूर की गजलों को पढ़ना हिंदुस्तान के समकालीन सफर को पढ़ना है। हिंदुस्तान का समकालीन सफर बहुत कठिन रहा है और इन गजलों का सफर भी। 'सफर कठिन है' की गजलों को पढ़ते हुए कई बार हम सफर में पेश आई अपनी कठिनाईयों को भी पहचानने का हौसला हासिल करते हैं और यही नूर की इन गजलों की खासियत है।
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