न किसी की आँख का नूर, न किसी के दिल का करार

प्रधानमंत्री ने जो कहा उस पर चर्चा होना लाजिमी है। विभिन्न चैनलों पर, सोसल मीडिया में चर्चा हो भी रही है। लेकिन किसी पत्रकार, किसी नागरिक बुद्धिजीवी, की व्याख्या और राजनीतिकों की व्याख्या क्या एक ही तरह की हो सकती है!

चुनावी नतीजों की चिंता किये बिना प्रधानमंत्री ने अपनी बात सफाई से की है, अपनी कमजोरियों और नाकामियों को गलत जवाबों, डपोरशंखी बयानों से ढकने की कोशिश नहीं की है। उनके इस साहस, उनकी इस साफगोई, उनकी इस शैली की प्रशंसा की जानी चाहिए। मेरा मानना रहा है कि गलत जवाब के कवच-कुंडल से लैस होकर सच का सामना करने से कहीं बेहतर होता है, सही सवाल से बिंध जाना। किसी भी कीमत पर चुनावी नफा-नुकसान के हिसाब में लगे लोगों में यह साहस कम ही होता है। भ्रष्टाचार नहीं रोक पाये, महगाई पर काबू नहीं पा सके, रोजी-रोजगार के बेहतर अवसर नहीं बना पाये, किसी प्रधानमंत्री का यह स्वीकारना बहुत बड़ी बात है।

यह सच है कि प्रधानमंत्री भ्रष्टाचार नहीं रोक पाये, न अपने दल के नेताओं के, न अपने सहयोगी दल के नेताओं के और न राज्यों में सरकार चला रहे विरोधी दल के विभिन्न नेताओं के। जब बाजार ही काबू में नहीं रहेगा तो महगाई पर कैसे काबू पाया जा सकता है। बाजारवाद की नीतियों से चिपके रहकर महगाई को रोकना मुमकीन नहीं होता है, खासकर तब जब सरकार के प्रभाव से बाहर होकर बाजार राजनीतिक दलों को साधकर नफा कमाने और लूट मचाने के अंतर को ही खत्म करने पर आमादा हो। रोजी-रोजगार के बेहतर अवसर के लिए हमारी सरकार भूमंडलीकरण की नीतियों के सहारे चलती रही। जबकि इधर, भूमंडलीकरण की नीतियों में बड़ा बदलाव विकसित देशों में आ गया, वॉल स्ट्रीट दखल जैसे प्रसंगों को याद करें, जिसका नतीजा यह हुआ कि रोजी-रोजगार के बेहतर अवसर छीजते चले गये। जो राजनीतिक दल/नेता इसे सरकार की नाकामी बताकर ऊपर से विक्षुब्ध और भीतर से संतुष्ट हो रहे हैं उन्हें आगे बढ़कर यह भी बताना चाहिए कि भ्रष्टाचार रोकने, महगाई पर काबू पाने, रोजी-रोजगार के बेहतर अवसर बनाने के लिए उनके पास क्या तरीका है जो उदारीकरण-निजीकरण-भूमंडलीकरण से नत्थीकृत अर्थनीति के अभिमुख को बदल सकेगा। प्रधानमंत्री ने तो उदारीकरण-निजीकरण-भूमंडलीकरण से नत्थीकृत अर्थनीति होने के नतीजे को समझा, स्वीकारा और सामने रखने का साहस दिखाया। अब पक्ष-विपक्ष के सभी लोगों के लिए जरूरी है कि इस गैर-चुनावी बयान के अर्थनीतिक प्रसंगों को समझें और प्रधानमंत्री के बयान को कथोपकथन से सीमित न कर उसकी भूमंडलीय प्रक्रिया के संदर्भों को समझें। यह स्वीकार उदारीकरण-निजीकरण-भूमंडलीकरण से नत्थीकृत अर्थनीति के पैरोकारों के लिए अधिक गौरतलब है। एक नागरिक के हिसाब से तो मुझे प्रधानमंत्री का यह बयान उस शायर बादशाह जफर की याद दिला गया, जिसने बहुत ही ईमानदारी से समझा और स्वीकारा और दुख के साथ कहा था कि न किसी की आँख का नूर हूँ, न किसी के दिल का करार हूँ, जो किसी के काम न आ सका, वह एक मुश्त गुबार हूँ... प्रधानमंत्री ने भी बहुत दुख से कहा है... मैं एक साधारण नागरिक के हिसाब से अपने प्रधानमंत्री के इस दुख में खुद को शामिल महसूस करता हूँ..

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