गठरिया तोर, कि मोर
कल (09 फरवरी 2014) शब्दकर्म
विमर्श की ओर से बंगीय हिन्दी परिषद सभाकक्ष में आयोजित अनय स्मरण सभा में शामिल
हुआ। प्रोफेसर अनय हमारे बीच नहीं हैं, यह टीस ताजा हो गई।
लेकिन,
सभा
में शामिल होना अच्छा लगा। डॉ. हितेंद्र पटेल (Hitendra Patel) खुद प्रोफेसर
हैं,
अच्छा
बोलते हैं। कल अनय जी पर बोलते हुए भावुक हो गये। कहा कि अनय जी मेरे लिए हमेशा
जीवित हैं,
उनके
बारे में इस तरह बोलना मेरे लिए संभव नहीं है। आँख भर आई, गला भर्रा
गया और बैठ गये। कभी-कभी आदमी न बोलकर भी बहुत कुछ कह जाता है और कभी-कभी बहुत
बोलकर भी कुछ नहीं कह पाता है। यह महसूस करना अच्छा लगा। इतनी-सी भावुकता बची रहनी
चाहिए। डॉ. हितेंद्र पटेल इतिहास के सक्रिय प्रोफेसर हैं। आज वे बहुत कुछ जानते
हैं लेकिन अनय जी उन्हें और अनय जी को वे तब से जानते हैं जब डॉ. पटेल ने प्रसिद्ध
पिल्मकार सत्यजित रे का नाम भी नहीं सुना था। अनय जी हिंदी के प्रोफेसर थे, हितेंद्र
इतिहास के प्रोफेसर हैं। इतिहास का प्रोफेसर किसी हिंदी प्रोफेसर को अपना गुरू
मानकर इतना भावुक हो जाये तो इसे भी ऐतिहासिक घटना मानना चाहिए। इसे सिर्फ
व्यक्तिगत संबंधों की तरह न मानकर, सक्रिय ज्ञान के अंतर-अनुशासनिक
गति-मति के लिए शुभ लक्षण मानना चाहिए। महत्त्वपूर्ण यह भी है कि भावुकता से बाहर
निकलकर अनय जी के बारे में सोचना चाहिए। इतिहास के बनने-बिगड़ने, इतिहासदेव की
चमक और मलीनताओं की गति-प्रकृति को हम सभी थोड़ा-बहुत जानते हैं, हितेंद्र
पटेल तो खैर विशेषज्ञ ही हैं। अनय जी के रचना विकास को ठीक से समझने पर यह बात
भाषा में समा सकती है कि विभिन्न हिंदी इलाकों से आकर कोलकाता में रहनेवालों/ आकर
रहनेवालों का जीवन संघर्ष कैसा होता है। किस तरह वह यहाँ की सामाजिक-नागरिक
कार्रवाइयों का हिस्सा और अंततः राजनीतिक प्रक्रिया का अंशीदार बनता है और यह भी
कि कैसे इस प्रक्रिया की मूल प्रेरणा वह रचनात्मक प्रवृत्ति और शक्ति होती है, जो साहित्य
लिखने की प्राथमिक शर्त्त है। अनय जी प्रोफेसर थे, लिखते थे
लेकिन प्रोफेसनल लेखक नहीं थे। जो लिखा वह भाषिक बुनावट और बारीकियों के कारण
महत्त्वपूर्ण तो हो सकता है, लेकिन उसका अधिक महत्त्व उसमें निहित
समय के साक्ष्य के कारण है। मुझे लगता है कि अनय जी के मोनोग्राफ के बारे में सोचा
जाना चाहिए। हितेंद्र पटेल की भावुकता ने यह एहसास कराया कि बिना बोले भी आदमी
बहुत कुछ कह सकता है तो प्रियंकर पालीवाल (Priyankar Paliwal) की
अनुपस्थिति ने यह एहसास कराया कि अनुपस्थिति में उपस्थिति कैसे बनती है। अच्छा
लगा... शहर के कई महत्तवपूर्ण साहित्यिक लोगों को बहुत दिन बात करीब से देखा...
लेकिन यह अच्छा नहीं लगा कि वहाँ
उपस्थित युवाओं को सुनने का अवसर नहीं बन पाया... बहरहाल यह जिंदगी है.. लाख समेटो
कुछ-न-कुछ गठरी के बाहर छूट ही जाता है... और बिरासत की लड़ाई में झिका-झोरी शुरू होती है... गठरिया तोर, कि मोर...
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