अरुण कमल की कविताएँ या कहें दो हिस्से में बँटी एक ही कविता दरअस्ल अपनी सार्वभौमिकता से कटी उस उपभोक्ता व्यक्ति की करुण मानसिक स्थिति का इजहार है जो अमरत्व की लिप्सा की चपेट में जीवन के लिए जरूरी नैसर्गिक संसाधन खोता चला जा रहा है। उसे पानी चाहिए और पानी कहीं बच नहीं पा रहा जीवन में - - - न चेहरे पर, न आँख में और चरित में तो बिल्कुल ही नहीं।
हाट, बाजार और पेठिया के अंतर को ध्यान में रखें तो पता चलता है कि अंतर खो गया है। पहले इलाके मे साप्ताहिक बाजार लगा करता था। जीवन जारी रखने के वास्ते जरूरी विनिमय को संभव करने के लिए बाजार का दिन एक प्रतीक्षित दिन हुआ करता था। तब बाजार का दिन भाषा का यथार्थ था। अरुण कमल की कविता तक आते-जाते बाजार का दिन बहुत ही करुण मुहावरा में बदल गया है। भयानक है इस तरह भाषा के यथार्थ का निरीह मुहावरा में बदलते चला जाना।
जिसके पास देह के अलावा कुछ नहीं होता वही सर्वहारा होता है।
सच को सजा कर रखने की कोशिश सच को झूठ में बदलने की बुनियाद है तो सवाल कलात्मक अभिव्यक्ति पर या अभिव्यक्ति की कला पर जोर देना सच के दायरे से निकलकर झूठ की बारात में शामिल होना है। जब खून में ही उबाल नहीं तो बाजार के दिन के बीच से गुजर रहे आदमी के सामने पानी उबाल कर पीने की शर्त बन जाती है। श्राद्ध से लौटकर छठी में शामिल होने की ओर बढ़ते हुए कवि का हौसला पस्त है, वह हौसला जो कहता था, न जाने से कुछ न होगा टूटेगा भरोसा और वही तो बचाना है हर हाल में! चलिए साथी!
लोग भूल गए हैं (संभवतः 1982) कविता संकलन में रखे गए निवेदन से एक अंश " ज के कवि का अपनी परीक्षा के लिए समाज के सामने आना,विशेष रूप से तब जबकि समाज में उसके अपने अस्तित्व को अर्थात समाज से अपने रिश्ते को समझने में संशय हो रहा हो, उसे अहं के रचनाविरोधी खतरे से बचायेगा।क्या उसकी रचना सचमुच कहीं झूठे विश्वासोंं को झूठा बताती है?और जो नया विश्वास देती है वह लोगों के मन में क्या स्वयं उनकी एक नयी पहचान पैदा करता है ? लोग कवि की रचना में क्या उस नये विश्वास को पहचानकर देख पाते हैं कि अवश्य ही कविता उन्हें बता रही है कि खुद उनमें नया क्या है? पाठक का पुनरूज्जीवन कर सकना आदेश या उपदेश देनेवाले अहं का विसर्जन करके ही संभव है और इसीकी परीक्षा के लिए कवि को बार-बार अपनी रचनाएँ प्रकाशित करनी होती हैं।आज अन्याय और दासता की पोषक और समर्थक शक्तियों ने मानवीय रिश्तों को बिगाड़ने की प्रक्रिया में वह स्थिति पैदा कर दी है कि अपने अधिकारों के लिए संघर्ष करनेवाले जन मानवीय अधिकार की अपनी हर लड़ाई को एक पराजय बनता हुआ पा र हे हैं।" तो फिर विकल्प क्या है? रघुवीर सहाय के शब्दों में "... भाइयो,अगर हम अपनी दुनिया में जूझते-जूझते जिंदा नहीं रह सकते तो कम-से-कम इतना करें कि जब मरना पड़े तो उसी में मरने की कोशिश करें।" ( आत्म हत्या के विरूद्ध )
आज जब सभ्यता अमरत्व की खोज में भटककर जिस नये इलाके में पहुंच गई है वहाँ कवि का असली मोर्चा ही खो गया है। ऐसे में कवि जीये तो कैसे और मरे तो कैसे! पानी रे पानी, तेरा मेरे खून से रिश्ता ही खो गया! आभार अरुण कमल और देशज। अब दोस्तों की बात का इंतजार..
1) सुधा जी 🙏🏼 अवधेश को संबोधित करते हुए जिस मार्के की बात की ओर आपने ध्यान खींचा है वह रघुवीर सहाय की कही बात है जिसे यहां मैंने उद्धृत भर किया है। जय से सहमत दुख का मितभाषी हो जाना सही नहीं है। मेरा मानना यह है कि दुख का मितभाषी होना उसी तरह सही नहीं है जिस तरह से उसका दहाड़ना भी सही नहीं है। बहुत बोलती हुई (loud) कविता के बाहर बहुत चुस्त लेकिन सुस्त (mild) कविता भी पाठक का पनरुज्जीवन में बहुत सहायक नहीं। कवि सिर्फ द्रष्टा (observe r) या वाचक (narrator) की भूमिका तक सीमित होता दिखे और पाठक (public के अर्थ में भी ) के नागरिक जीवन के दुख के बाहर से संबोधित करे तो इसे संकट की सूचना के रूप में पढा जाना चाहिए। हमारा यथार्थबोध का अधकचरापन और भाषा का अतिकथन कविता की संवेदना के अंतःकरण को संकुचित ही करता है और पाठक को उसकी आत्मविमुग्धता या आत्मातिक्रमण में जड़ीभूत करने का उपकरण बन जाता है। आरोपित प्रशंसा और कुत्सा से बाहर विश्लेषण की गहरी जरूरत आज कविता को है। इस जरूरत पर ध्यान नहीं दिया गया तो काव्य स्फीति और विस्फीति में कविता सिर्फ उक्ति बन कर रह जायेगी। सिर्फ उक्तिजि चाहे जितनी चामात्कारिक हो अपने चरमोत्कर्ष पर भी कविता नहीं ठहरती है। सामाजिक ताप के संवहन के नैसर्गिक वैभव के छीजन से कविता को बाहर निकलना ही होगा। पब्लिक (सार्त्र का संदर्भ लें) तो दूर पाठक का भी साथ मिलना कठिन ही है। हाँ, प्रशंसा और /या कुत्सा करनेवालों के साथ होने की बात और है।
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