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आलोचना वितंडा और पाठक
आलोचना के लिए जगह कम होती जा रही है और वितंडा के लिए जगह बढ़ रही है। साहित्य को पाठक की जरूरत होती है, भक्तों की नहीं। विडंबना यह कि हिंदी में लेखकों को भक्त चाहिए पाठक नहीं। इस समय कविता के कुछ भक्त तो यत्र-तत्र दीख जाते हैं, लेकिन पाठक रूठ गये हैं। पाठक, जिसे पहले सामाजिक भी कहा जाता था और ठीक ही कहा जाता था, तो इस बात से उदासीन ही है कि कहीं कोई पाठ बहुत ही बेसब्री से उसकी प्रतीक्षा कर रहा है। पाठक की इस उदासीनता के लिए कुछ हद तक साहित्य तो जिममेवार है ही पाठक भी कम जिम्मेवार नहीं है। क्या सचमुच साहित्य में पाठकों की प्रतीक्षा का प्रमाण मिलता है?
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