समाज, सत्ता और संस्कृति

आज संस्कृति का नेतृत्व उच्च वर्ग के हाथ में है -- जिनमें उच्च मध्यवर्ग भी शामिल है।किंतु यह आवश्यक नहीं है कि यह परिस्थिति स्थायी रहे,अनिवार्यत:।यह बदल सकती है।और, जब बदलेगी,तब इतनी तेजी से बदलेगी कि होश फ़ाख्ता हो जायेंगें। संस्कृति का नेतृत्व करना जिस वर्ग के हाथ में होता है,वह समाज और संस्कृति के क्षेत्र में अपनी भावधारा और अपनी जीवन-दृष्टि का इतना अधिक प्रचार करता है कि उसकी एक परंपरा बन जाती है। शायद वह जमाना जल्दी ही आ रहा है जब वे स्वयं संस्कृति का नेतृत्व करेंगी, और वर्तमान नेतृत्व अध:पतित होकर धराशायी हो जायेगा। इस बात से वे डरें जो समाज के उत्पीड़क हैं, या उनके साथ हैं हम नहीं क्योंकि हम पद-दलित हैं और अविनाशाय हैं-- हम चाहे जहाँ उग आते हैं। गरीब, उत्पीड़ित, शोषित मध्यवर्ग को ध्यान में रखकर मैं यह बात कह रहा हूँ। 
- मुक्तिबोध 
प्रेमचंद जयंती पर हंस द्वारा आयोजित ''समाज, सत्ता और संस्कृति'' का यह अत्यंत जरूरी विमर्श जितनी गंभीरता से प्रारंभ हुआ है उतनी ही गंभीरता से जारी भी रह पायेगा, यह उम्मीद की जानी चाहिए।ऐसे विमर्शों से किसी सर्वमान्य और अंतिम निष्कर्ष की आशा करना तो किसी भी प्रकार से उचित नहीं कहा जा सकता, क्योंकि इस प्रकार के विमर्श में जिस चलंत यथार्थ के उद्घाटन का प्रयास किया जाता है वह चलंत यथार्थ अपना रूप ही नहीं तत्त्व भी इतनी तेजी से बदल लेता है कि फिर से नये विमर्श की तत्काल आवश्यकता बार-बार उपस्थित हो जाती है। फिर आज की क्षिप्र मति-गतिवाले समय में तो खुद विमर्श में भी उतनी और वैसी ही सापेक्ष गतिशीलता का समावेश किये बिना उसे सार्थक ढंग से चलाया भी नहीं जा सकता है।निश्चित रूप से इस विमर्श को शुरू करने के लिए हंस के प्रति हिंदी समाज को आभारी होना चाहिए। 
इस तरह के विमर्श में बात को अधिक स्पष्टता से रख पाने के लिए यह आवश्यक है कि उस परिप्रेक्ष्य को ओझल नहीं होने दिया जाये जिस परिप्रेक्ष्य में ऐसे विमर्शों का सूत्रपात होता है।आखिर यह किसी पाठ्यक्रम के अंतर्गत और उसी की चिंताओं से जुड़कर आरंभ हुआ विमर्श तो है नहीं।ध्यान रखना चाहिए कि ऐसे विमर्शों के प्रारंभ का भी अपना एक सामाजिक सरोकार होता है जिसका एक पक्ष उस सरोकार के सामाजिक प्रतिफलन को भी उद्भासित करता है।तात्पर्य यह कि जिस सामाजिक वातावरण और परिप्रेक्ष्य में ऐसा विमर्श प्रारंभ होता है उस सामाजिक वातावरण और परिप्रेक्ष्य पर पकड़ ढीली पड़ते ही वह मात्र अकादमिक चिंताओं का विषय बनकर रह जाता है।समाजशास्त्रीय अध्ययन की दृष्टि से भले ही ऐसा विमर्श मूल्यवान बन पड़े लेकिन जिन चिंताओं को केंद्र में रखकर ''हंस '' जैसी पत्रिका इसके प्रारंभ का सूत्रपात करती है वे चिंताएँ पीछे ढकला जाती हैं।ऐसे में योगेंद्र यादव जैसे विचारकों को निश्चित ही इससे जेनुइन बैचैनी और असहमति होती है। फिर आज के परिप्रेक्ष्य को देखें तो ''किसका समाज, किसकी सत्ता और किसकी संस्कृति ? '' जैसे दुनिर्वार जायज सवाल सहज ही उठते हैं।इन सवालों का ठीक-ठीक उत्तर दिये बिना और इस ''किस'' को ठीक से पहचाने बिना विमर्श को बौद्धिक गांभीर्य तो प्रदान किया जा सकता है लेकिन समय के व्यापक सरोकार की संवेदना से इस विमर्श के तार को अपेक्षित ढंग से जोड़ पाना संभव नहीं लगता है। इस ''किस'' को ठीक से पहचानना कोई आसान काम नहीं है।वर्ण, वर्ग, धर्म,भाषा के विभेद से उत्पन्न विषमताओं से बनी विभिन्न रसौलियों से पीड़ित तथा ग्रस्त एवं बाजारवाद की ओर ललक के साथ बढ़ती हुई अन्य-प्रेरित गति-च्युत पदानुक्रमिकता पीड़ित सभ्यता के परिप्रेक्ष्य में इन सवालों का औचित्य एवं पैनापन और भी बढ़ जाता है।ऐसे सवालों को उठाना जितना जोखिम भरा है उससे अधिक जरूरी भी है। इसलिए ऐसे सवालों को किसी अगली पीढ़ी के लिए टाल देना और भी खतरनाक हो सकता है।तब, यह भी सच है कि विमर्श के किसी एक ही उठान में ऐसे सवालों को संतोषजनक ढंग से उठाकर नाचने के बौद्धिक हड़बोंग से भी बचने की खासी जरूरत है।इन सवालों के परिप्रेक्ष्य में ''समाज, सत्ता और संस्कृति'' पर विमर्श के लिए बात को समाज,सत्ता और संस्कृति पर पहले अलग-अलग फिर एक साथ विचार करना अधिक उचित प्रतीत होता है। वैसे रूपक के माध्यम से कहें तो,''समाज, सत्ता और संस्कृति'' का संबंध वैसा ही है जैसा ''धान,चावल और भात'' का होता है।
समाज 
समाज मनुष्य की पुरानी संस्थाओं में से एक किंतु सबसे महत्त्वपूर्ण संस्था है । यह कहने की जरूरत नहीं है कि इसके स्वरूप में समय-समय पर बदलाव आता रहता है।यद्यपि यह बदलाव अपेक्षाकृत धीरे-धीरे होता है । कई बार तो इस बदलाव की गति इतनी धीमी होती है कि एक प्रकार की ऊब-सी भी होने लगती है।लेकिन कई बार यह बदलाव इतनी तेज गति से होता है कि सारा सामाजिक ढाँचा चरमराने लगता है।एक अलग स्थिति भी होती है और वह यह कि समाज के जिस पक्ष,अंग या अवयव में यह बदलाव तेजी से अपेक्षित और प्रतीक्षित होता है उस में यह बदलाव या तो होता ही नहीं है या फिर बहुत धीमा होता है। जिस पक्ष में यह बदलाव अपेक्षित और प्रतीक्षित नहीं होता है या फिर धीमी गति से अपेक्षित होता है वहाँ यह बदलाव बहुत तेजी से घटित होता है। एक बात यह भी ध्यान में रखनी चाहिए कि समाज के विभिन्न वर्गों , समुदायों और हितसमूहों में इस अपेक्षा और प्रतीक्षा का घनत्व भी भिन्न - भिन्न हुआ करता है। अपेक्षा और प्रतीक्षा के घनत्व की इस भिन्नता से विभिन्न स्तर पर विभिन्न प्रकार के असंतोष एवं संघर्ष की स्थिति का उदय होता है। यह संघर्ष कई बार आत्म-संघर्ष सरीखा होता है तो कई बार, वृहत्तर अर्थ में एकीकृत किंतु विभिन्न स्तर पर आत्म-विभक्त समाज में, यह बाहरी-भीतरी के संघर्ष जैसा भी होता है। इससे एक प्रकार के असंतुलन का भी जन्म होता है। इस असंतुलन की आंतरिक सक्रियता से द्वंद्व और द्वंद्व की बाहरी सक्रियता से आंदोलन का आधार तैयार होता है।सकारात्मक और नकरात्मक शक्तियों के हस्तक्षेप से आंदोलन की दिशा तय होती है। राजनीतिक,नागरिक, क्रंातिकारी, हिंसक उग्रवादी , अलगाववादी, आतंकवादी, धार्मिक , विपथित सांप्रदायिक , उपभोक्ता या बाजारवादी आंदोलन जैसे भिन्न रूपों में इसकी अभिव्यक्ति होती है।कभी सतह के ऊपर तो कभी सतह के नीचे इनका प्रतिआंदोलन भी संगठित और सक्रिय पाया जाता है।यहाँ आपराधिक प्रवृत्तियों के सामाजिक विकास के कारणों को भी पढ़ा जा सकता है।
किसी भी आंदोलन के लिए एकता की जरूरत होती है।एकता के लिए एकत्व-बोध के नये-नये आधारोंे की तलाश नये सिरे से शुरू होती है।बदलती परिस्थतियों की गतिशीलता के कारण जरूरतें बदलती हैं, प्राथमिकताओं का क्रम एवं आग्रह बदलता है। इस बदलाव के क्रम में पुरानी अस्मिता की जगह नई अस्मिता की खोज-बीन शुरू होती है।परिणामत: ''हमलोग'' और ''वेलोग'' के रूप में पुनर्समूहन की प्रक्रिया का प्रारंभ होता है। ''हमलोग'' और ''वेलोग'' की परिधि, परिसीमा, और परिभाषा हमेशा स्थिर नहीं रहती है।बल्कि प्रसंगानुसार अस्मिता को तय करनेवाले निर्णायक कारणों में से कुछ के स्थगित हो जाने और कुछ के सक्रिय हो जाने से इनमें बदलाव आता रहता है।गतिशील समाज में तेजी से प्रसंग बदलने के कारण स्थगन और सक्रियता में भी उसी तेजी से नये रुझान बनते हैं।इससे ''हमलोग'' और ''वेलोग'' के समूह की सदस्यता की पात्रता भी उसी तेजी से बदलती रहती है। एकत्व-बोध के नये आधार की तलाश में नई अस्मिता उभर कर सामने आती और अपनी व्यापक सामाजिक स्वीकृति का दावा करती है।पुरानी अस्मिता अपर्याप्त ठहरने लगती है।अपर्याप्त पड़ जाने पर भी पुरानी अस्मिता न तो बहुत आसानी से खारिज होती हैं और न नई अस्मिता बिना संघर्ष के स्थापित हो पाती हैं।कई बार पुरानी अस्मिता तो निरस्त हो जाती हैं लेकिन नई अस्मिता निर्मित नहीं हो पाती है और तथाकथित जड़ से उखड़े या जड़विहीन व्यक्ति एवं जमात अपनी समग्र संवेदना में अस्मिता-संकट के झंझावात से जूझता हुआ पाया जाता है।पुराना पर्याप्त नहीं होता नया स्वीकार्य नहीं होता !कई बार तो व्यक्ति और समाज एक साथ अपनी एकाधिक अस्मिताओं को अपनाये रहता है।होता यह भी है कि व्यक्ति या समुदाय अपनी जिस /जिन अस्मिता / अस्मिताओं से खुद को जोड़ता है उस / उन अस्मिता / अस्मिताओं को समुदाय के बाहर उनकी अस्मिता / अस्मिताओं के रूप में स्वीकृति नहीं मिलती है।इसे वास्तविक और आभासी के रूप में भी देखा जा सकता है। यहाँ नई-पुरानी, वास्तविक-आभासी जैसी बहु-अस्मिताओं का पारस्परिक संघर्ष होता है।जिसे कई बार हम पीढ़ियों के अंतराल के माध्यम से समझते हैं और कई बार बदलती समाजिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक, आर्थिक हैसियत आदि के संदर्भ में रुचियों के बदलाव से ही जोड़कर देख पाते हैं।नई-पुरानी और वास्तविक-आभासी अस्मिताओं के आंतरिक संघर्ष के तनाव से आत्मविभ्रम की मन:स्थिति बनती है। इन सारी स्थितियों को समाजशास्त्र की शब्दावली में संक्रमण की पीड़ा कहा जाता है।वैसे तो सामाजिक संस्तरण और संक्रमण की प्रक्रिया सदैव सक्रिय रहती है लेकिन पुराने युग के समापन और नये युग के उद्यापन के संधिकाल में यह प्रक्रिया काफी तेज हो जाती है और संक्रमण की सामाजिक पीड़ा अपने चरम पर पहुँच जाती है। 
सत्ता 
सत्ता के विभिन्न रूप हैं,इसे इस तरह भी कहा जा सकता है कि सत्ता अपने होने को विभिन्न रूपों में अभिव्यक्त करती है।इनमें से कुछ रूपों के साथ अपने दैनंदिन के कार्यव्यापार का निष्पादन करते हुए हमारा संपर्क होता है तो कुछ के साथ अवसर विशेष के उपस्थित होने पर ही हमारा परिचय होता है।सत्ता के कुछ रूप प्रकट होते हैं तो कुछ रूप गुप्त भी होते हैं। इस गुप्त रूप और उसके जीवन में असर का ठीक-ठाक अंदाजा नहीं होने के कारण अपनी समस्याओं और उसके हल के भी असली कारकों को समाज और उसका सदस्य ठीक से चिह्न नहीं पाता है।इसलिए कई बार समाज और उसके सदस्यों को अपना दुख और अपनी समस्या एक अबूझ पहेली और असाध्य चुनौती की तरह लगने लगती है।इस स्थिति में एक प्रकार की सामाजिक खीझ उत्पन्न होती है।इस खीझ की सामाजिक अभिव्यक्ति नाना रूपों में होती है।इस खीझ के सामाजिक प्रतिफलन को सामान्य नागरिक व्यवहार और आचरण में बड़ी आसानी से पढ़ा जा सकता है। चँूकि सत्ता के सभी रूप एक ही केंद्रीय और मुख्य सत्ता के विभिन्न रूप होते हैं इसलिए मुख्य सत्ता के स्व और सत्व की संरचना की आंतरिक गतिशीलता के वेगवर्द्धन से उसके नाना रूपों की विभन्न सत्ताओं के स्व और सत्व में भी निरंतर बदलाव आता रहता है। इन सभी रूपों में केंद्रीय और मुख्य सत्ता के बल,स्वभाव और चरित्र का अपना असर होता है।इस स्वभाव और चरित्र को थोड़े से आयास से ही पहचाना और समझा जा सकता है।आज पूरी दुनिया को मुख्य सत्ता की इस केंद्रोन्मुखी सर्ववर्चस्ववादी प्रवृत्ति से जबर्दस्त खतरा है।इस खतरे को ताड़ने और इस केंद्रीयता को तोड़ने की कारगर तरकीब ढूढ़ने की कोशिश के संदर्भ में ही सत्ता विमर्श की सार्थकता प्रतीत होती है।
सत्ता का असल और मौलिक स्रोत तो समाज होता है,जहाँ सत्ता निरंतर निर्मित और सृजित होती रहती है।लेकिन राजनीतिक कठौते में ही एकत्र एवं संघनित होकर वह उपलब्ध होती है।जैसे शहद अपने मूल रूप में न तो पराग में होता है और न ही मधुमक्खी की किसी ग्रंथि या मधुछत्ते में लेकिन शहद के उस मूल तत्त्व के संचयन, रूपांतरण और मधुछत्ते में संग्रहण में मधुमक्खी की भूमिका से इनकार नहीं किया जा सकता है।सत्ता के संदर्भ में राजनेताओं ,राजनीतिक प्रक्रियाओं, और राजनीतिक निकायों में निहित सत्ता के होने के मर्म को इस रूपक के माध्यम से कुछ हद तक समझा जा सकता है। समाज की सत्ता राज में अंतरित और राज को ही प्रदत्त हो जाती है।यह राज विभिन्न सामाजिकताओं को अपने परिक्षेत्र में समेटते हुए अपना प्रभावी विस्तार करता है। राज के गठन, स्वभाव, चरित्र और व्यवहार से सत्ता का नजदीकी संबंध होता है।इसलिए '' समाज, सत्ता और संस्कृति'' के किसी भी विमर्श में राज के गठन, स्वभाव, चरित्र और व्यवहार पर विचार किये बिना सही दिशा में आगे बढ़ना मुश्किल ही प्रतीत होता है। सत्ता का केंद्रीय और मुख्य रूप अब तक राजनीतिक ही होता आया है।अपनी तमाम सीमाओं के बावजूद जनतंत्र आधुनिक राज का सार है।जनतांत्रिक चेतना एवं युक्तियँा आधुनिक राज का हीर है।प्रपंच के कारण हो या प्रवृत्ति के कारण, राज अब तक जनतंत्र के अमृत-तत्त्व के सर्वसाधारण तक पहँुचने देने की कारगर प्रणाली का विकास कर नहीं पाया है। इस स्थिति में पिछले कुछ दिनों से एक प्रकार का विग्रही बदलाव भी जरूर ही लक्षित किया जा रहा है। आज की स्थिति में,राज नये प्रकार की टूटन प्रक्रिया से गुजर रहा है।इस टूटन के क्रम में राजनीतिक-राज की जगह सामाजिक-राज के लिए प्रभावी जगह बननी चाहिए थी। यह जगह बन नहीं पा रही है।भूमंडलीकरण और बाजारवाद के इस उत्तर-आधुनिक होते समय में जब अधिराष्ट्रीयता (trans-nationality) अपने उभार पर है तब राज के गठन में जन के स्थान पर धन की भूमिका बड़ी तेजी से बढ़ रही है।जन की जगह धन के आ जाने से राज के स्वभाव में भी बदलाव आना लाजिमी ही है।राजनीतिक-राज के सामाजिक-राज में अंतरित होने के बदले राजनैतिक-राज का अंतरण सीधे नैगमिक-राज (corporate state) में हो रहा है। जन की जगह धन के लेनेे की प्रक्रिया के जारी रहने पर जनतंत्र की जगह धनतंत्र के लेने की प्रक्रिया भी जारी रहती है।इस प्रक्रिया की सहज स्वाभाविक तार्किक परिणति के अनुरूप समाज की जगह बाजार के आने की प्रक्रिया के भी जारी रहने को समुचित आधार मिल जाता है।अब तक राज को जो ताकत जन और समाज से मिलती रही है अब वह ताकत धन और बाजार से मिलने लगी है। आशा की बात यह है कि चूँकि धन का मनुष्य के अस्तित्व से इतर कोई अपना स्वतंत्र अस्तित्व नहीं होता है और मनुष्य अपनी निजता में एक सामाजिक प्राणी बने रहने के लिए बाध्य है, चाहे उस सामाजिकता स्वरूप कैसा भी और कुछ भी क्यों न हो इसलिए बाजार का भी अपना समाज बनने की समानांतर प्रक्रिया भी गति पकड़ेगी।तब यह जरूर है कि इस समानांतर प्रक्रिया में पारंपरिक समाज या उपलब्ध समाज के स्वरूप में गुणात्मक बदलाव भी घटित होगा और एक प्रकार का कठसमाज ही विकसित हो पायेगा।अवसर आने पर समाज और कठसमाज का अंतर तुरंत समझ में आ जायेगा।इस अंतर के कारण समाज और कठसमाज का संघर्ष भी खिलेगा और नैगमिक-राज के सामाजिक-राज में अंतरित हाने का रास्ता भी खुलेगा।अंतरण की प्रक्रिया की यह तरल अवधारणा अभी एक स्वप्न की तरह ही है,प्रागनुभव (transcendet) और अवधारणा के संयोग से रचे स्वप्न की तरह।
राज विधान से चलता है और विधान सतत संवाद से विकसित विचार से बनता है।विचार का संबंध सामूहिक आकांक्षा से होता है और आकांक्षा का मन से।मन बहुत चंचल होता है इसलिए आकांक्षा में स्वाभाविक गतिशीलता होती है।विचार आकांक्षा की स्वाभाविक गतिशीलता से निष्पन्न होता है और उपलब्ध नैतिक सरणियों में अंगीकृत होकर एवं उसे परिवर्तित करते हुए संपन्न होता है। समाज संस्कार से चलता है और संस्कार उपलब्ध भौतिक परिस्थितियों में और उसी की अनुकूलता में किये जानेवाले विचार प्रेरित आचरण की पुनरावृत्तियों से रूढ़ होता है।विचार अपने निर्माण में आचरण की पुनरावृत्तियों की अनिवार्यता से मुक्त होने तथा आकांक्षाओं से संयुक्त होने के कारण संस्कार से अधिक गतिशील होता है। विचार में गतिज उर्जा अधिक होती है जबकि संस्कार में स्थैतिज उर्जा अधिक होती है।विचार में गतिशील जड़ता का गुण होता है जबकि संस्कार में स्थितिशील जड़ता का गुण होता है।संस्कार का संबंध परंपरा से अधिक होता है जबकि विचार का संबंध प्रगति से अधिक होता है।विचार और संस्कार एक दूसरे को संबलित करते हैं लेकिन इनका संबंध स्वाभाविक रूप से द्वंद्वात्मक अनुपूरकता का होता है।एक दीर्घ द्वंद्व और दोलन के क्रम में विचार संस्कार में ढल जाता है।विचार के संस्कार में ढलने में लगनेवाली अवधि द्वंद्व और दोलन की दीर्घता और तीव्रता पर निर्भर करती है।विचार-समुच्चय को विचारधारा कहते हैं और संस्कार-समुच्चय को संस्कृति कहते हैं।आज के उत्तर-आधुनिक आग्रहों में विचारधारा से बचने और संस्कृति को बरतने की प्रचेष्टाओं के मूलार्थों को भी समझना जरूरी है। 
संस्कृति 
सत्ता की अपनी संस्कृति होती है और संस्कृति की भी अपनी सत्ता होती है। सत्ता की संस्कृति और संस्कृति की सत्ता में कश्मकश की स्थिति बराबर बनी रहती है।सत्ता का संस्कृति से निकट का संबंध होता है।सत्ताधारी शक्ति अपनी विचारधारा को संस्कृति में बदल कर संस्कृति की शक्ति से जुड़ना चाहती है।इस जुड़ाव से उसमें स्थायित्व आता है।संस्कृति में ढल सकनेवाली विचारधारा पर पकड़ ढीली पड़ते ही सोवियत संघ के स्थायित्व को बनाये रखना अंतत: असंभव ही साबित हुआ।पहले गाँधीवाद,फिर नेहरूवाद से भी वियुक्त हो जाने के बाद काँग्रेस कुछ दिन तक अपनी सत्ता को बनाये रखने में कामयाब तो रही लेकिन इंदिरा गाँधी के स्थायी सरकार के नारे के बीच से ही स्थायित्व के अभाव का वह संकट भी झाँकता हुआ मिल जाता है जो अब काँग्रेस का स्थायी संकट बन गया प्रतीत होता है।अभी के सत्ताधारियों के सांस्कृतिक-राष्ट्रवाद का प्राण भी स्थायित्व के इसी तोते में बसता है।वे अपने ''सांस्कृतिक राष्ट्रवाद ''के सिद्धांत के अंतर्गत संस्कार को ही अपना विचार बनाने के प्रयत्नलाघव से स्थायित्व को सुनिश्ति करने की प्रगति विरोधी परियोजना पर काम कर रहे हैं।यह दही को दूध बनाने के काम जैसा है।यहीं हम चाहें तो विचारधारा की अंतवादी घोषणाओं का भी मर्म पकड़ सकते हैं।विचारधारा के अंत की घोषणा और तुरंग-संस्कृति (high speed culture) के आविर्भाव को भी जोड़कर देख सकते हैं।यह तुरंग-संस्कृति एक ऐसे मनोस्वभाव के विकास कारक बनती है जो मनोस्वभाव किसी विचार को न तो अपने अंदर रख (contain) सकता है,न टिका (sustain) सकता है,न आत्मसात (receive) कर सकता है और न ही धारण (conceive) कर सकता है।अभी, इकॉनामिक टाइम्स के 19 अक्तूबर 2001 के अंक में ''विश्व श्रम संगठन'' के शासी निकाय के उपाध्यक्ष लॉर्ड बिल ब्रेट का एक साक्षात्कार, जो कृष्ण कुमार को दिया गया था, प्रकाशित हुआ है।इस साक्षत्कार में उन्होंने विदेशी पूँजी निवेश के लिए कठोर श्रम कानून, जिस में हमारे राजनेताओं को कुछ अधिक ही दिलचस्पी है, की तुलना में राजनीतिक स्थिरता को ही अधिक जरूरी माना है।अब इस अंतर्विरोध को समझने की कोशिश करें कि विचारधारा के तथाकथित अंत और तुरंग-संस्कृति के इस समय में जब हर प्रकार की स्थिरता को गाजेबाजे के साथ विदाई दी जा रही है तब इस ''राजनीतिक स्थिरता''को हासिल करने की चुनौती सामने खड़ी है ! यह ''राजनीतिक स्थिरता '' होती क्या है ? यह एक बड़ा सवाल है।क्योंकि, अगर एक ही समूह के शासन से इस ''राजनीतिक स्थिरता'' को जोड़कर देखा जायेगा तो मानना पड़ेगा की लोकतंत्र को सुनिश्चित करनेवाले प्रत्येक संविधान में ही ''राजनीतिक अस्थिरता '' के प्रावधान रहा करते हैं,जिसे निर्वाचन के प्रावधान से समझा जा सकता है। तो क्या लोकतंत्र को सुनिश्चित करनेवाले प्रत्येक संविधान मूलत: विदेशी पूँजी निवेश के प्रतिकूल पड़ता है? वस्तुत: विचारधारा के तथाकथित अंत के किसी पाठ में विचार-शून्यता या विचार-हीनता के लिए कोई जगह नहीं है।विचारहीनता का विचार हीन विचार है, लेकिन है विचार ही । असल में विचारधारा का अंत बतानेवालों के पास भी विचारधारा अगर न भी हो तब भी संस्कार-समुच्चय को विचार-समुच्चय में ढालकर हासिल किया गया एक सुचिंतित विचार-समुच्चय तो है ही।और उस विचार-समुच्चय का नाम है उपभोक्तावाद।अपने स्थायित्व को टिकाऊ बनाने के लिए भोगो और भूल जाओ (use & throw) के पैरोकार इस उपभोक्तावादी विचार-समुच्चय को संस्कार बनाने के काम में लगे हैं।यानी, इस कोठी का धान उस कोठी में ! एक तथाकथित नई उपभोक्ता संस्कृति का ताना-बुनने और तथाकथित ढंग से पुरानी पड़ चुकी संस्कृति का ताना-बाना छिन्न-भिन्न करने के उपक्रम में वयस्त हैं।इनकी असली पगबाधा तो भौतिक परिस्थिति और उपलब्ध संसाधनों के अतिकेंद्रण एवंं अवितरण से जुड़ी हुई है। इस अतिकेंद्रण एवंं अवितरण का कोई इलाज इनके पास है नहीं और जो असल इलाज है वह इन्हें स्वीकार्य नहीं है।इस अतिकेंद्रण और अवितरण की चपेट में सिर्फ वस्तुएँ ही नहीं सत्ता और संस्कृति भी है। यह है इनका अंतर्विरोध !
समाज की मुख्य शक्ति संस्कृति एवं परंपरा में निहित होती है और राज की मुख्य शक्ति प्रगति एवं विचारधारा में अंतर्भुक्त रहती है जिसे राज विधान का रूप प्रदान कर जीवन-शैली के रूप में रुढ़ बना कर सत्ता के शिखर पर आरुढ़ होने का मौका अपने माननेवालों को मुहैय्या कराता है।विचार और संस्कार की साझी जमीन पर सत्ता का निवास होता है।इसके एक छोर पर समाज होता है तो दूसरे छोर पर राज होता है।समाज और राज में शक्ति-संतुलन के लिए द्वंद्व जारी रहता है।इस द्वंद्व की अभिव्यक्ति विभिन्न तरह के आंदोलनों में होती है।इस द्वंद्व से संवाद के सकारात्मक परिणामस्वरूप समाज और राज दोनो का विकास होता चलता है।विचारधारा का नवप्रवाह किसी भी संस्कृति के प्राणतंत्र के सातत्य को बनाये रखने के लिए अनिवार्य होता है।ऐसा इसलिए कि विचारधारा के बल पर ही सत्ता के समाज से राज में अंतरण की अबाध प्रक्रिया जारी रहती है और इस प्रक्रिया की परिणति में ही संस्कृति का गठन, विकास और नियमन होता है।इस प्रक्रिया में समाज और राज में द्वंद्व तो होता है लेकिन अधिक सुगठित, गतिशील और औपचारिक होने के कारण इस प्रक्रिया का मुख्य सूत्रधार राज ही बना रहता है।
'' भारतीय समाज '' को नारंगी के रूपक से समझा जा सकता है।प्राणप्रद आवरण के अंदर प्रत्येक रसकोशिकाओं की सापेक्षत: अपनी स्वतंत्र और निजी स्थिति होती है।अनुभव और अवधारणा के अंतराल को ठीक से परखा जाये तो बाहरी परिप्रेक्ष्य में भारतीयता के मजबूत आवर्त्ती तत्त्वों की एकता के अस्तित्व के होने की सचाई को स्वीकार करने के बावजूद इसकी आंतरिक संरचना की ऐकिक केंद्रीयता को धारण करनेवाली ऐसी किसी नाभिकीय बिंदु का ऐसा कोई संधान नहीं मिल पाता है जो '' भरतीय राज्य '' को एक ही समाज अर्थात'' भारतीय समाज '' के रूप में स्वीकार्य बना पाये। यहाँ खतरा दुतरफा है।भूमंडलीकरण के इस आँधी के समय में जब आभासी अस्तित्व के स्वीकार का प्रचलन बढ़ रहा है एक ओर एकदम क्षुद्र स्तर पर जाकर ऐसे सामाजिक मानकों को तैयार करने का काम किया जा रहा है जिसके परिणामस्वरूप व्यक्ति के पास अपनी विघटित सामाजिकता में अकेले अकुलाने की स्थिति के अलावे कोई रास्ता नहीं बचेगा।दूसरी ओर दत्त-चित्त हो कर ऐसी किसी एक आभासी नाभिकीय बिंदु की निर्मिति की जा रही है जिससे विभिन्न समाजों की सापेक्ष स्वायत्तता खतरे में पड़ जाती है और व्यक्ति की दशा मेले की भीड़ में ,अपनों से बिछुड़कर अकेले पड़ गये , अपने परिवार के सदस्यों को ढूढ़ रहे नन्हे बच्चे की जैसी हो जाती है।ऐसे लोग मुँह से भले ही कभी-कभी भारतीय समाज के बहुलात्मक स्वभाव की भी बात कर लिया करें लेकिन इनके प्रमुदित मन की झलकी और ओज की चमक तो इनके चेहरे पर तब दीखती है जब ये ''एक प्राण, एक मन, एक राष्ट्र, एक धर्म , एक भाषा'' की तोतारटंत के मनोप्रभाव में विचरण करते हुए पाये जाते हैं।आज समाज को अतिसंकुचन और अतिविस्तरण दोनों ही खतरों से एक साथ जूझना पड़ रहा है।इन अतियों के कारण एक ओर समाज निष्प्रभव बन जाता है तो दूसरी ओर व्यक्ति अकेलेपन की गिरफ्त में फँस कर राज का आसान आखेट बन जाता है।
निश्चित रूप से समाज के स्वरूप पर यथार्थपरक बात करने के लिए किसी यथार्थ समाज को सामने रखकर ही बात की जा सकती है, हमारे लिए वह यथार्थपरक समाज स्वाभाविक रूप से व्यापक हिंदी समाज ही हो सकता है। हमारा समाज तो कई-कई युगों के संधिकाल के प्रक्षेप के दुर्वह बोझ को ढोने के लिए विवश है।इस बोझ में बहुत कुछ ऐसा ही है जो अब वस्तुत: हमारे किसी भी काम का नहीं है लेकिन काम की चीज को अपनी गठरी में जगह देने के अवसर से वंचित रह जाने के कारण,हम अपनी जर्जर पीठ पर उसे लादे चल रहे हैं।सहज स्वाभाविक है कि सार्थक मिल नहीं रहा है तो निरर्थक से पिंड भला कैसे छूटे ! यह भी कि निरर्थक को छोड़ने का साहस हम कर नहीं पा रहे हैं तो सार्थक को बटोरने की ताकत कहाँ से आये ?बिमारु कहा जानेवाला हमारा समाज अब पूरे भारत के पिछड़ेपन का कारण बताया जा रहा है।साइबर-स्नेह के इस युग में मिथकीय राधा-कृष्ण की लीलाभूमि पर प्रेम के अपराध पर सामाजिक रूप से फाँसी चढ़ा दिया जाता है।सांप्रदायिकता और जातिवाद की चपेट का असर तो अपनी जगह है ही।दल और गिरोह की सत्ता अलग-अलग नहीं है।कभी दल गिरोह जैसा व्यवहार करता है तो कभी गिरोह दल के रूप में सजधज कर सामने आता है।हमारा समाज एक तरह से सामाजिक अपराध में लिप्त समाज बनता जा रहा है। लगता है, हमारे विवेक को काठ मार गया है।कठुआये हुए विवेक से सार्थक-निरर्थक की पहचान संभव नहीं होती है।आज हमारा समाज एक अवसन्न समाज बनकर रह गया है।इसके सर्वतोमुखी अध्ययन की जरूरत है।इसे सच्ची और गहरी सहानुभूति के साथ गहन सामाजिक-चिकित्सा की मर्मांतक प्रक्रिया और कष्टकर चर्या को बर्दाश्त करने के लिए तैयार किये जाने की जरूरत है।सहानुभूति ? वह भी सच्ची और गहरी ! एक दुर्लभ चीज कहाँ किसके पास मिलेगी भाई ? कठिन सवाल है।
जी हाँ , बहुत ही कठिन सवाल है ! हमारे समाज में दलित,स्त्री और माँ-बाप के रहते हुए भी अनाथ जैसी जिंदगी जीने के लिए विवश बच्चों की स्थिति की ओर ध्यान देने कौन आयेगा ? होरी और हरिचरना,धनिया और बुधिया के समाज में बढ़ती आबादी के सामाजिक फलितार्थ तो अपनी जगह हैं ही आबादी के आधार पर संसदीय आसनों में बढ़ोतरी न किये जाने के राजनीतिक निहितार्थ के आशय भी कम खतरनाक नहीं हैं।केंद्रीय अनुदान अवश्यकता के आधार पर तय के जाने की जगह लक्ष्य प्राप्ति के आधार पर तय जाने के सिद्धांत के आर्थिक परिणाम भी कम खतरनाक नहीं होंगे। निरक्षरता तो अपनी जगह है ही पढ़े-लिखे लोगों के द्वारा किये जानेवाले निरक्षाचार की समस्या उससे कम बड़ी नहीं है। आर्थिक विपन्नता तो अपनी जगह है ही सामाजिक-सांस्कृतिक विपन्नता भी कम त्रासद नहीं है।राजनीतिक प्रक्रिया मूल रूप से अभी भी सामंती ढाँचे में ही पूरी हो रही है। नाना आधार पर हिंदी प्रदेशों के टूटने की प्रक्रिया का तिलस्म भी समझे जाने लायक है। स्थानीय स्वशासन और पंचायतों की स्थिति के क्या कहने ! विश्वविद्यालयों और शिक्षण संस्थानों को देखिये तो हताशा और बढ़ जाती है। कहाँ है उम्मीद की किरण ? और तो और, हमारा '' तथागत '' भी फर्जी ही निकला ! कठिन सवाल है। सच्ची और गहरी आलोचनात्मक प्रवृत्ति ही इस समस्या से निकलने का कोई रास्ता सुझाये तो सुझाये। यह आलोचनात्मक प्रवृत्ति हम अर्जित कर पायेंगे ? कठिन सवाल है ।

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