प्रेम में द्रोह!
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प्रेम कभी भूतपूर्व नहीं होता। प्रेम में कोई द्रोह नहीं होता। प्रेम में कोई 'ब्रेकअप' भी नहीं है होता है। जहाँ यह सब होता है और जिसमें यह सब होता है वहाँ और वह सब प्रेम नहीं कुछ और होता है। प्रेम एकनिष्ठ भी नहीं होता। प्रेम प्रकाश है। प्रकाश में कोई अंधकार नहीं होता। प्रेम पोशाक नहीं है। प्रेम रौशनी है। रौशनी में पोशिदगी नहीं होती। ऐसी कोई रौशनी नहीं जिसमें कोई एक ही चीज नजर आये और बाकी चीजें नजरअंदाज हो जाये। नजरशनाशी प्रेम का करिश्मा है। इसलिए फिर कहूँ, प्रेम एकनिष्ठ नहीं होता। मुहब्बत चाँद से भी होती है और सितारों से भी, फूल से भी और काँटों से भी, मुहब्बत पूरी कायनात से होती है। यह सब तो कह रहा लेकिन यह एहसास है और बहुत शिद्दत से है कि प्रेम को समझना आसान नहीं, प्रेम एहसास है एहसान नहीं! तो मैं किसी वायवीयता में फँस रहा, किसी अधि-आत्मिकता में! नहीं, बिल्कुल ही नहीं। प्रेम एक तरंग है और इसका अपना रंग है। रंग जो महबूब के वजूद के पनाह में होता है उसका रिश्ता आँख से तो है, सूरज से भी है और ज्यादा है। इसे समझना कठिन है और जरूरी उससे भी ज्यादा। यह ठीक है कि जार जार रोना, बगैर मुड़े आगे बढ़ जाना, बगैर सोचे पीछे लौट आना, और इस दुःख को जानना यह सब मुहब्बत की फसल है। फसल है, फैसला नहीं। यह सब लगता है, होता नहीं। न आगे बढ़ना इतना आसान न पीछे लौटना! मुहब्बत के बारे में ये कुछ कयास हैं जो अपनी अदा में दिल और जुबान से टकराकर और एक दूसरे की सोहबत में कविता के शक्ल में हासिल होती है। "आज कल तो बहुत सारे प्रबंध पाठ और शास्त्र हैं, होटल मैनेजमेंट से ह्यूमेन मैनेजमेंट तक। किंतु संभवत:, दुनिया का सबसे पुराना प्रबंध प्रेमप्रबंध ही है। प्रेम पोषण के लिए भी चाहिए और शोषण के लिए भी। प्रेम साधू को भी चाहिए और कामी को भी चाहिए। दानी को भी चाहिए और डाकू को भी।"
प्रेम का होना हो या फिर राग-द्वेष का होना यह मनुष्य की ऐच्छिक क्रिया नहीं है। अनुभूतियाँ ऐच्छिकता पर निर्भरशील नहीं होती हैं। समझा जा सकता है कि जैसे ठंडा-गर्म या भूख का लगना प्राणी की ऐच्छिकता पर निर्भर नहीं करती वैसे ही प्रेम-पदार्थ के प्रभाव में व्यक्ति के होने का सर्वांश व्यक्ति पर निर्भर नहीं करता। हाँ, प्रभाव की व्याप्ति और गहनता में भिन्नता होती है।
प्रेम में द्रोह नहीं होता प्रेम कभी भूतपूर्व नहीं होता। कई बार हम समझते ही नहीं कि जिसे जीत समझ रहे वह असल में हमारी हार है और जिसे हार समझ रहे जीत उसके भीतर मुस्कुरा रहा है। मेरे दोस्त जो हार और जीत से बाहर है, जो भव और पराभव से परे है वही है जिंदगी।
आप की राय सदैव महत्त्वपूर्ण है और लेखक को बनाने में इसकी कारगर भूमिका है।
प्रेम में द्रोह!
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