मैं जो लिखता हूँ

मैं अपने लिखे बारे में कहता हूँ। मेरे लिखे को सहमति या सहमतियों या असहमतियों की कोई तलाश नहीं होती है और न होती है किसी को अपने लिखे के निष्कर्ष तक ले जाने की कोई आकांक्षा। तलाश होती है तो बस संवाद, संवेदना और संभवानाओं (potential) के साझापन की। लेकिन विमर्श विचार आदि की प्रक्रिया का अधिकांश सहमति और निष्कर्षमुखी होता है। चर्चा तो बहुत कम ही हो पाती है और हुई भी तो लिखा हुआ प्रसंग संवाद, संवेदना और संभावना की तलाश में तड़पता हुआ कहीं बहुत पीछे छूट जाता है। मेरे लिखे की हालत मंदिर की सीढ़ियों के पायदानों की तरह जिसे लतियाते हुए लोग अपना-अपना फूल चंदन लिये अपने-अपने देव की पूजा-अर्चना कर प्रसाद समेटने में लग जाते हैं। भिन्न संदर्भ में लिखा था शृंगार ही इतना भव्य कि सौंदर्य तक पहुंचने का रास्ता ढक जाता है और दुल्हन के धड़कते दिल तक पहुंचने की तो उम्मीद ही क्या!हमारा लिखा दुल्हन के धड़कते दिल की तरह तड़पता रह जाता है। अफसोस, मगर यह सच है! और हाँ, मैं पढ़ता भी इसी नजरिये से हूँ। बुद्ध कबीर गालिब रवींद्र प्रेमचंद गांधी अंबेदकर मार्क्स नजरुल निराला नागार्जुन राजेंद्र यादव कमलेश्वर .... या संजीव शिवमूर्त्ति उदय प्रकाश ये सभी मेरे लिए पठनीय बहुत हैं पूजनीय नहीं। ऐसा सोचना पूजनीयताओं के माहौल में कठिन तो है, मगर मेरे लिए कुछ भी कभी आसान नहीं रहा।

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