रचनाधीन उपन्यास

धूप-छाँव का अद्भूत खेल है। जंगल, पहाड़, सागर, सरिता, ताल-तलैया, ऊँच-नीच सबके जीवन में यह खेल चलता है। रौशनी में नहाकर दुनिया सँवर जाती है। कितने तो रंग हैं प्रकाश में। अंधकार भी प्रकाश का ही एक रंग है। अनुपस्थिति का रंग। ऐसा रंग जो अपने अलावा कुछ भी देखने न दे। जब उस एक के अलावा कुछ भी दिखाई न दे, सूझे न कोई राह। सिर्फ ठोकर ही राह बताये। समझो कि अंधकार के घेरे में हो। चाहे जितना भी घना होता है निराशा का अंधकार, उसके अंदर हमेशा ही सोई रहती है आशा की किरण। ठोकर लगते ही जग उठती है आशा की किरण। तन घायल, मन पायल। बार-बार पराजित होकर भी बची रहती है मनुष्य के अंदर की इच्छाएँ। इच्छाओं में भी होड़ लगी रहती है। आदमी किस इच्छा को तरजीह दे, किसे सपनों की नींद सुला दे। किसे मौत की नींद सुला दे। इच्छओं को पहचानना भी क्या कम कठिन है! आदमी आशा की पतली-सी डोरी से इच्छा की गठरी बाँधता ही रहता है। यह पतली डोरी टूटी नहीं कि गठरी बिखर कर छितराई नहीं। इस गठरी को काँख में दबाये आदमी भविष्य की अंधी घाटी में उतरता ही रहा है। प्रकाश के स्रोत को आदमी ने खोज निकाला। बार-बार खोज निकाला। आदमी को प्रकाश मिला और भरपूर मिला। फिर इतना अंधेरा क्यों है! आदमी प्रकाश को अपनी मुट्ठी में बाँध लेता है। मुट्ठी ढिली पड़ी और रौशनी कपूर। आदमी क्या करे? प्रकाश की हर किरण के साथ अंधकार भी लिपटा चला आता है। इसलिए ▬ तमसो मा, ज्योतिर्गमय! अंधकार नहीं, प्रकाश की ओर चलो! प्रकाश के संधान में चलो! सावधानीपूर्वक चलो। मगर चलो। चलते ही रहो। मुट्ठी बाँधकर चलो। हाथ जोड़कर चलो, कदम खोलकर चलो। चरैवेति-चरैवेति।
तमसो मा, ज्योतिर्गमय! अंधकार नहीं, प्रकाश की ओर चलो! प्रकाश के संधान में चलो! आँख के खुलते ही बाबा यही दुहराते थे। कभी-कभी तो इतनी जोर से गुहराते थे कि आँख बंद कर जागते हुए में सोये रहना किसी के लिए मुश्किल होकर रह जाए। आदमी खीझकर सोचने लग जाए कि सुबह-सुबह यह सब दुहराने का क्या मतलब! सुबह-सुबह तो प्रकाश आपके पास चलकर आता है। जो खुद आपके पास चलकर आता हो उसकी खोज में चलने के क्या मायने! तब यह समझ में बिल्कुल नहीं आया था कि नदी में पानी के निरंतर बहते रहने पर भी प्यास अपने-आप नहीं बुझती है! किशोर होने तक वह बाबा को इसी तरह जागते और जगाते पाया था। अचानक एक दिन उसे लगा कि वह जवान हो गया। उस एक दिन अचानक क्या हुआ था! बाबा के इस जागरण विन्यास में थोड़ा-सा अंतर प्रकट हुआ था। अंतर यह कि बाबा के दुहराव के समापन में अब कबीर प्रकट हो गए! कबीर कैसे और क्यों प्रकट हुए पता नहीं। समापन जल बीच मीन पियासी के साथ होने लगा था। पानी में रहते हुए भी मछली प्यासी है। यह वह नहीं समझ पाया था। वह भला क्या समझता! यह बात तो अर्थशास्त्र में प्रथम श्रेणी के अंकों के साथ एम.. पास करने पर भी वह नहीं समझ पाया था। उससे भी सही बात यह है कि जवानी के पकते ही उसके मन से बाबा के जागरण अध्याय का वह प्रसंग ही गायब हो गया था। यह बात उसकी समझ में पहली बार तब आई जब वह आर्थिक विकास के परिप्रेक्ष्य में नाजीरगंज के जीवन स्तर पर शोध सामग्री जुटा रहा था। उसकी समझ में यह बात आ रही थी कि किस प्रकार चारो ओर समृद्धि के रहते हुए भी आदमी गरीबी में जीता है। किस प्रकार ज्ञान की बड़ी-बड़ी डिग्रियों के रहते हुए भी आदमी अज्ञान में जीता है। अब यह बात थोड़ी-थोड़ी समझ में आ रही थी कि किस प्रकार जल में रहकर भी मीन प्यासी रहती है। कि किस प्रकार चारो तरफ प्रकाश से घिरे रहकर आदमी अंधकार में रहता आ रहा है। 

अब चारो तरफ अँधेरा ही अँधेरा है। क्या किया जा  सकता है? हम क्या कर सकते हैं! सोच-सोचकर मन भारी हो जाता है। आज बाबा की बहुत याद आ रही है। बाबा नहीं रहे। उनकी याद रह गई है। यह याद भी तब आती है जब मन अपने किये पर उलझ-पुलझकर छटपटाता रहता है। तब लगता है जैसे मछली पानी में आजाद रहने पर भी यह समझ ले कि वह जाल में फँसी हुई है। खैर तभी तक है जब जक कोई जाल की डोरी नहीं खींच नहीं लेता है। जिस दिन जाल की डोरी खींच ली जायेगी उसी दिन परदा गिर जायेगा। परदा गिर जायेगा और खेल खतम। बाबा ने आगाह करते हुए कहा था कि बेटा अपना परमानेंट ठिकाना बदलना ठीक नहीं। लेकिन यह कहने पर कि टेंपरोरी दुनिया में परमानेंट ठिकाने की बात में कोई दम नहीं है। साठ-सत्तर बहुत हुआ तो अस्सी-नब्बे बरस की तो होती है जिंदगी। इतना समय कहीं काट लेगा। बाबा की दिमागी बुनावट खाँटी हिंदू मूल्यों से बनी थी। इसीका लाभ उठाकर बाबा को उसने निरुत्तर कर दिया था। बाबा निरुत्तर हो गये थे। उस समय बाबा को निरुत्तर पाकर उसके चेहरे पर विजेता का दर्प आ गया था। तब की बात और थी। अब न तो बाबा हैं, न चेहरे पर विजेता का दर्प है। आज अगर कुछ बचा है तो सिर्फ प्रश्न। जीवन की परीक्षा में प्रश्नों के उत्तर लिखकर वह परम संतुष्ट हुआ था कभी। वे सारे उत्तर समय के साथ मलीन होते चले गये हैं। मलीन ही नहीं होते गये हैं, मिटते भी गये हैं। जलते हुए प्रश्नों से सिर्फ काला धुआँ निकल रहा है। चिरायँध निकल रही है। इस आग में सिर्फ धुआँ-ही-धुआँ है। इस आग में किसी रौशनी की कोई सूरत नहीं बाबा। आज सामलाल के चारों तरफ प्रश्नों का अँधेरा है। सिर्फ अंधेरा। उत्तर का आलोक कहीं नहीं है। बाबा आज दुनिया में नहीं हैं। दुनिया में नहीं हैं, मगर वह अपनी बात तो सिर्फ बाबा को ही कह सकता है।

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