कह दूँ! कि तेरी हँसी बहुत भाती है!!! ▬▬▬▬
गहन, घन अंधकार का गर्जन चतुर्दिक हाहाकर,
दर्द का नीरव निनाद
यह कैसा समय आ गिरा सर पर कोई घायल चीख
नंगे घावों को लेकर कर रहा नाच, भैरवी के सुर में अनाघात
चू पड़ता, बिना हवा के महुआ जंगल में चुपचाप सहमकर ग्राम, सड़क, बन, प्रांतर, बाग, विकार से भरे हुए सब, निर्विकार
ऐसे मौसम में कहाँ
लुप्त वे सारी पुरा कथाएँ,
माथे पर जिनके सजता था जीवन का हास-विलास, रंग-राग नहीं वैभव की स्मृति दूर
क्षितिज के आर-पार से लेकर गह्वर पाताल लोक तक मची हुई मार-काट, सत्ता के शिखर से
जन के पद तक,
हर कहीं अन-चिन्हार आघात के पार कोमल भाव, सीमांत के अंतिम क्षण पर खड़ा निर्जन में अवाक सिर्फ, बोल रहा है जो शब्द-हीन, जो वंचित संचित शोणित राग फफक कर प्रतिपल उत्ताल भू-धराकार रौशनी में सबसे अधिक चमकता है झूठ
यह दुर्लभ समय का चमत्कार सच अँधेरे में है, है मगर जिंदा अब भी, कटे हुए तरु की जिंदा जड़ से लिपटकर, स्वप्न-मग्न
वह भग्न-मनोरथ है जिंदा अब भी उनकी साँसों में साँस मिलाकर जिनका जीवन घोषित व्यर्थ अर्थ जिनके नहीं काम का रह गया किसी अर्थ में, सब अर्थों में असमर्थ भयानक समय, फूल में डंक, पूजा में भी प्रसाद में भी कलंक
कंथा के आर-पार कंधे पर ढोता, जिसके सब अनुगामी, प्रेमी, साधक, राजा, रंक
ऐसे में कह दूँ कि तेरी हँसी बहुत भाती है, तू मेरे साँस-साँस में गाती है तो यह झूठ, समझ
जब तक ग्राम, सड़क, वन, प्रांतर, बाग नहीं लगें झूमने फिर से
तब तक यह चमक झूठ,
यह राग झूठ, अनुराग झूठ, व्यवहार झूठ
यह कब होगा, यह होगा भी
यह कौन कहे
तब तक सब कुछ मौन रहे,
प्रश्न अनुत्तरित, साधना लीन !!! कह दूँ! कि तेरी हँसी बहुत भाती है!!!
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(पाठकीय संदर्भ-संकेतः यह प्रथमतः अपने महबूब जनतंत्र को संबोधित और उसी को समर्पित है)
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